प्रतिवर्ष आश्विन कृष्ण पक्ष में पितरों की प्रसन्नता अर्थात् अपने परिवार के किसी भी उम्र के दिवंगत स्त्री-पुरुषों की आत्माओं की तप्ति हेतु श्रद्धा पूर्वक किए जाने वाले भोजनादि कर्म “श्राद्ध” कहलाते हैं। कन्या राशि के सूर्य में किए जाने वाले श्राद्धकर्म महालय पार्वण श्राद्ध कहलाते हैं। इस बार 10 सितंबर से 25 तक सोलह दिन श्राद्ध रहेंगे। श्राद्धों में सभी शुभ कार्य वर्जित कहे गए हैं। श्राद्धों में तिथि का बढ़ना और नवरात्रि में तिथि का घटना अशुभ कारक है। गो, गंगा, सन्त, ब्राह्मण, देवताओं के प्रति सम्मान भाव रखने और दान-पुण्य करने से निश्चित ही विपदाओं से मुक्ति मिलती है और आत्मबल की अभिवृद्धि के साथ सर्वत्र शान्ति होती है। दिवंगत पितरों के प्रति श्राद्धादि कर उन्हें जीवन्त बनाए रखना भारत की उदात्त सभ्यता और संस्कृति का विश्व में उत्कृष्टतम निदर्शन है।
श्राद्ध का समय:-
शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध दिन के आठवें भाग कुतप काल में ही करना श्रेयस्कर होता है। जो मध्याह्न काल में आता है। विधिज्ञों को चाहिए कि किसी भी स्थिति में नोवें मुहूर्त “रौहिण” का तो उल्लंघन भूलकर भी नहीं करें। और भी कहा है जब सूर्य भगवान ढलना शुरू करें तब श्राद्ध प्रारम्भ करें। अर्थात् स्थानीय समयानुसार ठीक बारह बजे बाद सूर्य ढलान की ओर होने लगते हैं। हेमाद्रौ ५८१ …
प्रारभ्य कुतपे श्राद्धं कुर्यादारौहिणाद् बुध:।
विधिज्ञो विधिमास्थाय रौहिणं तु न लंघयेत्।।
तथा च ५७४…
स काल: कुतपो ज्ञेय: पितॄणां दत्तमक्षयम्।
और भी ५८०…
मध्याह्ने सर्वदा यस्मात् मन्दीभवति भास्कर:।
तस्मादनन्तफलद: तत्रारम्भोविशिष्यते।।
और भी कहा है कि शुक्ल पक्ष का श्राद्ध ( दैविक श्राद्ध ) निकालना हो तो कुतप ( अभिजित ) के पूर्वाह्न अर्थात् पूर्व भाग में और कृष्ण पक्ष का श्राद्ध ( पैतृक श्राद्ध )निकालना हो तो कुतप ( अभिजित )के अपराह्न अर्थात् पर भाग में पितरों के निमित्त श्राद्ध निकालना चाहिए।…
शुक्लपक्षस्य पूर्वाह्ने श्राद्धं कुर्याद्विचक्षण:।
कृष्णपक्षापराह्ने तु रौहिणन्तु न लङ्घयेत्।।
इस सन्दर्भ में स्वयं हेमाद्री की व्याख्या दृष्टव्य है…
अत्र शुक्लपक्षे पूर्वाह्नान्तर्गत कुतपपूर्वार्द्ध एव पार्वणमेकोद्दिष्टं वा श्राद्धमारम्भणीयम्।
और
कृष्णपक्षे च अपराह्नान्तर्गते कुतपोत्तरार्द्ध एव पार्वणमेकोद्दिष्टं श्राद्धमारम्भणीयम्।
अर्थात्
एतच्च वचनं दैविके कुतपस्य पूर्वार्द्धमेकोद्दिष्टे तु परार्द्धं प्राप्ते:।
शास्त्रों में इन महालय श्राद्धों के लिए कुतप काल के अपराह्न में अर्थात् उत्तरार्द्ध में श्राद्ध करना श्रेष्ठ कहा गया है। इस सन्दर्भ में कतिपय विद्वान् अपराह्न शब्द का अर्थ भिन्न करते हैं जिससे समाज के आस्थावान लोग भ्रमित हो रहे हैं।
दिवसमध्य कुतप:
पूर्वाह्ने दैविकं श्राद्धमपराह्ने तु पार्वणम्।
एकोद्दिष्टन्तु मध्याह्ने प्रातर्वृद्धि निमित्तकम्।।
दिन के पंद्रह मुहूर्तों में आठवें मुहूर्त को कुतप काल कहा जाता है। इसे अभिजित मुहूर्त के नाम से भी जाना जाता है। जिसका समय स्थानीय समय के अनुसार मध्याह्न के ठीक बारह बजे से चौबीस मिनट पहले और चौबीस मिनट बाद तक रहता है। स्थूल रूप से इन श्राद्धों में अभिजित मुहूर्त अर्थात् कुतप काल दिन के बारह बजे से एक बजे के मध्य रहेगा। अतः इसके उत्तरार्द्ध में श्राद्ध करें। अर्थात् जिस दिन एक बजे तक जो तिथि स्पर्श करती है उस दिन उस तिथि का श्राद्ध निकालना चाहिए। हर स्थिति में एक बजे पूर्व श्राद्धकर्म प्रारम्भ कर देना चाहिए।
मुहूर्त परिमित होता है सीमित होता है अतः स्वल्प समय में ही सभी कार्य सम्पादित कर लेने चाहिएं। इसी लिए श्राद्ध के लिए क्षण शब्द विहित है। वृद्ध्यादि श्राद्ध में क्षण: क्रियताम् वाक्यों का आदेश है और कुछ ग्रंथों में क्षणौ क्रियेताम् अशुद्ध वाक्यों के प्रयोग भी देखने को मिलते हैं।
इस वर्ष संवत् 2079 नल/अनल संवत्सर में श्राद्धों में अपने पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध तिथियाँ दिनांक सहित निम्नानुसार हैं-
10 सितम्बर शनिवार को
पूर्णिमा श्राद्ध
11 सितम्बर रविवार को
प्रतिपदा का श्राद्ध
11 सितम्बर रविवार को ही
द्वितीया का श्राद्ध
12 सितम्बर सोमवार को
तृतीया का श्राद्ध
13 सितम्बर मंगलवार को
चतुर्थी का श्राद्ध
14 सितम्बर बुधवार को
पञ्चमी का श्राद्ध
15 सितम्बर गुरुवार को
षष्ठी का श्राद्ध
16 सितम्बर शुक्रवार को
और
17 सितंबर शनिवार
सप्तमी का श्राद्ध
18 सितम्बर रविवार को
अष्टमी का श्राद्ध
19 सितम्बर सोमवार को
मातृनवमी
नवमी का श्राद्ध
20 सितंबर मंगलवार को
दशमी का श्राद्ध
21 सितंबर बुधवार को
एकादशी का श्राद्ध
22 सितंबर गुरुवार को
द्वादशी का श्राद्ध
23 सितंबर शुक्रवार को
त्रयोदशी का श्राद्ध
24 सितंबर शनिवार को
चतुर्दशी का श्राद्ध
25 सितंबर रविवार को
सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध
26 सितंबर सोमवार को
नाना पक्ष (मातामह) का श्राद्ध ( कोई करना चाहे तो )
पितरों के पूजन से आयु पुत्र यश स्वर्ग कीर्ति पुष्टि आदि की प्राप्ति होती है।…
आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृ पूजनात्।।
अपने दिवंगत दिव्य महापुरुषों की आत्माओं की तृप्ति के लिए श्राद्ध ( पितरों के लिए श्रद्धा से किया जाने वाला कर्म ) अवश्य करना चाहिए। वैसे वर्ष पर्यन्त ९६ श्राद्धों का विधान है। मुख्य रूप से 12 प्रकार हैं। जिनमें आश्विन कृष्ण पक्ष ( पितृ पक्ष ) में आने वाले श्राद पार्वण महालय श्राद्ध कहलाते हैं। जिन्हें कनागत भी कहते हैं।…
सूर्ये कन्याङ्गते श्राद्धं…
