हैदराबाद निजाम के संबंध में तत्कालीन तीन महत्वपूर्ण राष्ट्रीय नेताओं की भूमिकाओं को समझना आवश्यक है। ये तीन नेता हैं, महात्मा गांधी, स्वातंत्र्यवीर सावरकर और डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर। गांधीजी से सैद्धांतिक मतभेद रखने वाले, कांग्रेस में कभी भी प्रवेश न करने वाले और इस्लाम का सूक्ष्म एवं मौलिक अध्ययन करने वाले बीसवीं सदी के दो हिंदू नेताओं, वीर सावरकर और डॉ. अंबेडकर का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा।
गांधीजी की निजाम विषयक भूमिका
निजाम के विषय में ही नहीं, बल्कि सभी रियासतों के अंदर चले जनांदोलनों में भी गांधीजी की भूमिका आरंभ में मात्र एक दर्शक की ही थी। दिनांक 8 जनवरी, 1925 को भावनगर में आयोजित तीसरी राजनैतिक परिषद के अध्यक्ष के नाते बोलते हुए गांधीजी ने कहा था, “हिन्दुस्तान की रियासतों से संबंधित प्रश्नों के संबंध में कांग्रेस को सामान्यत: अहस्तक्षेप की नीति अपनानी चाहिए। ब्रिटिश हिन्दुस्तान के लोग जब अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हों, तब उनका हिन्दुस्तान की रियासतों के घटनाक्रम में हस्तक्षेप करना अपनी असहायता दिखाने जैसा होगा” (द कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड 25, पब्लिकेशन्स डिवीजन, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 1967, पृ. 551)।
पर निजाम के विषय में गांधीजी की भूमिका उनकी ‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रीयत्व’ की भूमिका से उत्पन्न हुई थी। उनकी दृष्टि में निजाम पराया था ही नहीं। दिनांक 13 अक्टूबर, 1940 को ‘हरिजन’ में प्रकाशित एक लेख में गांधीजी लिखते हैं, “परकीय अनुशासनबद्ध शासन की तुलना में क्या मैं अराजकता को प्रधानता दूंगा? ऐसा आप मुझे अग्रिम पूछेंगे, तो मैं तुरंत अराजकता का चयन करूंगा, उदाहरण के लिए मांडलिक सरदारों या सीमावर्ती मुस्लिम कबीलों के समर्थन से टिकी निजामी रियासत। मेरे अनुसार वह (शासन) शत प्रतिशत देसी होगा। स्वराज्य से काफी अलग होने पर भी वह देसी शासन होगा” (कलेक्टेड वर्क्सऑफ महात्मा गांधी, खंड 73, 1978, पृ. 89)।
ब्रिटिश सरकार द्वारा पूरी सत्ता मुस्लिम जनता को या मुस्लिम लीग को सौंपने में गांधीजी को कोई आपत्ति नहीं थी। उन्होंने आश्वासन दिया था कि मुस्लिम लीग द्वारा स्थापित सरकार को कांग्रेस समर्थन ही नहीं देगी बल्कि उसमें शामिल भी होगी (पट्टाभि सीतारमैय्या, द हिस्ट्री ऑफ द कांग्रेस, खंड 2, एस. चांद एंड कंपनी, नई दिल्ली,1969, पृ. 349, 350)।
