विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एक हाल ही में एक प्रासंगिक और समीचीन निर्णय लिया है। इसके तहत उच्च शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक के 10 प्रतिशत पदों पर नियुक्ति के मानक की प्रक्रिया में परिवर्तन किया है। उच्च शिक्षण संस्थानों में एक नई श्रेणी ‘शिक्षक संकायÓ के अंतर्गत अब प्रतिष्ठित विषय विशेषज्ञों के रूप में ऐसे प्राध्यापक नियुक्त किए जाएंगे, जिनके पास प्रोफेसर बनने की पात्रता तो नहीं है, परंतु वे अपने क्षेत्र में विशेषज्ञता रखते हैं। उम्मीद की जा रही है कि उच्च शिक्षा व्यवस्था में इससे व्यापक बदलाव संभव है
महात्मा गांधी ने कहा था, ‘कोई समुदाय तभी लोकतांत्रिक हो सकता है, जब समुदाय के सबसे कमजोर व्यक्ति को सर्वोच्च नागरिक जैसे सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक अधिकार मिलें।Ó लेकिन आर्थिक उदारवादी नीतियां लागू होने के बाद देश में आवारा पूंजी का दबाव इस हद तक बढ़ा कि हम पूंजी आधारित लिप्सा और औपनिवेशिक शक्तियों और शिक्षा व्यवस्था को विकास व प्रगति का आदर्श मानक मानने लगे। परिणामस्वरूप आर्थिक विसंगति बढ़ी और असंतोष उपजा। माओवाद बनाम नक्सलवाद की जड़ें गहरी करने में इस असंतोष ने ऊर्जा का काम किया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूसीजी) ने एक क्रांतिकारी फैसला लेकर इन मानकों को परिवर्तित कर दिया है। अब उच्च शिक्षण संस्थानों में एक नई श्रेणी ‘शिक्षक संकायÓ के अंतर्गत प्रतिष्ठित विषय विशेषज्ञों के रूप में ऐसे प्राध्यापक नियुक्त किए जाएंगे, जिनके पास प्रोफेसर बनने की पात्रता तो नहीं होगी, लेकिन वे संबंधित विषय के क्षेत्र में औपचारिक पात्रता, अनुभव और प्रकाशन संबंधी अर्हताएं रखते होंगे। उनके पास विशेषज्ञता सिद्ध करने के लिए 15 वर्ष का अनुभव आवश्यक होगा।
योजना के प्रारूप के अनुसार, इन विशेषज्ञों को अनुबंध के आधार पर विज्ञान, अभियांत्रिकी, मीडिया, साहित्य, उद्यमिता, सामाजिक विज्ञान, ललित कला, लोकसेवा और सशस्त्र बल आदि क्षेत्रों में नियुक्ति दी जाएगी। इस नीति को सितंबर माह में ‘प्रोफेसर आफ प्रैक्टिसÓ (पेशेवर प्राध्यापक) रूप में अधिसूचित किया जाएगा। पीएचडी जैसी पात्रता भी अनिवार्य नहीं रह जाएगी। शिक्षण संस्थानों में स्वीकृत कुल पदों में से दस प्रतिशत पदों की नियुक्ति इस योजना के अंतर्गत की जाएगी। फिलहाल देशभर में पत्रकारिता के विवि में अनेक पेशेवर पत्रकार इसी आधार पर अध्यापन का कार्य कर रहे हैं।
माना जाता है कि ऐसा तर्क अक्सर अंहकार को जन्म देता है, जो अपरिपक्व ज्ञान पर आधारित होता है। हमारे देश में प्रमाण-पत्र और उपाधि यानी डिग्री आधारित शिक्षा यही कर रही है। भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, लेकिन शालेय शिक्षा व कुशल-अकुशल की परिभाषाओं से ज्ञान को रेखांकित किए जाने के कारण महज कागजी काम से जुड़े डिग्रीधारी को ही ज्ञान का अधिकारी मान लिया है।
समरसता व समावेश संबंधी जो भी मूल अवधारणाएं हैं, वे सभी हमारे आधुनिक और प्रगतिशील माने जाने वाले संविधान में परिभाषित हैं। उनका उल्लंघन होने पर कानूनी प्रक्रिया से गुजरने के बाद दंड का समुचित विधान है। इसके बावजूद 75 वर्षों में हम एक समान समाज की संरचना करने की बजाय विषमता और वैमनस्यपूर्ण समाज की रचना करने में लगे रहे। जबकि नागरिक समाज में हमें संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार हासिल करने की सैद्धांतिकी लगातार पढ़ाई जा रही है। आज यदि हम इस कथित नागरिक संहिता द्वारा निर्मित पीढ़ी का तटस्थ मूल्यांकन करें तो हमें यह पूरी की पूरी पीढ़ी संकीर्ण, जातीय और सांप्रदायिक संस्कारों में जकड़ी नजर आती है।
