जो लोग दिल्ली से अंबाला होते हुए मनाली की तरफ जाते हैं, उन्हें इस मौसम में बाइक पर लेह जाते हुए कई bikers दिख जाएंगे. पिछले कुछ सालों में यह ट्रेंड हुआ है. कुछ लोग हिमालय के हसीन वादियों में 7-8 दिन पैदल चलने जाते हैं, जिसे लोग ट्रैक पर जाना कहता हैं. अच्छी बात है…लाइफ में “एडवेंचर” होना ही चाहिए. किन्तु एडवेंचर भी आजकल मोहताज है, लाचार है. आपके पास अच्छे बूट्स होने चाहिए, अपना टेंट होना चाहिए, पहनने के लिए बढ़िया बॉडी सूट होना चाहिए. और यदि कहीं बाइक पर जा रहे हैं तो कम से कम बुलेट होनी चाहिए.
जिसने जब कभी एडवेंचर की परिभाषा लिखी होगी उसे नहीं मालूम होगा की इंसान एडवेंचर में भी सुविधा अनुसार अपने मन माफिक परिभाषा का आविष्कार कर लेगा. अब माथे पर गोपरो न हो, याहमा का बॉडी सूट न हो तो काहे का एडवेंचर. जब सब तय है की कहाँ रुकना है कहाँ क्या होगा….तो क्या एडवेंचर? एडवेंचर का दूसरा नाम “अनिश्चितता” है। आगे क्या होगा मालूम नहीं। आजकल के इस कृत्रिम एडवेंचर का ही यह रूप हैं की आप कहाँ जायेंगे, क्या होगा, कहां रुकेंगे…सब तय है. फिर इसमें एडवेंचर क्या है? यह दोहरे मापदंड हैं…
अब ट्रैकिंग तो हरिद्वार से कांवड़ लाने वाले भी करते हैं और बाकायदा दो भारी कलश उठा सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा करते हैं. बस फर्क इतना है की उनकी वादियाँ हसीन न हो उमस और धूल से भरी होती हैं. बाइक पर भी कांवड़ लायी जाती है, पर न उनके पास “बाइकिंग गियर” है न उस कसौटी की बाइक, बस है तो वही उत्साह. या फर्क है तो नारंगी रंग में मस्ती से नाचते गाते “भोले”। दुनिया की दृष्टि में पारंपरिक पढ़ाई न किये हुए “अनपढ़”. न उनके पास वो खूबसूरत चेहरा है न संभ्रांत कही जाने वाली भाषा…..डाक कांवड़ भी किसी मैराथन से कम नहीं। यह रिले मैराथन है।
बहरहाल मेरी नजर से….इन जाबाजों को इनके जज्बे और इनकी हिम्मत के लिए
बधाई
देनी चाहिए।