धर्म एक है। इसे सनातन धर्म कहते हैं। सनातन का अर्थ – सदा से है। इसे वैदिक धर्म भी कहते हैं। इसका विकास वैदिक दर्शन से हुआ है। यह सतत् विकासशील है। वैदिककाल के मानवजीवन का लक्ष्य आनंद है। सभी प्राणी आनंद के प्यासे हैं। प्रकृति आनंद से भरी पूरी है। प्रकृति की गतिविधि नियम आबद्ध है। वैदिक समाज में प्रकृति की शक्तियों के प्रति आदर भाव है। मधुप्रीति है। लेकिन जीवन जगत के रहस्यों के प्रति जिज्ञासा भी है। वैदिक काल के पूर्वज प्रश्नाकुल थे। जिज्ञासा, प्रश्न व संशय धर्म पालन में सहायक हैं। रिलीजन या पंथ मजहब धर्म नहीं हैं। वे विश्वास हैं। रिलीजन या मजहब के विश्वासों पर प्रश्न संभव नहीं है। धर्म सत्य है। सत्य धर्म है। प्रश्न और जिज्ञासा सत्य प्राप्ति के महत्वपूर्ण उपकरण हैं। धर्म पालन में विवेकपूर्ण स्वतंत्रता है। भारत में प्रत्येक व्यक्ति का निजधर्म भी है। समूह का भी धर्म है। राजधर्म है। राष्ट्रधर्म भी है। इनका सम्बंध आचार व्यवहार व आस्तिकता से है। सभी तत्वों का भी धर्म है – सबको धारण करना। धर्म मधुमयता है। वैदिक ऋषियों की सृजनशीलता का आलम्बन है मधु। वृहदारण्यक उपनिषद् (2-5-11) में कहते हैं, ‘‘धर्म सभी भूतों का मधु (सार) है। समस्त भूत धर्म के मधु हैं।‘‘ धर्म में संसार है, संसार में धर्म है। धर्म सम्पूर्ण जगत का दिव्य तत्व है। यह हिन्दुत्व है। हिन्दुत्व लोकमंगल का ध्येयसेवी है।
वैदिककाल का धर्म आनंददाता है। तब सामाजिक अंतर्विरोध नहीं थे। मनुष्य प्रकृति और प्राकृतिक नियमों की गोद में है। ऋग्वेद के रचनाकाल व महाभारत के रचनाकाल में समय का लम्बा फासला है। वैदिककाल के बाद उत्तर वैदिककाल में उपनिषद् दर्शन है। यज्ञ जैसे कर्मकांड है। उपनिषदों में कहीं कहीं कर्मकाण्ड की आलोचना भी है। रामायण में धर्मपालन कर्तव्य है। सब मर्यादा में है। ऋग्वेद में पत्नी पूरे परिवार की साम्राज्ञी है। द्रौपदी के अपमान को लेकर भीम क्रोधित थे। भीम को शांत करने के प्रयास में अर्जुन कहते हैं, ‘‘युधिष्ठिर को शत्रुओं ने जुंए के लिए बुलाया। उन्होंने क्षत्रिय व्रत के अनुसार जुंआ खेला।‘‘ ऋग्वेद के साढ़े दस हजार मन्त्रों में केवल एक सूक्त जुंए पर है। यहाँ जुंए को निंदित कर्म बताया गया है। जुंआरी रोता है ‘‘जुंआ मुझे आकर्षित करता है। यह बुरा है। पत्नी और परिजन मुझे पहचानने से इंकार करते हैं। ऋषि कवच ऐलूष का परामर्श है – जुंआ छोड़ो, कृषि करो।‘‘ ऋग्वेद अथर्ववेद में सभा और समिति विचार विमर्श के केन्द्र है। सभा सभ्यों से बनती है। सभा का अर्थ प्रकाशयुक्त है। महाभारतकाल में स का अर्थ सहित है और भा का अर्थ प्रकाश है। भारत में भी भा प्रकाशवाची है। रत सम्बद्धता है। वैदिक काल वाली सभा प्रकाश ज्ञान से युक्त है।
महाभारतकाल में धर्म के सम्बंध में वरिष्ठों में भी मत भिन्नता है। सभा में द्रोणाचार्य हैं, भीष्म हैं। धर्मराज युधिष्ठिर हैं। सब अपने ढंग से धर्म पर राय देते हैं। यह धर्म के पराभव का समय है। द्रौपदी इसे धर्म नहीं मानती। उसने कहा, ‘‘भरतवंश के नरेशों का धर्म निश्चय ही भ्रष्ट हो गया है। उनका सदाचार भी लुप्त हो गया है। राजा बताएं कि क्या मैं धर्म के अनुसार जीती गई हूँ या नहीं?‘‘ भीष्म कहते हैं, ‘‘धर्म का स्वरुप अति सूक्ष्म है। इसलिए मैं तुम्हारे प्रश्न का विवेचन नहीं कर सकता।‘‘ धर्मराज युधिष्ठिर यक्ष प्रश्नों के उत्तर में धर्मतत्व को गुहा में अवस्थित बताते हैं। यही स्थिति भीष्म की भी है। भीष्म कहते हैं, ‘‘धर्मराज युधिष्ठिर धन सम्पदा से भरी पूरी पृथ्वी त्याग सकते हैं लेकिन धर्म नहीं छोड़ सकते।‘‘ महाभारत में धर्मतत्व की प्रतिष्ठा कम है। द्रौपदी सभा में सबको धिक्कारतीं हैं। श्रीकृष्ण से कहती हैं, ‘‘मुझे कुरु सभा में घसीटा गया। अल्पबल पति भी भार्या की रक्षा करते हैं।‘‘ यह सनातन धर्म मार्ग है। पत्नी की रक्षा सनातन धर्म है। महाभारत में इस धर्म का पराभव है। श्रीकृष्ण इस पराभव को धर्म की ग्लानि कहते हैं और धर्म संस्थापना अर्थाय अवतार लेने की घोषणा करते हैं। धर्म भारत के लोगों की जीवनशैली है।
