‘आदर्श’ की तरह प्रस्तुत हों आदर्श

कहा जाता है कि सिनेमा समाज को दर्पण दिखाता है परंतु यदि उसे माध्यम बनाने वालों का ध्येय शुद्ध ना हो तो वे समाज को गलत इतिहास और कथावस्तु से परिचित कराने का प्रयास करते हैं। तथ्यों से अपरिचित किशोर  और युवा उसी असत्य को सत्य मानकर आचरण करने लगते हैं।

आज भारत ही क्या सम्पूर्ण विश्व में कोई भी ऐसा व्यक्ति जीवित नहीं होगा जिसने भगवान श्रीराम या श्रीकृष्ण को देखा हो। परंतु हम सभी के मन में उनकी एक प्रतिमा बनी हुई है। श्यामवर्णी राम-कृष्ण, गौरवर्णी सीता-राधा, बलाढ्य भीम-बलराम, सुकोमल परंतु वीर लक्ष्मण आदि-आदि। हमें पूजा-अर्चना करते समय भगवान गणेश विचित्र नहीं लगते, हमने भगवान दत्तात्रेय को एक देह पर तीन सिरों के साथ स्वीकार कर लिया है। परंतु ये ऐसे क्यों है, यह प्रश्न हर दशक की किशोर-युवा पीढ़ी के मन में  कभी न कभी उठता ही है क्योंकि अपने आस-पास हम ऐसे लोग नहीं देखते जिनका सिर हाथी का हो और देह मनुष्य का। कोई स्त्री हमें मां दुर्गा की तरह अष्टभुजा नहीं दिखती। हर किशोर-युवा पीढ़ी के मन में प्रश्न उठना अत्यंत स्वाभाविक है। अगर उन्हें उत्तर सही स्रोत से मिलें तो वह पीढ़ी अपनी संस्कृति और सभ्यता को समझ जाती है और उनके मन में कोई भ्रम नहीं रहता। परंतु अगर उन्हें गलत स्रोतों से जानकारी मिलती है तो यह पीढ़ी भ्रमित हो जाती है और अपने उन्नत इतिहास और संस्कृति को मिथक (जिसे आज की भाषा में मायथॉलाजी कहा जाता है) मानने लगती है।

पहले की पीढ़ियों के पास अपने इतिहास को जानने के लिए दादी-नानी की कहानियां थीं, किताबें थीं और सबसे बड़ी बात उन किताबों को पढ़ने के लिए भाषा का आवश्यक ज्ञान था। हमारा अधिकतर इतिहास लेखन संस्कृत या अन्य भारतीय प्रादेशिक भाषाओं में हुआ है। पिछली कुछ पीढ़ियों से लेकर आज की पीढ़ी तक अधिकतर न तो संस्कृत पढ़ना जानती है और न ही उन्हें भारतीय भाषाओं का ज्ञान है, ऐसे में वे वही सच मानते हैं जिसकी व्याख्या उन्होंने सुनी हो। इस परिस्थिति में व्याख्या करने वाला व्यक्ति अपने विचारों, पूर्वाग्रहों और भविष्य के वांछित परिणामों के आधार पर व्याख्या करता है और उसकी व्याख्या को सार्वभौम सत्य मान लिया जाता है क्योंकि सुनने वालों को सत्य का विवेचन करने की आवश्यकता ही नहीं लगती और लगती भी है तो वह भाषा नहीं आती। इसी कारणकई सत्यों को भ्रामक माध्यम से प्रस्तुत कर प्रचलित कर दिया गया है। जैसे तैंतीस कोटि देवी-देवताओं का अर्थ है तैंतीस प्रकार के देवी देवता, न कि तैंतीस करोड़ देवी-देवता। परंतु, चुंकि कोटि का अर्थ प्रकार भी है और करोड़ भी, इसलिए भ्रम फैलाने वालों ने भ्रम फैला दिया कि हिंदूओं में तैंतीस करोड़ देवी देवताओं को पूजा जाता है। यह भ्रम आज भी कायम है और अब इस आधार पर हिंदू आस्था का मजाक उडानेवाले चुटकुले भी बनाए जाते हैं।