दिनांक 14-16 दिसंबर, 1938 को गांधीजी की देखरेख में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक वर्धा में हुई। इसमें कांग्रेस ने अपने संविधान की धारा पांच (क) के अनुसार जातीयता संबंधी प्रस्ताव पारित किया, जिसमें जातीय संस्था को वर्णित करते हुए कहा गया कि जिस संस्था के आंदोलन राष्ट्रीय और कांग्रेस से विसंगत हों, उसे जातीय माना जाए। इस आधार पर हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग को जातीय बताया गया। उसी समय मौलाना आजाद तथा हैदराबाद राज्य के दीवान सर अकबर हैदरी के मध्य हैदराबाद प्रश्न पर विमर्श चल रहा था। तय हुआ कि उसके निर्णय तक हैदराबाद स्टेट कांग्रेस द्वारा सत्याग्रह स्थगित रखा जाए। गाँधी जी ने 22 दिसंबर, 1938 को परामर्श दिया कि यदि स्टेट कांग्रेस का आंदोलन आर्यन डिफेंस लीग, हिंदू नागरिक संघ आदि ‘जातीय’ संस्थाओं के आंदोलन के साथ मिल जाने की थोड़ी भी संभावना हो, तो यह आंदोलन रोका जाए (केसरी, 23 दिसंबर,1938)।
दिनांक 26 दिसंबर, 1938 को हैदराबाद के दीवान सर अकबर हैदरी को लिखे पत्र में गांधीजी कहते हैं, “हैदराबाद के घटनाक्रम पर आपको परेशान करना मैंने जानबूझ कर टाला है। पर मुझे लगा कि हैदराबाद स्टेट कांग्रेस के निर्णय में मेरी महत्वपूर्ण भूमिका होने के कारण आपको लिखा जाए। आशा है कि इस स्थिति के पीछे की समझदारी आप समझेंगे और उनकी कृति की उदार प्रतिक्रिया देंगे” (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी, खंड 68, 1977, पृ. 248)।
स्टेट कांग्रेस के सत्रहवें सर्वाधिकारी काशीनाथराव वैद्य को निजाम के विरुद्ध सत्याग्रह करने के कारण दिनांक 23 दिसंबर, 1938 को बंदी बनाया गया। बंदी होने से पूर्व अपने भाषण में स्टेट कांग्रेस द्वारा सत्याग्रह बंदी की उन्होंने घोषणा की। नवंबर 1938 में वर्धा में स्टेट कांग्रेस और कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में विचार-विनिमय चल रहा था। उसका झुकाव हैदराबाद राज्य के अधिकारियों से साठ-गांठ करने पर था। राज्य से बाहर के लोग सत्याग्रह में शामिल न हों, इसका फरमान वर्धा से जारी किया गया। उसका उद्देश्य निजाम के तुष्टिकरण का था (केसरी, 27 दिसंबर,1938)।
रियासत मुस्लिम है या हिंदू, इस पर गांधीजी की नीति तय होती थी। दिनांक 25 अप्रैल, 1938 को मैसूर राज्य के कोलार जिले के विदुराश्वथ गांव में जमाबंदी का आदेश तोड़ने वाले 10,000 लोगों पर गोलीबारी की गई। इसमें 32 लोग मारे जाने एवं 48 लोगों के घायल होने का अनुमान बताया गया। मैसूर के लोगों की चेतना जागृत करने के लिए गांधीजी ने समाचार पत्रों में बयान जारी किया, जिसमें लिखा था कि मैसूर सरकार को एकतंत्रीय कामकाज का त्याग कर देना चाहिए। परिस्थिति को देखने एवं समझने तथा मैसूर सरकार एवं मैसूर कांग्रेस को निकट लेन की दृष्टि से गांधीजी ने कांग्रेस कार्यकारिणी के दो सदस्यों, सरदार पटेल और आचार्य जे.बी. कृपलानी, को तुरंत मैसूर भेजा। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि गांधीजी की सभी बातें मैसूर सरकार ने तुरंत मान ली (पट्टाभि सीतारामैय्या, पृ.98)। पर वहीं ‘महामहिम निजाम साहब’ के साथ गांधीजी की भूमिका एकदम अलग थी।
हिंदुओं में फूट डालने की नीति
