कुछ मीठा हो जाए के नाम पर केवल चॉकलेट क्यों?

त्यौहारों का देश कहे जाने वाले भारतवर्ष में शायद ही कोई हिस्सा हो, जहां कोई विशेष मिठाई न बनती हो लेकिन पिछले कुछ वर्षों से हिंदुओं के त्यौहारों के अवसर पर मीठे के नाम पर चॉकलेट के विज्ञापन आते हैं। बॉयकाट बालीवुड की तर्ज पर इनके विरुद्ध कार्रवाई की जानी चाहिए। सरकार को भी इस मामले में संज्ञान लेना चाहिए।

अक्सर आपने हिंदू त्योहारों-उत्सव-पर्वों के समय विज्ञापनों में ‘कुछ मीठा हो जाए के नाम पर चॉकलेट’ (कैडबरी) का प्रचार-प्रसार होते हुए देखा होगा। लेकिन क्या आपने कभी ईद या क्रिसमस के त्यौहार के दौरान सेवैयां के बदले चॉकलेट या केक के बदले कैडबरी का विज्ञापन देखा है? नहीं न, इसे ही सिलेक्टिव या टार्गेटेड विज्ञापन कहते हैं। बड़ी-बड़ी विदेशी मल्टीनेशनल कम्पनियां सबसे पहले उस समाज की पहचान करती हैं जिसमें जागरूकता का अभाव हो और जिसे आसानी से मूर्ख बनाया जा सके। उसी के आधार पर विज्ञापनों का मायाजाल बुना जाता है। जिस देश में सैकड़ों की संख्या में मुंह मीठा करने के लिए स्वादिष्ट मिठाइयां हों, जिसे देखते ही मुंह से लार टपक पड़े उस देश में कुछ मीठा हो जाए के नाम पर चॉकलेट के विज्ञापन से प्रभावित होकर उसका सेवन करना कहां तक सही है?

विश्व प्रसिद्ध है भारतीय मिठाइयां

भारतीय मिठाइयों का दुनिया में कोई सानी नहीं है। उनके सामने सब फीके पड़ जाते है। विदेशों में केवल केक और चॉकलेट को छोड़ कर अन्य प्रकार के मिठाइयों के दर्शन भी दुर्लभ हैं। या यू कहें कि विविध प्रकार की मिठाईयां बनाने का उन्हें शऊर ही नहीं है।

बंगाल का रसगुल्ला-छेना, मथुरा का पेड़ा, गुलाब जामुन, बुरहानपुर का दराबा, बनारस का लौंगलता और तिरंगा बर्फी, महाराष्ट्र के सतारा का कंदी पेड़ा, आगरा का पेठा, लखनऊ व हैदराबाद की फिरनी, पंजाब-हरियाणा की लस्सी, गुजरात का जलेबी फाफड़ा, और इसके अलावा भारत के सभी राज्यों में बूंदी, खीर, बर्फी, घेवर, चूरमा, राबड़ी, फेणी, जलेबी, आमरस, कलाकंद, रसमलाई, नानखटाई, मावा बर्फी, पूरणपोली, मगज पाक, मोहन भोग, मोहन थाल, खजूरपाक, गोल पापड़ी, बेसन लड्डू, शक्करपारा, मक्खन बड़ा, काजू कतली, सोहन हलवा, नारियल बर्फी, सोन पापड़ी, इमरती, खाजा, मुरकी, चिक्की, श्रीखंड, मोतीचूर, गाजर का हलवा आदि ऐसे ही अनेकानेक प्रकार के मिष्ठान आसानी से उपलब्ध हैं। ये न केवल देश में लोकप्रिय हैं बल्कि विश्व प्रसिद्ध भी हैं। ‘जी ललचाए, रहा न जाए’ यह कहावत भारतीय मिठाइयों पर सटीक बैठती है।

विदेशी चॉकलेट, केक और कोल्ड्रिंक्स का होना चाहिए सामाजिक बहिष्कार

जिस तरह से ‘बायकॉट बॉलीवुड’ नाम से बॉलीवुड फिल्मों का जनता की ओर से बहिष्कार किया जा रहा है उसी तरह से विदेशी चॉकलेट, केक और कोल्ड्रिंक्स का सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए, क्योंकि विदेशी चीजें हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक एवं पारम्परिक तानेबाने को ध्वस्त कर देती हैं और साथ ही हमारे स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डालती हैं। भारतीय मिठाइयां हमारे धर्म, कर्म, संस्कृति, पर्व, परम्परा में सदियों से हिस्सा रही हैं। परंतु धीरे-धीरे स्वदेशी मिष्ठान्न विज्ञापनों के मायाजाल में नदारद होते जा रहे हैं।