पीढ़ियां जितनी आगे बढ़ती जाती हैं, इतिहास भी उतना ही लम्बा होता जाता है। भारतीय इतिहास को पौराणिक इतिहास, मध्य युगीन इतिहास, मुगल कालीन इतिहास, ब्रिटिश कालीन इतिहास और अब स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में बांटा जा सकता है। वर्तमान में इतिहास को जानने के स्रोतों में भी बहुत परिवर्तन हुआ है। आज की किशोर-युवा पीढ़ी से अगर पूछें कि वे अपने इतिहास के बारे में जानकारी कहां से प्राप्त करते हैं, तो उनका पहला उत्तर होगा गूगल से। अगर गूगल आज के युवाओं को बता रहा है कि भारतीय पौराणिक कथाएं ‘मायथलॉजी’ है तो वे यही मानेंगे अर्थात वे यह मानेंगे कि ये मिथ या काल्पनिक कथाएं हैं, सच्चाई नहीं। अत: आज के युवाओं के सामने हमारे पौराणिक इतिहास की उचित और तार्किक व्याख्या करना आवश्यक है। आजकल इतिहास को एक और माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत किया जा रहा है, और वह है धारावाहिक और फिल्में। इतिहास की किसी घटना पर आधारित, व्यक्तियों पर आधारित फिल्में और धारावाहिक बनाने का चलन आज जोरों पर है। हाल ही में अक्षय कुमार अभिनीत ‘पृथ्वीराज’ को लोगों के द्वारा बहुत सराहा गया। यहां हम किसी फिल्म की समीक्षा नहीं करेंगे परंतु कुछ मुद्दे उठाना आवश्यक है। हिंदी फिल्म जगत पिछले कुछ वर्षों में दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करने में विफल रहा क्योंकि हिंदी फिल्मों में जो दिखाया जा रहा  था वह भारतीय समाज की वास्तविकता से बहुत अलग था। इसके ठीक विपरीत दक्षिण भारतीय फिल्मों की मांग तेजी से बढ़ रही थी, उनके संवादों को हिंदी में डब करके भी दिखाया जा रहा था। बाहुबली के दोनों भागों ने तो सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उसकी पटकथा, चित्रीकरण, उसके प्रसंग और उनका चरित्र चित्रण भारतीय समाज व्यवस्था को ध्यान में रखकर गढ़ा गया था। हो सकता है कि कुछ प्रसंगों में अतिशयोक्ति लगे, परंतु दर्शकों ने उसे असंभव नहीं माना क्योंकि फिल्म की शुरूआत से ही उनका भाव-विश्व, उनका मानस वैसा ही बनाया गया था। काल्पनिक होते हुए भी बाहुबली को आज दर्शक योद्धा, वीर राजा, प्रजापालक, अन्याय से लड़नेवाला आदि के रूप में याद करते हैं। उनके मन में बाहुबली की यही प्रतिमा तैयार हुई क्योंकि निर्देशक का सम्पूर्ण लक्ष्य उसकी उसी प्रतिमा का निर्माण करना था। वह बाहुबली को ‘स्वीट लवर बॉय’ के रूप में प्रस्तुत नहीं करना चाहता था। इसके ठीक विपरीत वर्तमान में जिन तथाकथित सत्य घटनाओं के आधार पर हिंदी फिल्में या धारावाहिक बन रहे हैं, उनमें भारतीय राजाओं-महाराजाओं को केवल श्रृंगार रस में डूबे किसी प्रेमी की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है; चाहे सम्राट अशोक हो, पृथ्वीराज चौहान हो या बाजीराव पेशवा हो। दूसरी ओर अकबर को प्रजा पालक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। अलाउद्दीन खिलजी की भूमिका नकारात्मक और हिंसक तो दिखाई गई, परंतु फिल्म की पटकथा का केंद्र बिंदु बनाकर उसे हीरो के रूप में प्रस्तुत किया गया। स्पष्ट था कि फिल्म बनाने वालों का उद्देश्य भारतीय राजाओं की वीरता, साहस या उनका युद्ध कौशल दिखाना नहीं था, वरन उनकी ‘लव लाइफ’ को केंद्रित करना था। हमारे राजाओं-योद्धाओं का इस प्रकार का चरित्र-चित्रण आज की किशोर-युवा पीढ़ी को क्या सिखाएगा? जो आदर्श हम युवाओं के सामने रखना चाहते हैं क्या वह ऐसी फिल्में दे पाएंगी? क्या ऐसी फिल्मों को बनाते समय फिल्म बनाने वालों को यह नहीं सोचना चाहिए कि वे किसी वीर योद्धा को केवल प्रेमी की तरह प्रस्तुत करके न केवल उस पर अन्याय कर रहे हैं अपितु दर्शकों के सामने गलत आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं। जरा सोचिए उस समय के युद्ध जहां मैदान तक पहुंचने में ही 3-4 महीने लग जाते थे, उनकी रणनीति, युद्ध रचना, सभी शस्त्र, सब कुछ मानव नियंत्रित थे, उस समय कोई मशीन नहीं होती थी, ऐसी परिस्थितियों में 39 वर्ष की आयु में 21 लड़ाइयां लड़ने और जीतने वाले बाजीराव को प्रेम करने के लिए कितना समय मिला होगा।

कार्टून फिल्मों के माध्यम से बच्चों तक भी इसी प्रकार जानकारियां पहुंचाई जाती हैं। बाल गणेश, लिटिल कृष्णा, रामायण, महाभारत की कथाएं आदि बहुत कुछ कार्टून के माध्यम से बच्चों तक पहुंचाई जा रही हैं। इनमें से कुछ फिल्मों में वीर हनुमान का चेहरा कुछ इस प्रकार दिखाया गया है, जैसा मुसलमानों का होता है। बिना मूंछ की बढ़ी हुई दाढ़ी। ऐसे हनुमान जी की प्रतिमा बच्चों के मन में बैठ जाएगी तो उन्हें अपने आस-पास के मुसलमान हनुमान जी जैसे लगने लगेंगे।

एक कहावत है कि इतिहास हमेशा विजेताओं का ही लिखा जाता है और प्रतिमा निर्माण आदर्शों का ही होना चाहिए, परंतु दुर्भाग्य से वर्तमान भारत में आक्रांताओं का इतिहास लेखन, प्रतिमा निर्माण और महिमामंडन हो रहा है। संसार का कोई भी व्यक्ति परिपूर्ण नहीं होता। अच्छे से अच्छे व्यक्ति में कोई न कोई बुराई होती है और बुरे से बुरे व्यक्ति में कोई न कोई अच्छाई होती है। हम एक आदर्श समाज की स्थापना करना चाहते हैं, अत: हमें  आदर्श भी वैसे ही प्रस्तुत करने होंगे। प्रस्तुतीकरण करते समय उनके गुणों पर ही ध्यान केंद्रित करना होगा। तथ्यों को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करना होगा और आने वाली पीढ़ी के लिए हमारे आदर्शों को आदर्श रूप में ही प्रस्तुत करना होगा, अन्यथा समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आने वाले कुछ वर्षों में भगवान श्रीराम को पत्नी का त्याग करने वाला पति और रावण को प्रकांड पंडित सिद्ध कर देंगे।

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