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गुजर गया पार्श्व गायन का स्वर्णिम दौर

गुजर गया पार्श्व गायन का स्वर्णिम दौर

by शशांक दुबे
in जुलाई -२०२२, ट्रेंडींग, फिल्म, विशेष, सामाजिक, साहित्य
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एक जमाना था जब गायकों की आवाज और लहजा अभिनेता से एकदम मेल खाता था परंतु आज के समय में ऐसा बिलकुल नहीं है। शायद यही कारण है कि आज के गानों की उम्र भी बहुत कम रह गई है। गायकों की भूमिका पार्श्वगायन से हटकर पृष्ठभूमि गायन तक ही सिमट कर रह गई है।

वर्ष 2022 भारतीय फिल्म संगीत प्रेमियों के लिए निश्चित ही निराशाजनक रहा है। फरवरी में हमने पिछली सदी की महान गायिका लता मंगेशकर को खोया और उसके थोड़े ही दिन बाद मीठे सुरीले, आधुनिक संगीत के जनक बप्पी दा को। अभी अवसाद के बादल छंटे ही नहीं थे कि हमें इस खबर को भी सच मानने पर विवश होना पड़ा कि ‘तड़प तड़प के इस दिल से आह निकलती रही’ (फिल्म: हम दिल दे चुके सनम) जैसे तूफ़ानी गीत से अपना करियर आरम्भ करने वाले होनहार गायक केके (कृष्णकुमार कुन्नथ) अब हमारे बीच नहीं रहे हैं। इस दुःखद खबर को पढ़ते वक्त हमें इस बात पर आश्चर्य होता है कि लगभग बीस वर्ष के अपने फिल्म करियर में केके ने महज दो सौ ही गीत गाए।

कितना आश्चर्य होता है यह जानकर कि जिस सुमधुर गायक के ‘यारों दोस्ती’ (फिल्म: रॉक फोर्ड), ‘कोई कहे कहता रहे कितना भी हमको दीवाना’ (फिल्म: दिल चाहता है), ‘मुझे कुछ कहना है’ (शीर्षक गीत), ‘सच कह रहा है दीवाना’ (फिल्म: रहना है तेरे दिल में), ‘डोला रे डोला’ (फिल्म: देवदास), ‘बर्दाश्त नहीं कर सकता’ (हमराज़), ‘हम दोनों जैसा है कौन यहां’ (फिल्म: मेरे यार की शादी है), ‘ओ हमदम सुनियो रे’ (फिल्म: साथियां),’तू आशिकी है’ (फिल्म: झंकार बीट्स), ‘इट्स द टाइम टू डिस्को’ (फिल्म: कल हो न हो), ‘चली आई चली आई’ (फिल्म: मैं प्रेम की दीवानी हूं), ‘चले जैसे हवाएं सनन सनन’ (मैं हूं ना), ‘दस बहाने करके ले गए दिल’ (फिल्म: दस), ‘आशाएं आशाएं’ (फिल्म: इक़बाल), ‘एक नजर में भी प्यार होता है’ (फिल्म: टैक्सी नंबर नौ दो ग्यारह), ‘क्या मुझे प्यार है’ (फिल्म: वो लम्हे), ‘लबों को लबों से’ (फिल्म: भूल भुलैया), ‘अलविदा’ और ‘ओ मेरी जान’ (दोनों ही फिल्म ‘लाइफ इन अ मेट्रो’ से), ‘मेरा पहला पहला प्यार है ये’ (फिल्म: एमपी 3: मेरा पहला पहला प्यार), ‘आंखों में तेरी अजब सी अजब सी अदाएं हैं’ (फिल्म: ॐ शांति ॐ), ‘खुद जाने के मैं फिदा हूं’ (फिल्म: बचना ऐ हसीनों), ‘ज़िंदगी दो पल की’ (फिल्म: काइट्स), ‘हमको प्यार हुआ’ (फिल्म: रैडी), ‘पिया आए ना’ (फिल्म: आशिकी 2), ‘पार्टी ऑन माय माइंड’ (फिल्म: रेस 2), ‘तूने मारी एंट्रियां’ (फिल्म: गुंडे), ‘तू जो मिल’ (फिल्म: बजरंगी भाईजान), ‘ये हौसले’ (फिल्म: 83) जैसे एक के बाद एक कई गीत सुपर हिट होते  रहे, जिसके गीतों को युवा पीढ़ी अपनी प्ले लिस्ट का अनिवार्य अंग मानती रही। इसके बावजूद उनके द्वारा गाए गीतों की संख्या महज तीन अंकों में सिमट कर रह गई। इसकी तुलना में यदि हम बीते दौर के महत्वपूर्ण गायक-गायिकाओं के करियर पर नजर डालें तो लता जी, आशा जी, रफी साहब, मुकेश, किशोर, मन्ना दा, महेंद्र कपूर जैसे गायक-गायिकाओं ने अपने करियर में हजारों गीत गाए थे।