चॉकलेट खाने के नुकसान

अधिक मात्रा में चॉकलेट खाने से बच्चों में मोटापा, मधुमेह, हाई ब्लडप्रेशर, अनिद्रा, सिरदर्द, माइग्रेन, चिड़चिड़ाहट, आंत्र सिंड्रोम, डायरिया और इरिटेबल बाउल सिंड्रोम, चक्कर आना, चिंता, तनाव, डिहाईड्रेशन, दांत कमजोर होना, पथरी, ह्रदय रोग आदि बीमारियां हो सकती हैं। डार्क चॉकलेट में मौजूद उच्च कैफीन, ओक्स्लेट, टाइरामाइन, सैचुरेटेड फैट व शुगर, उपरोक्त बिमारियों के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं।

भ्रमित करने के हथकंडे

बीते गर्मी के मौसम में स्वदेशी अभियान चलाया गया था जिसके माध्यम से जनता को संदेश दिया गया था कि कोल्ड्रिंक्स पीने के बजाय गन्ने का रस या नीम्बू पानी पीजिए। बताया जाता ही कि इस अभियान से घबराई विदेशी कम्पनियों ने बाजार से नीम्बू ही गायब करवा दिया। जिससे नीम्बू के भाव में अचानक से बहुत तेजी आ गई और लोगों ने नीम्बू खरीदने से परहेज किया। इसके अलावा जब भी दीपावली का त्यौहार समीप आता है, उसके पूर्व ही मीडिया में मिलावटी मावे का हो-हल्ला मचाकर बदनाम किया जाता है। कुछ दुकानों पर छापेमारी की जाती है, जिससेलोग भ्रमित हो जाएं और मिठाई खरीदने के बजाय चॉकलेट की ओर मुड़ जाएं। इस तरह के अनेकानेक हथकंडे अपनाए जाते हैं।

विज्ञापनों पर न करें विश्वास

कहा जाता है कि ‘एक झूठ को यदि 100 बार बोला जाए तो वह सच लगने लगता है।’ कुछ इसी तरह का झूठ विज्ञापनों के माध्यम से हर रोज हमें परोसा जाता है। विज्ञापनों में विज्ञान के साथ मनोविज्ञान का उपयोग होता है। जिससे वह लोगों के मन मष्तिष्क पर हावी हो जाता है। विज्ञापनों में दिखाए जाने वाले झूठे, ललचाऊ और भड़काऊ प्रचारों से लोग भ्रमित हो रहे हैं और उसकी चपेट में आ रहे हैं।

विज्ञापनों के इस खेल में व्यवसायीकरण में अपने लाभ हेतु उत्पाद निर्माता जितना लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करते हैं, उतना ही हीरो-हिरोइन और खिलाड़ी भी चंद पैसों के लिए विज्ञापन कर लोगों के साथ विश्वासघात करते हैं। सरकार को भी इस मामले को गम्भीरता से लेते हुए विज्ञापनों के मनोवैज्ञानिक अत्याचार पर तत्काल प्रभाव से प्रतिबंध लगाना चाहिए। इसके साथ ही भ्रामक विज्ञापनों पर नियंत्रण हेतु एक बोर्ड और सख्त नियम बनाएं जो इनकी सत्यता की जांच के उपरांत ही प्रसारित करने की अनुमति प्रदान करें।

बहरहाल विज्ञापन की दुनिया ने जीवन को बाजार बना दिया है। उसे सामाजिक सरोकार से कोई मतलब नहीं है। अब हमें ही सामाजिक रूप से सतर्क, सजग, सशक्त व संगठित होकर ‘बायकॉट चॉकलेट, बायकॉट कैडबरी, बायकॉट केक, बायकॉट कोल्ड्रिंक्स’ की मांग बुलंद करनी होगी और इसकी शुरुआत खुद से तथा अपने परिवार से करनी होगी।

 

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