स्टेट कांग्रेस को शरणागत करने के पश्चात अब कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने आर्य समाज पर दबाव बनाना आरंभ किया। कांग्रेस नेताओं को लग रहा था कि आर्य समाज के संग्राम से हटते ही हिंदू महासभा अलग-थलग पड़कर कमजोर हो जाएगी। यह सब गांधीजी की सहमति के बिना चल रहा हो, यह बात गले से उतरना कठिन है। जमनालाल बजाज के दाहिने हाथ माने जाने वाले दामोदरदास मुंदडा की इसमें सक्रिय भूमिका रही। दिनांक 12 नवंबर, 1938 को सर अकबर हैदरी ने मुंबई जाकर जमनालाल बजाज से अविलंब भेंट की (केसरी, 18 नवंबर 1938)। दामोदरदास मुंदडा को स्टेट कांग्रेस की कार्यकारिणी में शामिल किया गया था। वे कांग्रेस नेतृत्व तथा हैदराबाद स्टेट कांग्रेस नेताओं के बीच सेतु थे।
स्टेट कांग्रेस के विचारों वाला और हैदराबाद राज्य के विषय को समर्पित ‘संजीवनी’ नामक साप्ताहिक पुणे से निकलता था। इसके दिनांक 6 मार्च, 1939 के अंक में दामोदरदास ने ‘वर्धा सम्मेलन’ शीर्षक से लेख में लिखा, “हम आशा कर रहे थे कि आर्य समाज का आंदोलन शीघ्र ही स्थगित होगा। स्टेट कांग्रेस द्वारा सत्याग्रह स्थगित करने के लिए जो बातें मुख्य कारण थीं, वहीं बातें आर्य समाज का सत्याग्रह स्थगित करने के लिए निर्माण हुई हैं, यह आर्य समाजी नेताओं को समझते देर नहीं लगी। कांग्रेस जैसी एकमात्र राष्ट्रीय संस्था का विरोध करने वाली और जातीय आंदोलन का समर्थन करने वाली हिंदू सभा, आर्य समाज के आंदोलन को समर्थन दे रही है और वह समर्थन आर्य समाज नकार नहीं रहा है, इससे सभी कांग्रेसियों के मन में आर्य समाज के प्रति संदेह निर्माण होना स्वाभाविक था। आर्य समाजी आंदोलन की शुद्ध धार्मिकता कायम रखने के लिए एक बार स्थगन अनिवार्य है, यह पंजाब के आर्य समाजी नेताओं को समझने में ज्यादा देर नहीं लगेगी। हमसे हुई बातचीत से वे इस बात पर त्वरित रूप से विचार करेंगे, यह आशा हम सभी को थी। आर्य समाजी आंदोलन में अपना आंदोलन सम्मिलित कर अपनी दुर्बलता छिपाने का प्रयत्न करने वाली हिंदू सभा के लिए आर्य समाज का आंदोलन बंद होते ही गाल बजाने के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं रहेगा। ऐसी परिस्थिति में कांग्रेस को पुनः राष्ट्रीय आंदोलन शुरू करने का अवसर मिलेगा, यही आशा हमारे मन में उपजी तथा भावी संग्राम की कल्पना में हम वर्धा पहुंचे।
“आर्य समाज का आंदोलन, कांग्रेस के आंदोलन के समान स्थगित होने की आशा हमने इस लेख के आरंभ ही में प्रकट की है। थोड़ी कालावधि पश्चात यह ज्ञात होता है कि इस प्रकार की जिम्मेदारी अपने सर पर लेने के लिए आवश्यक मनोबल आर्यसमाजियों में नहीं है। हिंदू सभा के साथ संबंध विच्छेद करने की हिम्मत इनमें नहीं है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि हिंदू सभा के अतिरिक्त पृथक अस्तित्व आज आर्य समाज के लिए संभव नहीं है। हमारा आंदोलन विशुद्ध रूप से धार्मिक है, ऐसी डींग हांक