महाभारत में धर्म की बड़ी चर्चा है। तमाम संशय हैं, तर्क हैं। वनपर्व में युधिष्ठिर और द्रौपदी के मध्य भी धर्म चर्चा है। पांडवों पर संकट था। द्रौपदी ने कहा, ‘‘मैंने आपसे सुना है कि धर्म की रक्षा करने से धर्म स्वयं ही धर्म रक्षक की रक्षा करता है लेकिन वह धर्म आपकी रक्षा नहीं कर रहा है।‘‘ युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘वशिष्ठ, व्यास, मैंत्रेय, लोमश आदि ऋषि धर्म पालन से ही शुद्ध मन हुए। धर्म निष्फल होता तो जगत में अंधकार होता।‘‘ यहाँ धर्म पालन की प्राचीन परंपरा का स्मरण है। धर्म पालन से होने वाले लोकहित का भी स्मरण है। धर्म अंधविश्वास नहीं है। यह प्रत्यक्ष कर्तव्य है। यह सत्य सिद्ध है। धर्म सबको धारण करता है। विष्णु ऋग्वेद में बड़े देवता हैं। उनके कई अवतार हैं। श्रीराम श्रीकृष्ण विष्णु अवतार हैं। विष्णु के लिए भी धर्म पालन अनिवार्य है। विष्णु ने तीन पग चलकर समूचा ब्रह्माण्ड नाप लिया था। यह कार्य आश्चर्यजनक था। ऋग्वेद के अनुसार उन्होंने यह कार्य धर्म के अनुसार चलकर पूरा किया। ग्रिफ्थ ने धर्म का अनुवाद ‘लाज‘ (नियम या विधि) किया है। मित्र और वरुण ऋग्वेद में प्रतिष्ठित देवता हैं। वे सबसे नियम पालन कराते हैं। यह कार्य भी वे स्वयं धर्मानुसार ही करते हैं। सूर्य तेजस्वी हैं। प्रकृति की महाशक्ति हैं। ऋग्वेद(1-60-1) के अनुसार सूर्य भी धर्मणा हैं। वे द्युलोक और पृथ्वी को अपने धर्म आचरण द्वारा प्रकाश से भरते हैं – स्वायधर्मणे। (4-53-3) प्रजापति भी सत्यधर्मा हैं।(10-121-9) तैत्तिरीय उपनिषद् की शिक्षावल्ली में कहते हैं, ‘‘सत्यंवद धर्मंचर – सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो।‘‘ वृहदारण्यक उपनिषद् में ऋषि कहते हैं, ‘‘जिससे सूर्य उदय अस्त होता है, वह प्राण से ही उदित होता है, प्राण से ही अस्त होता है। इस धर्म को देवों ने बनाया है।‘‘ यहाँ प्रकृति व समाज के नियम धर्म है। देवों पूर्वजों द्वारा इस धर्म नियम का सृजन हुआ है। यह आदर्श है। महाभारत के बाद सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा हुई। महाभारत के समाज में भी धर्म पर विश्वास बना रहा।
धर्म पालन सबका कर्तव्य रहा है। देवता प्रकृति की शक्तियां है। भारतीय धर्म परंपरा में वे उपास्य है लेकिन वे भी धर्म पालन करते हैं। धर्म सभी कर्तव्यों का समुच्चय है। कर्तव्य पालन व लोकमंगल से जुड़े सभी कर्म धर्म हैं। धर्म की विकास यात्रा सहस्त्रों वर्ष प्राचीन है। इसका काल वाह्य भाग छूटता रहा है नया लोकमंगल भाग जुड़ता रहा है। धर्म उपास्य है। धर्म पालन में स्वतंत्रता रही है। आधुनिक काल में भी धर्म की स्वतंत्रता है। लेकिन कुछ समूह वर्ग धर्म को मजहब व रिलीजन श्रेणी में रखते है। वे धर्म को साम्प्रदायिक बताते है। धर्म में कोई जबरदस्ती नहीं है। सुख स्वस्ति की आश्वस्ति है। कुछ उत्साही धर्म को वैज्ञानिक विवेचन के दायरे में लाते है। विज्ञान की सीमा है। विज्ञान में विवेक की महत्ता नहीं है। धर्म और सत्य पर्याय है। धर्म का ध्येय लोकमंगल है। धर्म आनंददाता है। आनंदवर्द्धन यह संहिता हिन्दुत्व है।
– ह्रदय नारायण दीक्षित