धर्म निरपेक्ष देश में समान नागरिक संहिता क्यों नहीं?

देश में कई बार मांग उठी लेकिन वोट बैंक के चक्कर में समान नागरिक संहिता का मामला पीछे छूटता चला गया। आज आवश्यकता है कि यह कानून लाया जाए ताकि नागरिकों के जीवन स्तर में व्यापक और समान सुधार हो सके।

भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। 1947 में मिली स्वतंत्रता के बाद से ही भारत के संविधान में भारत का परिचय एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में दिया गया।  किन्तु वर्षों से यह प्रश्न बार बार उठता चला आ रहा है कि यदि भारत में वास्तव में धर्मनिरपेक्षता है तो कानून में समान नागरिक संहिता क्यों नहीं है? क्यों अलग अलग धर्मों के निजी कानून हैं? भारत में समान नागरिक संहिता नहीं है बल्कि धर्म के आधार पर कानून तय किए गए हैं। मुस्लिमों के लिए शरिया पर आधारित कानून हैं जबकि हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध के लिये अलग व्यक्तिगत कानून हैं। यद्यपि  मुस्लिमों को छोड़कर बाकी धार्मिक समुदायों के कानून भारतीय संसद के संविधान पर आधारित हैं। किन्तु तब भी प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि जब धर्मनिरपेक्षता बाकी सभी क्षेत्रों में लागू है तो कानून में क्यों नहीं?

विश्व के अधिकतर लोकतांत्रिक देशों में ऐसे सामान नागरिक संहिता लागू हैं। इनमें प्रमुखता से अमेरिका, आयरलैंड, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की , सूडान तथा मिस्र जैसे कई देश हैं जिन्होंने समान नागरिक संहिता को अपने यहां लागू किया है। ध्यान देने योग्य बात ये है कि इनमें से कई देश धर्म या पंथ निरपेक्ष भी नहीं हैं फिर भी इन्होंने समान नागरिक संहिता अपने यहां लागू कर रखी है जिससे वैयक्तिक और जायदाद सहित विभिन्न कानून जुड़े हैं।

समान नागरिक संहिता या समान आचार संहिता से तात्पर्य एक पंथनिरपेक्ष कानून से है जो सभी पंथ या धर्म  के लोगों के लिए समान रूप से लागू होता है। सरल शब्दों में समझने का प्रयास करें तो अलग-अलग पंथों के लिये अलग-अलग धर्म आधारित कानून न होना ही ‘समान नागरिक संहिता’ है। इस संहिता से किसी भी देश के समग्र स्वरूप को शक्ति मिलती है तथा देश कानून के नाम पर विभाजित नहीं दिखाई पड़ता।

भारत जैसे देश से, जो स्वभाव से ही धर्मनिरपेक्ष है, यह अपेक्षा गलत नहीं है कि यहां समान आचार संहिता लागू हो ताकि बिना किसी भेद भाव हरेक नागरिक को उसके समान कानूनी अधिकार मिल सकें। किंतु भारत में स्वतंत्रता के पहले से ही कानून को लेकर विभाजन रहा है।

दरअसल अंग्रेज मुस्लिम समुदाय के धर्म पर आधारित निजी कानूनों में बदलाव कर उनसे किसी प्रकार की शत्रुता नहीं चाहते थे। फिर कई बार समान संहिता का मुद्दा उठा पर विभिन्न राजनीतिक कारणों से दबा दिया गया। मुस्लिम तलाक और विवाह कानून को ब्रिटिश काल में ही लागू कर दिया गया था। और तबसे यह लागू ही रहा। 1993 में महिलाओं के विरुद्ध होने वाले भेदभाव को दूर करने के लिए बने कानून में पुराने कानूनों में संशोधन किया गया। परन्तु इस कानून के कारण मुसलमानों और सरकार के बीच खाई और गहरी हो गई। कुछ मुसलमानों ने इस बदलाव का विरोध किया क्योंकि वे मानते थे कि उनका हर कानून शरिया पर आधारित होना चाहिए।

समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में है। इसमें नीति-निर्देश दिया गया है कि समान नागरिक कानून लागू करना हमारा लक्ष्य होगा। सर्वोच्च न्यायालय भी कई बार समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में केन्द्र सरकार के विचार जानने की पहल कर चुका है।

स्वतंत्रता के पश्चात भी समान नागरिक संहिता लागू न की जा सकी। तुष्टीकरण की बिसात पर नए मोहरे भी लाए गए। जैसे कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 42वें संशोधन के माध्यम से ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द को प्रविष्ट किया गया। यदि इसका सकारात्मक उद्देश्य देखें तो समझ आता है कि भारतीय संविधान भारत के समस्त नागरिकों के साथ धार्मिक आधार पर किसी भी भेदभाव को समाप्त करना चाहता है, लेकिन फिर समान नागरिक संहिता के लिए क्यों नहीं प्रयास किए गए, यही यक्ष प्रश्न है और यही कारण है कि धर्मनिरपेक्षता को संविधान में जोड़ना राजनीतिक बिसात की एक चाल माना गया। संविधान द्वारा प्रदत्त भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों में ‘विधि के शासन’ की बात की गयी है, जिसके अनुसार सभी नागरिकों हेतु एक समान विधि होनी चाहिये। लेकिन स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी इसका अभाव भारत में देखा जा सकता है।

विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में समान नागरिक संहिता पर समग्र अध्ययन करने के लिए एक विधि आयोग का गठन किया गया। विधि आयोग ने कहा कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूल अधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 और 25 के बीच द्वंद्व से प्रभावित है। विधि आयोग ने यह भी कहा कि महिलाओं और बच्चों के मूल अधिकारों को तरजीह और सम्मान देना हर सरकार का दायित्व होना चाहिए।  इसलिए सभी निजी कानूनी प्रक्रियाओं को एक संहिता के अंतर्गत लाने की आवश्यकता दिखाई पड़ती है। फिर चाहे विवाह की न्यूनतम उम्र हो या तलाक का अधिकार या गोद लेने से जुड़े अधिकार या संपत्ति से जुड़े अधिकार, सामान नागरिक संहिता निश्चित तौर पर एक आशा की किरण के रूप में दिखाई पड़ती है। समान नागरिक संहिता राजनीतिक, सामजिक तथा आर्थिक, तीनों ही स्तर पर आवश्यक है ताकि किसी भी तरह के पूर्वाग्रहों तथा सामजिक बुराइयों को दूर कर भारत वैश्विक स्तर पर वास्तव में एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में जाना जा सके।

भारत जैसे देश से, जो स्वभाव से ही धर्मनिरपेक्ष है, यह अपेक्षा गलत नहीं है कि यहां समान आचार संहिता लागू हो ताकि बिना किसी भेद भाव हरेक नागरिक को उसके समान कानूनी अधिकार मिल सकें। किंतु भारत में स्वतंत्रता के पहले से ही कानून को लेकर विभाजन रहा है।

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