कर वे अब जनता की आंखों में धूल नहीं झोंक सकते। फिलहाल हैदराबाद राज्य में चालू आंदोलन ऊपर-ऊपर आकर्षक तथा लोकप्रिय भले ही हो, पर वह बृहन्महाराष्ट्र के एक समाज विशेष तक ही सीमित है। यह हैदराबादवासियों के लिए ही नहीं, बल्कि संपूर्ण महाराष्ट्र के लिए घातक सिद्ध होने वाला है। इस आंदोलन से हर एक को स्वयं को जितना संभव है, उतना निर्लिप्त बनाए रखना चाहिए, ऐसा हमारी सद्सद्विवेक बुद्धि स्पष्टत: बताती और चेताती है। अतः हम अपने विचार अपने बंधुओं के समक्ष रखना अपना पवित्र कर्त्तव्य समझते हैं।”
सेनापति बापट जैसे सात्विक व्यक्ति ने दामोदरदास के इस लेख की ‘त्रिकाल’ के 17 मार्च, 1939 के अंक में अच्छी खबर ली। बापट लिखते हैं, “मुझ जैसों की सद्सद्विवेक बुद्धि को दामोदरदास जैसों की सद्सद्विवेक बुद्धि स्पष्ट रूप से दुर्बुद्धि लगती है… सिर्फ एक पक्ष के बारे में सोचने के कारण मानवता से परे होना अवनति की पराकाष्ठा है। हिंदुओं की जिन मांगों को हिंदू सभा ने रखा है, उसमें कोई भी मांग अनुचित नहीं है। आर्य समाजियों की भी मांगे अन्यायपूर्ण नहीं हैं। दोनों पर ही अन्याय तथा दमन आज कितने वर्षों से हो रहा है, यह कोई झूठ नहीं है। ऐसा होने पर भी कांग्रेसियों ने हिमायती होकर आर्य एवं हिन्दुओं के गर्त में गिरने की प्रतीक्षा करते हुए उनका पतन कैसे हो और कब हम राष्ट्रीय आंदोलन शुरू करें, यह आसुरी मानसिकता बनाए रखी। जिन राष्ट्रवादियों में मानवता नहीं, उनका राष्ट्रीयत्व उन्हें मुबारक हो और हैदराबाद तथा सम्पूर्ण महाराष्ट्र में इन मानवताविहीन राष्ट्रवादियों की राष्ट्रघातक पक्षांधता शीघ्र ही जनता की नजरों में आये और उसका धिक्कार हो” (केसरी, 21 मार्च, 1939)।
वीर सावरकर की भूमिका
निजाम विरोधी नि:शस्त्र प्रतिकार में हिंदू महासभा अध्यक्ष के नाते स्वातंत्र्यवीर सावरकर की भूमिका दार्शनिक, परामर्शदाता और सेनापति की थी। सेनापति बापट ने जब स्वस्फूर्त सत्याग्रह की घोषणा की, तो उन्हें सर्वप्रथम समर्थन सावरकर जी ने ही दिया था। नि:शस्त्र प्रतिकार का स्वरूप तयकर उसकी योजना खींचना,आर्य समाज से समन्वय साधना, वीर यशवंतराव जोशी जैसे हैदराबाद राज्य के कार्यकर्ताओं को प्रेरणा देना और कांग्रेस के हिंदू विरोधी षड्यंत्र को विफल करने जैसे अनेक व्यवधानों को संभालने का काम सावरकर जी कर रहे थे।
सावरकर जी स्पष्ट किया कि यह संघर्ष हिंदुत्व पर अधिष्ठित क्यों हो। दिनांक 1 नवंबर, 1938 का दिन सर्वत्र ‘भागानगर दिवस’ के रूप में मनाया गया। इस निमित्त परेल (मुंबई) में परेल शिवाजी व्यायाम मंदिर में कामगारों के समक्ष शारीरिक ज्वर की अवस्था में भी उन्होंने घंटा भर भाषण दिया। सावरकर जी ने कहा, “आज जो लोग कहते हैं कि नागरिक अधिकारों पर ग्रहण लगा है और इसलिए यह संघर्ष स्टेट कांग्रेस द्वारा किया जाना चाहिए, यह प्रमाण पर आधारित नहीं है। भागानगर में मुस्लिमों के नागरिक अधिकार