गुरुपूर्णिमा पर्व के पावन अवसर पर परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवाध्वज के चरणों में शत – शत नमन व श्रद्धा सुमन समर्पित ।
आप सभी को हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं।
हे जगदंबे आदिशक्ति माता से प्रार्थना करता हूं शिवस्वरूप करुणामय गुरुदेव के प्रति मेरी अविचल निष्ठा हमेशा बनी रहे।
गुरुदेव हम सभी को अपना आशीर्वाद व प्यार प्रदान करें , यही विनती व प्रार्थना ।
परमात्मा से मिलने के लिए श्रद्धा के बोल जरूरी हैं।
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संसार को पाने के लिए तर्क की भाषा जाननी पड़ती है और परमात्मा से मिलने के लिए श्रद्धा के बोल जरूरी है।
श्रद्धा के संसार में आँखों की नहीं, हृदय की जरूरत है, वहाँ अँधा होना ही आँख वाला होना है। जो अपने अहंकार को नष्ट करने की ताकत रखते हों, वह सूरमा ही श्रद्धासिक्त है, वह साहसी वीर ही भक्त-शिरोमणि हैं।
हम आसक्तियों में, राग-द्वेष में, कामनाओं में, अहंकार में स्वयं को ढूँढने का निरर्थक प्रयास करते हैं। यह कुछ वैसा ही है, जैसे सामान घर में खोया हो और हम उसे ढूँढने का प्रयास पड़ोस के मुहल्ले में कर रहे हों
परमात्मा हमारे भीतर ही तो है उसे ढूँढने के लिए भीतर उतरने की आवश्यकता है। तर्क दिखने में बड़ी बातें करता है, पर बड़े कमजोर आधार पर खड़ा होता है। तर्क का उद्देश्य अहंकार की रक्षा करना है और इसीलिए तर्क रोज बदल जाते हैं।
श्रद्धा का पथ अहंकार को मिटाने के बाद ही प्रारम्भ होता है। इसीलिए वह शाश्वत है और उस पर चलने का साहस भी विरले ही जुटा पाते हैं। जो स्वयं को मिटाकर चलने का साहस रखे मात्र वही इस पथ पर पथिक बन पाता है।
जिस संसार से हमारा परिचय है, वह संसार तर्क, गणित की भाषा को समझता है। वहाँ निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए विवादों का पथ स्वीकार करना स्वाभाविक क्रम में सम्मिलित है।
परन्तु इस संसार से परे एक और संसार है, जहाँ तर्क की भाषा को कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। वहाँ श्रद्धा की, विश्वास की भाषा का प्रचलन है। वहाँ परिणाम को उपलब्ध होने के लिए समर्पण का पथ स्वीकार करना पड़ता है।
श्रद्धा-प्रेम की दिशा के बदल जाने का नाम है। प्रेम जब संसार की ओर बहता है, इन्द्रिय सुख में तृप्ति को ढूँढता है, आसक्तियों में उलझता है, तो वासना बन जाता है। वही प्रेम जब चेतना की ओर लौटता है, वासनाओं से परे चलता है, परमात्मा को समर्पित हो जाता है, तो श्रद्धा बन जाता है।
जय गुरुदेव