इनमें अपने दिवंगत पितरों की मृत्यु या अन्तेष्टि तिथि के दिन श्राद्ध करने का विशेष महत्व है।…
या तिथिर्यस्य मासस्य मृता हेतु प्रवर्त्तते।
पार्वणेनेह विधिना श्राद्धं तत्र विधीयते।।
कोई समर्थ हो तो महर्षि मनु प्रतिदिन करने को कहते हैं।…
अश्वयुक्कृष्णपक्षे तु श्राद्धं देयं दिने दिने।
और इतना नहीं कर सकें तो सभी पितरों की तृप्ति के लिए एक दिन पार्वण अवश्य करें।…
यो वै श्राद्धं नर: कुर्यादेकस्मिन्नपि वासरे।
तस्य सम्वत्सरं यावत् संतृप्ता: पितरो ध्रुवम्।।
सरल श्राद्धकर्म विधि
विशेष- श्राद्ध की तिथि,
अपना गोत्र व अपना नाम, जिनका श्राद्ध है उनका सम्बन्ध ज्ञात रहे।
और कुछ ना हो तो श्राद्ध में “पञ्चबलि” व “ब्राह्मण भोजन” तो करना- कराना ही चाहिए। श्राद्ध करने की सरल विधि निवेदित है।
प्रथम संकल्प…
श्राद्ध के निमित्त पूर्णतः शुद्ध भोजन तैयार होने पर एक थाली में पंचबलि हेतु पाँच जगह थोड़े-थोड़े सभी प्रकार के भोज्य-पदार्थ परोसकर थाली को पाटा-चोकी पर रखें। आप आसन पर सव्य होकर पूर्वमुखी बैठें। दाहिनी हथेली पर जल, अछत ( जौ ), पुष्प, चन्दन दुर्वा रखकर पहला संकल्प बोलें।
आश्विन महालये अद्य ….अमुक तिथौ ….अमुक वासरे…. अमुक गोत्र उत्पन्नोहम् ….अमुक शर्माऽहम् /वर्माऽहम् गुप्तोऽहम्…. अमुक गोत्रस्य ( मम गोत्रस्य ) मम पितु:/ पितामहस्य/ प्रपितामहस्य/मातुः/ भ्रातुः वार्षिक महालय श्राद्धे कृतस्य पाकस्य शुद्ध्यर्थं पञ्चसूना जनित दोष परिहारार्थं च पञ्चबलिदानं करिष्ये।
ऐसा बोलकर हथेली के जलादि को थाली में छोड़ें।
उसके बाद थाली में जो पाँच जगह भोजन परोसा है। दाहिने हाथ में थोड़ा जल लेकर एक एक पर नीचे लिखे अनुसार बोलकर जल गिराये।
१. गाय के लिए बलि-
“इदम् अन्नं गोभ्यो नम:”॥
इदम् न मम।
२. कुत्ते के लिए बलि-
“इदम् अन्नं श्वभ्यां नमः”
इदम् न मम।
३. काक के लिए बलि-
इदम् वायसेभ्यो नमः।
इदम् न मम।
४. अतिथि के लिए बलि-
इदम् अन्नं देवादिभ्यो नमः।
इदम् न मम।
५. चिंटियों के लिए बलि-
इदम् अन्नं पिपीलिकादिभ्यो नमः।
इदम् न मम।
दूसरा संकल्प…
पञ्चबलि निकालने के बाद एक थाली में रसोई परोसकर अपसव्य हो दक्षिणमुखी बैठ पुनः सङ्कल्प करें-
आश्विन महालये अद्य …अमुक तिथौ… अमुक वासरे… अमुक गोत्रोत्पन्नोहम्… अमुक शर्माऽहम्/ वर्माऽहम्/ गुप्तोऽहम्… अमुकगोत्रस्य मम गोत्रस्य मम पितु: /पितामहस्य / मातु:/ भ्रातुः) वार्षिक महालय श्राद्धे अक्षय तृप्ति अर्थं इदम् अन्नं ( पुरुष हो तो )तस्मै स्वधा ( स्त्री हो तो )तस्यै स्वधा।
अद्य यथा संख्यकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये।
उपर्युक्त सङ्कल्प करने के बाद थाली में रखे अन्न, जल, घी और भोजन को दाहिने हाथ के अँगूठे से स्पर्श कर बोलें…
“ॐ इदम् अन्नम्”
“ॐ इमा आप:”
“ॐ इदमाज्यम्”
“ॐ इदं हवि:”
