औरंगाबाद में वैदिक सम्मेलन में बोलते हुए केंद्रीय राज्य मंत्री डॉ सत्यपाल सिंह ने कहा की मनुष्य बन्दर रूप में नहीं अपितु युवा रूप में पैदा हुआ था। हमारे पाठयक्रम में पढ़ाई जा रही इस भ्रान्ति को दूर किया जाना चाहिए। केंद्रीय मंत्री जी के बयान पर एक विशेष खेमे में खलबली मच गई। इस खेमे के अनुसार जो कुछ विदेशी सोचते हैं वह सही है। जो कुछ भारतीय मनीषियों का चिंतन है। वह गलत है। इस विषय पर अनेक लेखों के माध्यम से उनकी इस भ्रान्ति का निवारण किया जायेगा। यह प्रथम लेख वेद आदि शास्त्रों के प्रमाण से सम्बंधित है। जिनके अनुसार मनुष्य बन्दर रूप में नहीं अपितु युवा रूप में पैदा हुआ था।
पश्चिमी सभ्यता में डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत प्रचलित है। इसके अनुसार मनुष्य पहले बन्दर रूप में पैदा हुआ। बाद में विकास कर मनुष्य बना। वैदिक विचारधारा विकासवाद को नहीं मानती। इसके अनुसार मनुष्य सृष्टि की उत्पत्ति काल में युवा रूप में पैदा हुआ था। अगर बालक रूप में पैदा होता तो अपनी परवरिश करने में असक्षम होता और अगर वृद्ध होता तो संतान उत्पत्ति में असक्षम होता। इसलिए ईश्वर ने अनेक मनुष्यों को युवा रूप पैदा किया। उनके सम्बन्ध से मनुष्यों की अगली पीढ़ी पैदा हुई। सर्वप्रथम सृष्टि अमैथुनी कहलाई अगली मैथुनी सृष्टि कहलाई।
वेदों में सृष्टि उत्पत्ति के समय मनुष्यों के अमैथुनी सृष्टि द्वारा युवावस्था में होने का प्रमाण मिलते है।
ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उद्भिदोऽ मध्यमासो महसा वि वावृधुः ।
सुजातासो जनुषा पृश्निमातरो दिवो मर्या आ नो अच्छा जिगातन ।।-(ऋ० ५/५९/६)
भावार्थ:- सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न होने वाले मनुष्य वनस्पति आदि की भाँति उत्पन्न हुए।उनमें कोई ज्येष्ठ-कनिष्ठ अथवा मंझला न था-अवस्था में वे सब समान थे।वे तेजी से बढ़े।उत्कृष्टजन्मा वे लोग जन्म से प्रकृति माता के प्रकाशमय परमात्मा के पुत्र हम सब मनुष्यों की अपेक्षा अत्यन्त उत्कृष्ट हैं।
अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय ।
युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यः ।।-(ऋ० ५/६०/५)
भावार्थ:-सर्गारम्भ में उत्पन्न हुए मनुष्य छोटाई और बड़ाई से रहित होते हैं।ये भाई कल्याण के लिए एक-से बढ़ते हैं।सदा जवान,सदा श्रेष्ठकर्मा,पापियों को रुलाने वाला शक्तिशाली परमात्मा इनका पिता होता है और परिश्रमी मनुष्यों के लिए सुदिन लाने वाली प्रकृति अथवा पृथिवी इनके लिए सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाली होती है।
इन मन्त्रों में जवान मनुष्यों की उत्पत्ति का अत्यन्त स्पष्ट वर्णन है।अब तो पाश्चात्य विद्वान भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं।बोस्टन नगर के स्मिथ-सोनयिम इनस्टीट्यूशन (Smithsoniam lnstitution) के अध्यक्ष डा० क्लार्क (Clark) का कथन है-
Man appeared able to walk,able to think and able to defend himself.
अर्थात् मनुष्य उत्पन्न होते ही चलने,विचारने तथा आत्मरक्षा करने में समर्थ था।
सर्गारम्भ में एक दो मनुष्य उत्पन्न नहीं हुए,अनेक स्त्री-पुरुष उत्पन्न हुए थे।यजुर्वेदीय पुरुषोपनिषद् में कहा है-
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये।।-(यजु० ३१/९)
अर्थ:-उस परमेश्वर ने मनुष्य और ऋषियों को उत्पन्न किया।
यहाँ ‘साध्याः’ और ‘ऋषयः’ दोनों बहुवचन में हैं,अतः ईश्वर ने सैकड़ों-सहस्रों मनुष्यों को उत्पन्न किया।
मुण्डकोपनिषद् में भी इस बात का समर्थन किया गया है-
तस्माच्च देवा बहुधा सम्प्रसूताः,साध्या मनुष्याः पश्वो वयांसि।।-(मुण्डक० २/१/७)
अर्थ:-उस पुरुष (परमात्मा) से अनेक प्रकार के देव=ज्ञानीजन,साधनशील मनुष्य,पशु और पक्षी उत्पन्न हुए।
ऋषि दयानन्द जी द्वारा जीवन में दो अवसरों पर चाल्र्स डार्विन और उनके विकासवाद पर की गई दो तात्कालिक टिप्पणियां भी प्रस्तुत हैं। रूड़की में 1878 में दिए एक भाषण में उन्होंने कहा था कि ‘जिस समय वानर से नर उत्पन्न हुआ, कोई बन्धन इस प्रकार का नहीं लगाया गया था, कि आगे को वानर उसी प्रकार का कर्म करके नर को उत्पन्न नहीं करेगा, फिर क्या कारण है कि उस काल के पश्चात अब तक एक नर भी वानर से उत्पन्न नहीं हुआ – जबकि वह सब नर पशु और नारी पशु, जिनके संयोग से नर हुआ था, पृथिवी पर उपस्थित रहे।’
बरेली में दिनांक 25-8-1879 को दूसरी टिप्पणी करतें हुए ऋषि दयानन्द ने पादरी टी.जे. स्कॉट को शास्त्रार्थ में कहा था कि ‘‘जिनको आप सुशिक्षित कहते हैं, उन जातियों में से कोई मनुष्य अर्थात् दार्शनिक या विचारक (चार्ल्स डार्विन) बंदर से मनुष्य (उत्पन्न) होना मानता है, यह सर्वथा मिथ्या है।”
वेदों के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य बन्दर नहीं अपितु युवा रूप में सबसे पहले पैदा हुआ था।
डॉ विवेक आर्य