अल्पसंख्यक आयोग एक गैर संवैधानिक संस्था

कमलेश और कन्हैयाओं का गला काटने के लिए हमारी सरकारें ही धन देकर कट्टरपंथियों को पोषित कर रही हैं!

अल्पसंख्यक आयोग एक गैर संवैधानिक संस्था है। संविधान में इसका कहीं जिक्र नहीं है। सरदार पटेल इसके विरुद्ध थे। उन्होंने संविधान सभा में कहा था, SC/ST के अलावा भारत में और कोई वर्ग विशेष लाभ का अधिकारी नहीं है।

वोटबैंक बनाने और बढ़ाने के लिए बाद के नेताओं और राजनीतिक पार्टियों ने देश को बर्बाद किया। अल्पसंख्यक आयोग बनाने का पहला प्रस्ताव 1978-79 में आया और 1992-93 में एक्ट बनाकर इसे लागू कर दिया गया।

1978 में 90 सांसदों वाली जनसंघ के समर्थन व मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार थी और 1992 में नरसिम्हाराव के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार थी।

बाद में मनमोहन सरकार ने अवैध रूप से सच्चर कमेटी बनाकर और मोदी सरकार ने उस अवैध सच्चर कमेटी को चुपके से लागू कर (सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय ने मुस्लिमों का पिछड़ापन दिखाने के लिए सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को ही पेश किया है) इसे और विकराल बना दिया है!

एक्ट बनने के बाद से केंद्र और राज्य सरकारें मदरसा जैसी मध्ययुगीन शिक्षा आदि पर फंड बढ़ाती जा रही हैं, और कट्टरता को पोषित करती जा रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप भारत में सीरिया, कतर जैसे हालात बनते जा रहे हैं। उदाहरण के लिए यहां के देवबंद मदरसे की तालीम (उनकी सिखाई बातों को शिक्षा जैसा पवित्र नाम मत दीजिए) से अफगानिस्तान का तालिबान बना है, और कन्हैया का गला काटने में बरेलवी मदरसे की तालीम काम आई है! यह सरकारी फंड से पैदा ‘आसुरी तालीम’ का एक छोटा सा उदाहरण है बस!

अल्पसंख्यक के नाम पर प्रतिवर्ष केंद्र द्वारा जारी फंड देखिए 👇। करीब इतनी या इससे कुछ कम फंड अलग-अलग राज्य सरकारें भी अल्पसंख्यक कल्याण (कल्याण मतलब कट्टरता बढ़ाते रहने का अघोषित उपाय) के नाम पर खर्च करती हैं!

सोचिए भारत के एक विभाजन के केवल 20-22 साल बाद ही नेताओं ने भारत विभाजन का दूसरा बीज कैसे ‘अल्पसंख्यक कल्याण’ के नाम पर बो दिया, जिसकी फसल नेता वोटों के रूप में और हिंदू जनता अपने संसाधन और जान के रूप में लगातार चुका रही है।

संदीप देव 

 

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