पञ्च बलि जो पहले निकाली गई हैं उसमें से कौओं के निमित्त निकाला गया अन्न कौवों को, कुत्ते का कुत्ते को देवें। अतिथि, चिटियों और गाय का अन्न गाय को गोग्रास के रूप श्रद्धा पूर्वक खिलावें। गोग्रास देने के बाद जहाँ तक हो सके प्रशस्त एक या यथा संख्या ब्राह्मणों के पैर धोकर श्रद्धा पूर्वक भोजन कराएँ। इसके बाद उन्हें अन्न, वस्त्र और द्रव्य-दक्षिणा देकर तिलक करके नमस्कार करें।
और फिर परिवार जन भी प्रसाद पावें। श्राद्ध का विस्तार अच्छा नहीं है।
कुतप शब्द का अर्थ…
दिन का आठवां भाग कुतप कहलाता है। जो अपभ्रंश रुप में कुतुप लिखा व बोला जाने लगा है।
अह्नो मुहूर्ता विख्याता दश पञ्च च सर्वदा।
तत्राष्टमो मुहूर्तो य: स: काल: कुतप: स्मृत:।
वैसे कुतप के आठ नौ व दश प्रकार कहे हैं। यथा-
अष्टावेव यतस्तस्मात् कुतपा: इति विश्रुता:।
या
नवैते कुतपा: स्मृता:
या
कुतपा: दशधा स्मृता:
मध्याह्न में आठवां अभिजित मुहूर्त ही कुतप कहलाता है। नौवां रौहिण मुहूर्त कहलाता है।
शास्त्र कहते हैं किसी भी प्रकार के श्राद्ध में नौवें मुहूर्त रौहिण का लङ्घन नहीं करना चाहिए।
कृष्णपक्षेऽपराह्ने च रौहिणं न तु लङ्घयेत्।
मुहूर्तों में आठवां मुहूर्त जो श्राद्ध कर्म में श्रेयस्कर है।
कुतप के आठ, नौ, दश भेद हैं। यथा-
१. मध्याह्न: खड्गपात्रञ्च तथा नेपालकम्बल:।
रूप्यं दर्भास्तिला गावो दौहित्रश्चाष्टम: स्मृत:।।
२. ब्राह्मणा: कम्बलो गावो रूप्याग्न्यतिथयोऽपि च।
तिला दर्भाश्च मध्याह्नो नवैते कुतपा: स्मृता:।।
आदि शास्त्र वचन समुपलब्ध हैं।
कुतप की व्युत्पत्ति-
कु यत्र गोपतिर्गोभि: कार्त्स्नेन तपति क्षणे।
स: काल: कुतपो ज्ञेय: तत्र दत्तं महाफलम्।।
कु: पृथिवी तां गोपति: सूर्य: गोभि: स्वकीयै: करै: कार्त्स्नेन समग्रां यस्मिन् क्षणे तपति उष्णां क्योंकि स: काल: कुतपसंज्ञको ज्ञेय:।
मातृ नवमी पर विशेष चर्चा-
श्राद्धविधौ बहुग्रन्थेषु बहव: पक्षा:।
महालयश्राद्धं सांकल्पविधिना कार्यम्।
श्राद्धं त्रिदैवतं षडदैवतं नवदैवतं द्वादशदैवतं वा गृह्याग्नौ यथोक्त विधिना कार्यम्।
सधवा माता के श्राद्ध के साथ मातृपक्ष का श्राद्ध षडदैवत विधि से मातृ नवमी को करना चाहिए ऐसा शास्त्रीय आदेश है। परन्तु परम्परा में और लोकाचार में ऐसा नहीं देखा जाता है।
मातृ नवमी को अविधवा नवमी श्राद्ध भी कहा जाता है।
उसी तरह महालयों में भरणी श्राद्ध – मघा श्राद्ध, अष्टका श्राद्ध – अन्वष्टका श्राद्ध, सांकल्पिक विधि श्राद्ध – असांकल्पिक विधि श्राद्ध, गजच्छाया श्राद्ध, शस्त्रादिहते चतुर्दशी श्राद्ध, अश्रुमुखश्राद्ध – नान्दीमुखश्राद्ध और दौहित्रप्रतिपच्छ्राद्ध आदि भी कहे गये हैं।
इन पर भी शास्त्रीय चर्चा करनी चाहिए।
ये सब अविधवानवमी अर्थात् षडदैवत्य मातृनवमी की तरह करणीय हैं। इनमें से कुछेक को ही हम लोग जानते हैं पर मानते नहीं।
सादरं वन्दे!!