आज हम केके ही नहीं, इस दौर के अधिकांश गायक-गायिकाओं द्वारा किए जा रहे काम का मात्रात्मक विश्लेषण करें तो यह पाएंगे कि इनमें से अधिकांश के गाए गीतों की संख्या अंगुली की पोरों पर गिने जाने जितनी ही है। दरअसल इसके पार्श्व में कई कारण हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि आज गायन ‘पार्श्व गायन’ नहीं, बल्कि ‘पृष्ठभूमि गायन’ बन गया है। पहले सिनेमा में गीत पात्रों पर फिल्माए जाते थे, इसलिए उनके लिए गीत गाने के लिए कलाकार उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं को आत्मसात करते हुए गायन किया करते थे। जैसे लता जी जब सायरा बानो के लिए गाती थीं तो उनकी ही तरह पतली, चंचल और चीखती सी आवाज़ में ‘भाई बत्तुर भाई बत्तुर’ (फिल्म: पड़ोसन) गाती थीं। यही लता जब वहीदा रहमान के लिए गाती थीं तो वहीदा की दांत पंक्तियों के पीछे छिपे उल्लास को ‘कांटों से खींच के ये आंचल’ (फिल्म: गाइड) में उसी उदात्तता से प्रस्तुत करती थीं। मीना कुमारी की आंखों और गले से झांकता दर्द ‘हम तेरे प्यार में सारा आलम’ (फिल्म: दिल एक मंदिर) में साफ-साफ झलकता था। इसी तरह मोहम्मद रफी गाते थे तो राजेन्द्र कुमार की गरिमा को ‘यादें न जाए बीते दिनों की’ (फिल्म: दिल एक मंदिर) में; महमूद की मस्ती ‘हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं’ (फिल्म: गुमनाम) में; और शम्मी कपूर की बेफिक्री ‘खुली पलक में झूठा गुस्सा बंद पलक में प्यार’ (फिल्म: प्रोफेसर) में दर्शाते थे। किशोर कुमार ने राजेश खन्ना की पलकें झपकाने और हाथ हिलाने को ध्यान में रखकर ‘दिल को देखो चेहरा न देखो’ (फिल्म: सच्चा झूठा) गीत गाया तो अमिताभ की अकड़ को पकड़ कर ‘आदमी जो कहता है, आदमी जो सुनता है’ (फिल्म: मजबूर) गुनगुनाया। मुकेश राज कपूर की आत्मा थे और उनके लिए ‘डम डम डिगा डिगा’ (फिल्म: छलिया) की मस्ती से लेकर ‘होंठों पे सच्चाई रहती है’ (फिल्म: जिस देश में गंगा बहती है) के दर्द तक में उन्हें सहजता से अभिव्यक्त कर देते थे। मुकेश मनोज कुमार के लिए भी बढ़िया गाते थे। ‘दीवानों से ये मत पूछो’ (फिल्म: उपकार) और ‘बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं’ (फिल्म: पहचान) सुनकर कोई भी कह सकता है कि ये गीत निश्चित ही अपने मुंह को हथेलियों से ढंकते हुए भारत कुमार ही गा रहे हैं। देव आनंद का मामला तो और भी दिलचस्प है। उनके लिए रफी और किशोर, दोनों ने ही शानदार पार्श्व गायन किया। इसमें जहां किशोर ने देव का गला पकड़कर ‘आसमां के नीचे हम आज अपने पीछे प्यार का जहां बसाते चले’ (फिल्म: ज्वेल थीफ) गाया तो रफी साहब ने देव की टिमटिमाती आंखों को थाम ‘तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं’ (फिल्म: गाइड) गाया।