संरक्षित किए जाते हैं, इतना ही नहीं उन्हें दूसरों के नागरिक अधिकार कुचलने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है। भागानगर में हिन्दू जनसँख्या 85 प्रतिशत होने पर भी निजाम के शासन में उन्हें 10 प्रतिशत जगह भी नहीं मिलती और इस प्रकार से हिंदुओं की आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक पिसाई हो रही है। वस्तुस्थिति ऐसी होने से मुसलमानों का इस सत्याग्रह में कभी भी सहभाग संभव नहीं” (केसरी, 8 नवंबर, 1938)।
आर्य समाज पर जातीयता की मुहर लगाकर उसे परेशान करने और हिंदू महासभा से उसे तोड़ने के कांग्रेसी उपक्रम की सावरकर जी ने अच्छी खबर ली। दिनांक 25 दिसंबर, 1938 को सोलापुर में हुए अ.भा.आर्य परिषद के अधिवेशन में सावरकर जी ने कहा, “हिंदुओं के प्रत्येक आंदोलन पर जातीयता की मुहर लगाई जाती है, यह गलत है। संस्कृति या भाषा की संरक्षा करने में कोई जातीयता नहीं है। यह देश, उसके पत्थर और माटी के कारण हमें प्रिय नहीं है, यह देश हिंदू राष्ट्र होने से हमें प्रिय है। महर्षि दयानंद सरस्वती ने सही राष्ट्रीयता को जन्म दिया है। जातीयता शब्द से आप बिचकें नहीं। हिंदू द्वारा हिंदुत्व की, हिंदू होने के कारण संरक्षा बिल्कुल भी जातीयता नहीं। जातीयता के नाम पर दूसरी जाति पर आक्रमण करना हमेशा गलत है। इसका कोई भी समर्थन नहीं करेगा। परंतु हिंदुत्व पर होने वाले आक्रमण थामने में किसी भी प्रकार की जातीयता नहीं, अपितु यही सच्ची राष्ट्रीयता है। राष्ट्रीयता तथा जातीयता दोनों ही शब्द या दोनों ही प्रवृत्तियां अपने-अपने हिसाब से अच्छी या बुरी भी हैं। जातीयता के नाम पर दूसरे को कष्ट देना उचित नहीं, तो राष्ट्रीयता के नाम पर दूसरे का जुल्म सहना भी योग्य नहीं। उचित राष्ट्रीयता हम हमेशा रखेंगे। अल्पसंख्यकों की दशा क्या होती है, जर्मनी जाकर देखिएगा। पर हमें जर्मनी जैसा व्यवहार नहीं करना है…कोई आपको जातिवादी कहे तो भी खिन्न होने की बजाए जातीयता तथा राष्ट्रीयता में योग्य सामंजस्य बैठाकर अपने विवेक से जातियतावादी होने में ही गर्व महसूस करें” (केसरी, 30 दिसंबर, 1938)।
निजाम या जिन्ना के शासन को ‘स्वदेशी’ मानने वाले गांधीजी की भ्रामकता का सावरकर जी ने उपहासात्मक प्रतिवाद किया।उन्होंने कहा, “शब्दों के जाल में मनुष्य कैसा फंसता है, इसका उत्तम उदाहरण गांधीजी के शब्दों में मिलता है। वे कहते हैं मैं जिन्ना के राज्य में सुख से रहूंगा, क्योंकि राज उनका हो भी जाए तो भी यह हिंदी (यहां हिंदी का अर्थ भारतीय है) राज्य है। यहां पर राज किए हुए औरंगजेब आदि हिंदी थे, फिर उनके विरुद्ध शिवाजी महाराज क्यों उठ खड़े हुए? हिन्दुस्तान में रहने वाले यदि हिंदी हैं, तो यहां के सांप, बिच्छू, बाघ ये सब भी हिंदी होंगे। पर क्या हम उन्हें वैसा मानते हैं?” (समग्र सावरकर वाङ्ग्मय, संपादक शं.रा. दाते, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदुसभा, पुणे, खंड 4, पृ. 493)।