दरअसल विचार-निर्माण के लिए शैक्षिक परिसरों में लोकतांत्रिक खुलेपन की जरूरत है, जिससे शिष्य, शिक्षक से प्रश्न करने में कोई संकोच न करे। दुर्भाग्य से हमने आज्ञाकारी शिष्य को आदर्श माना हुआ है। यह आज्ञाकारिता नव-सृजनशीलता के लिए बाधक है। यही कारण है कि हम नवोन्मेष, वैज्ञानिक अनुसंधान और देशज उत्पादकता में पिछड़ते जा रहे हैं। हमारा पूरा शिक्षाजन्य ढांचा, आज्ञापालन को प्रोत्साहित व पुरस्कृत करता है। स्वंतत्र चेतना, विद्यार्थी की नूतन पहल, जिज्ञासा और प्रश्नाकुलता आदि को अक्सर फटकार दिया जाता है। विचार नियंत्रण की यह क्रूरता नव-सर्जक की भ्रूण-हत्या कर देती है। यही कारण है कि हम आजादी के इन 75 वर्षों में न तो नचिकेता, अष्टावक्र और विवेकानंद पैदा कर पाए और न ही सीवी रमन, जगदीश चंद्र बसु और रामानुजन?
दरअसल औपनिवैशिक शिक्षा पद्धति और अंग्रेजी की अनिवार्यता के चलते हमारे शिक्षा संस्थान महज डिग्रीधारी नकलचियों की फौज खड़ी करने में लगे हैं। वे रोबोट और क्लोन बनाने की दक्षता को ही श्रेष्ठता का पर्याय मानकर चल रहे हैं, क्योंकि रोबोट विरोध नहीं करते और क्लोन से विकसित प्राणी प्रकृति प्रदत्त विलक्षणता खो देते हैं, अतएव उनकी मौलिक सृजनशीलता बचपने में ही कुंठित हो जाती है। आज्ञापालकों के ये उत्पाद अंतत: सृजन से जुड़ी वैचारिकता के लिए आघातकारी सिद्ध होते हैं, केवल करियर बनाना और पैसा कमाना इनका मुख्य ध्येय रह जाता है।
नवोन्मेष को प्रोत्साहन : कुछ दिनों पहले खबर आई थी कि कर्नाटक में मंगलुरू के किसान गणपति भट्ट ने नारियल और सुपारी के पेड़ों पर चढऩे वाली बाइक बनाने में सफलता प्राप्त की है। इसी तरह द्वारिका प्रसाद चौरसिया नाम के एक युवक ने पानी पर चलने के लिए जूते बनाए हैं। उत्तर प्रदेश के इस युवक की इस खोज के पीछे की कहानी थी कि उसने सुन रखा था साधु संत साधना के बाद पानी पर चल सकते हैं। द्वारिका ने तप का आडंबर तो नहीं किया, लेकिन अपनी कल्पनाओं को पंख देकर एक ऐसा जूता बनाने की जुगाड़ में जुट गया, जो पानी पर चल सके।
डिग्री ही योग्यता की गारंटी हो, यह ज्ञान को मापने का पैमाना ही गलत है। देश में ऐसे बहुत से पीएचडी और डिलीट हैं, जो प्राथमिक-माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ा रहे हैं। सरकारी नौकरी में असफल रहे, ऐसे भी बहुत से लोग हैं, जिन्होंने कोचिंग संस्थाएं खोलकर लाखों चिकित्सक व अभियंता बना दिए। दूसरी तरफ हमारे यहां उच्च तकनीकी शिक्षा के ऐसे भी संस्थान हैं, जो बतौर लाखों रुपशे कैपिटेशन फीस, मसलन अनियमित प्रवेश शुल्क लेकर हर साल हजारों डाक्टर-इंजीनियर बनाने में लगे हैं। इनकी योग्यता को किस पैमाने से नापा जाए? मध्य प्रदेश में बड़े पैमाने पर व्यावसायिक परीक्षा मंडल का घोटाला सामने आया था। इसके माध्यम से हजारों लोग रिश्वत के बूते डाक्टर, इंजीनियर और पुलिस निरीक्षक बन गए थे। इस घोटाले में भारतीय प्रशासनिक और पुलिस सेवा के उच्च अधिकारी व उनकी संतानों पर भी मामले दर्ज हुए हैं। इनमें कई तो ऐसे हैं जो डिग्रियां लेकर सरकारी नौकरी में भी आ गए थे। रिश्वत के बूते हासिल इस योग्यता को किस कसौटी पर परखा जाए?