कहना न होगा, पार्श्व गायक के लिए सबसे ज्यादा जरूरी बात उस कलाकार की हरकत, मुखाकृति और हाव भाव को समझना है, जिसके लिए वह गायन कर रहा है। संयोग से आज के इस दौर में न तो गायक और नायक परस्पर इतनी मुलाकात करते हैं और न ही एक दूसरे की विशिष्टताओं का अध्ययन। अलबत्ता, जब गायक किसी को साध लेता है तो गाना सार्थक हो जाता है। ऐसे में निर्माता भी गायक-नायक की जोड़ी दोहराने से नहीं चूकते। केके को भी ऊर्जावान इमरान हाशमी का साथ खूब मिला और इन दोनों की युति ने ‘तू ही मेरी शब है’ (फिल्म: गैंगस्टर), ‘सोनिए सोनिए’ (फिल्म: अक्सर), ‘तेरी यादों में खोया रहता हूं’ (फिल्म: द किलर), ‘दर्द में भी लब’ (फिल्म: द ट्रेन), ‘हां तू  है’ और ‘ज़रा सी दिल में जगह दे तू’(फिल्म: जन्नत), ‘दिल इबादत’ (फिल्म: तुम मिले), ‘मेरे बिना’ (फिल्म: क्रूक), ‘आय एम इन लव’ (फिल्म: वन्स अपान अ टाइम इन मुंबई), ‘तुझे सोचता हूं’ (फिल्म: जन्नत 2) जैसे कई सुपर हिट गीत दिए।

आज अधिकांश गीत नायक-नायिका पर इस तरह नहीं फिल्माए जाते कि वे किसी पार्क में या क्लब में या पार्टी में गाना गा रहे हैं। आज का सिनेमा एक्शन प्रधान है। यहां एक्शन से आशय मारधाड़ से नहीं बल्कि ‘क्रिया’ से है। नायक उदास होकर कहीं जा रहा है, नायक-नायिका साथ में मिलकर घर की चादरें दुरुस्त कर रहे हैं, नायक-नायिका आपस में झगड़ रहे हैं, इन सब के पार्श्व में गीत चल रहा है। अब पार्श्व में ही गीत बजाना है तो संगीतकार किसी एक गायक-गायिका पर निर्भर न रहते हुए हर बार किसी नए गायक-गायिका को बुलाकर गीत गवा देते हैं। गीत चलता भी है तो फिल्म के कारण नहीं, अपनी ताकत के कारण। पहले गीत हिट होता था, तो फिल्म हिट हो जाती थी। कभी फिल्म हिट हो जाती थी, तो गीत हिट हो जाते थे। आजकल दोनों में कोई अंतरसम्बंध नहीं है। फिल्म भी हिट हो सकती है, गीत भी हिट हो सकता है, दोनों हिट हो सकते हैं, दोनों पिट सकते हैं। कहने का आशय यही कि सिने-संगीत के इस ढलते उदास दौर में गीतों की सफलता-असफलता सिनेमा की सफलता-असफलता पर निर्भर नहीं है, क्योंकि आज जो गायन है, वह पार्श्व गायन नहीं पृष्ठभूमि गायन है। एक जमाना था जब पृष्ठभूमि गीत गाने वाले मन्ना डे और हेमंत कुमार जैसे गायकों को हाशिए पर रहना पड़ता था और नायक-नायिका के लिए गाने वाले चोटी पर रहते थे, जबकि आज पृष्ठभूमि के गीत गाने वाले अरिजीत सिंह चोटी पर हैं और नायक-नायिका के लिए पार्श्व गायन के विशेषज्ञ सोनू निगम और श्रेय घोषाल को सामान्य उपस्थिति से संतोष करना पड़ रहा है। सचमुच पार्श्व गायक-गायिकाओं का स्वर्णिम समय अब अतीत के पृष्ठों में सिमट कर रह गया है।

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Tags: #MohammedRafi#latamangeshkar#Indianfilmmusic #playbacksingingofsingers #

शशांक दुबे

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