डॉ. अंबेडकर की निजाम विषयक भूमिका
निजाम विरोधी नि:शस्त्र प्रतिरोध के समय डॉ. अंबेडकरजी का कोई वक्तव्य उपलब्ध नहीं है। तथापि हिंदू और मुस्लिम रियासतों के संबंध में मुस्लिम नेताओं की भूमिका कैसे मुस्लिम हित स्वार्थ की नियत से होती है, इस पर उन्होंने भाष्य किया है। आगे चलकर यानि 1947 में निजाम के संबंध में उनका असंदिग्ध और विस्तृत कथन है।
डॉ. अंबेडकर कहते हैं कि भारतीय रियासतों में राजनीतिक सुधारों के प्रति मुस्लिम नेताओं का रुख यह दर्शाता है कि मुस्लिम राजनीति किस तरह विकृत हो गई है। वे आगे लिखते हैं, “मुसलमानों और उनके नेताओं ने कश्मीर के हिंदू राज्य मे प्रतिनिधि सरकार की स्थापना के लिए प्रचंड आंदोलन चलाया था। वे ही मुसलमान और वे ही नेता अन्य मुस्लिम रियासतों में प्रतिनिधि सरकारों की व्यवस्था लागू किए जाने के घोर विरोधी हैं। इस विचित्र रवैये का कारण बड़ा सीधा सा है। हर मामले में मुसलमानों के लिए निर्णायक प्रश्न यही है कि उसका हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। यदि प्रतिनिधि सरकार से मुसलमानों को सहायता मिली हो, तो वे उसकी मांग करेंगे और उसके लिए संघर्ष भी करेंगे। कश्मीर रियासत में शासक हिंदू हैं, किंतु प्रजाजनों में बहुसंख्यक मुसलमान हैं। मुसलमानों ने कश्मीर में प्रतिनिधि सरकार के लिए संघर्ष इसलिए किया, क्योंकि कश्मीर में प्रतिनिधि सरकार से तात्पर्य है हिंदू राज्य से मुस्लिम अवाम के लिए सत्ता का हस्तांतरण। अन्य मुस्लिम रियासतों में शासक मुसलमान, परंतु अधिसंख्य प्रजा हिंदू है। ऐसी रियासतों में प्रतिनिधि सरकार का तात्पर्य होगा मुस्लिम शासक से सत्ता का हिंदू प्रजा को हस्तांतरण। इसी कारण मुसलमान एक मामले में प्रतिनिधि सरकार की व्यवस्था का समर्थन करते हैं, जबकि दूसरे में विरोध। मुसलमानों की सोच में लोकतंत्र प्रमुखता नहीं है। उनकी सोच को प्रभावित करने वाला तत्त्व यह है कि लोकतंत्र प्रमुख नहीं है। उनकी सोच को प्रभावित करने वाला तत्त्व यह है कि लोकतंत्र, जिसका मतलब बहुमत का शासन है, हिन्दुओं के विरुद्ध संघर्ष में मुसलमानों पर क्या असर डालेगा। क्या उससे वे मजबूत होंगे या कमजोर? यदि लोकतंत्र से वे कमजोर पड़ते हैं, तो वे लोकतंत्र नहीं चाहेंगे। वे किसी मुस्लिम रियासत में हिंदू प्रजा पर मुस्लिम शासक की पकड़ कमजोर करने के बजाय अपने निकम्मे राज्य को वरीयता देंगे” (बाबासाहेब डॉ. अंबेडकरसम्पूर्ण वाङ्ग्मय खंड 15, पाकिस्तान या भारत का विभाजन, डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, 2013, पृ. 230)।
दिनांक 27 नवंबर, 1947 को देश के कानून मंत्री पद से जारी किए गए एक वक्तव्य में डॉ. बाबासाहेब अंबेडकरने अपने अनुयायियों से पाकिस्तान तथा हैदराबाद से स्थानांतरित होकर भारत में आने का खुला निमंत्रण दिया था। अपने इस वक्तव्य में बाबासाहेब कहते हैं, “हैदराबाद राज्य में भी मुस्लिम जनसंख्या बढ़ाने की दृष्टि से उनका (अनुसूचित जाति के लोगों का) जबरन मतांतरण किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त हैदराबाद में ‘इत्तेहाद-उल- मुस्लिमीन’ की ओर से अस्पृश्यों के घर जलाने की मुहिम भी चल रही है, जिससे उनके मन में दहशत पैदा हो और वे हैदराबाद में जनतांत्रिक सरकार निर्माण करने एवं हैदराबाद को भारतीय संघ राज्य में शामिल होने को बाध्य करने वाले आंदोलन में सहभागी न हों।”
‘मुस्लिम मित्र नहीं’, यह स्पष्ट करते हुए डॉ. बाबासाहेब कहते हैं, “पाकिस्तान या हैदराबाद की अनुसूचित जातियों का मुसलमान या मुस्लिम लीग पर विश्वास रखना हानिकारक होगा। मुसलमान हिंदुओं पर क्रोध करते हैं, इसलिए उन्हें मित्र समझने की आदत अनुसूचित जातियों में है। यह दृष्टिकोण गलत है। मुसलमानों को अनुसूचित जातियों का समर्थन चाहिए था, पर उन्होंने अनुसूचित जातियों को अपना समर्थन कभी भी नहीं दिया। धर्मांतरण के बारे में कहना हो, तो वह हम अनुसूचित जातियों पर अंतिम विकल्प के नाते लादा गया, यह समझना चाहिए। फिर भी जो बल या हिंसा से धर्मांतरित हुए होंगे, उनको मेरा कहना है कि उन्हें यह बिल्कुल नहीं समझना चाहिए कि उन्होंने अपनी पुरानी अवस्था खो दी है। मैं उन्हें शपथपूर्वक वचन देता हूं कि यदि उनकी वापस आने की इच्छा है, तो उन्हें उनके पुराने स्थान पर फिर से लिया जाए और धर्मांतरण से पहले उनसे जिस बंधुत्व के भाव से व्यवहार किया जाता था, वही व्यवहार उन्हें प्राप्त होगा, यह मैं देख लूंगा।”
निजाम को भारत का शत्रु घोषित करते हुए डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर कहते हैं, “हैदराबाद के अनुसूचित जाति के लोग किसी भी परिस्थिति में निजाम अथवा ‘इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन’ का साथ न दें। हिंदुओं ने हम पर कितने ही अन्याय-अत्याचार किए हों, हमारा दमन किया हो, पर इससे हम अपना दृष्टिकोण न बदलें या हम अपने (भारतीयत्व के) कर्त्तव्य से मुंह न मोड़ें। भारत की एकात्मता को नकारने के कारण निजाम सहानुभूति का पात्र नहीं। ऐसा कर वह स्वयं के हितों के विरुद्ध कार्य कर रहा है। मुझे आनंद है कि अनुसूचित जाति के किसी व्यक्ति ने भारत के शत्रु का पक्ष लेकर अपने समुदाय को कलंकित नहीं किया” (डॉ. बाबासाहेब अंबेडकरके समग्र भाषण खंड 7 मराठी, संपा. प्रदीप गायकवाड, प्रकाशिका सरिता प्रकाश गायकवाड, नागपुर, 2007, पृ. 15, 16)।
नेताओं को अंधेपन से देवत्व न देते हुए, देशकाल एवं परिस्थिति का ध्यान रखते हुए उनके विचारों और कृतित्व का विश्लेषण करने वाला समाज, परिपक्व समझा जाता है। अपने महान नेताओं के विचार परखकर कौन अपना, कौन पराया, कौन सी बात जातीय और कौन सी राष्ट्रीय, इसका निर्णय पाठकों को करना चाहिए।
क्रमशः
हैदराबाद (भागानगर) नि:शस्त्र प्रतिरोध : लेखांक 3
– डॉ. श्रीरंग गोडबोले