मिटना ही चाहिए यह कलंक

2 अक्टूबर 1985 को भले ही दहेज विरोधी कानून लागू किया गया लेकिन आज भी दहेज धड़ल्ले से जारी है, बल्कि अब ज्यादा खतरनाक रूप ले चुका है। कितने ही घरों की जीवन भर की जमापूंजी अपनी बेटी को बेहतर घर देने में समाप्त हो जाती है। साथ ही, 498 क के दुरुपयोग के मामलों की बढ़ती संख्या पर अंकुश लगाया जाना भी आवश्यक है।

दो अक्टूबर बोलते ही हमारे मन में गांधी और शास्त्री की जयंतियां घूमने लगती हैं। शायद इन महापुरुषों का प्रभाव क्षेत्र इतना व्यापक है कि बाकी सारी चीजें बौनी प्रतीत होने लगती हैं क्योंकि राष्ट्र और समाज को एक सूत्र में बांधने के लिए किए गए इनके प्रयासों ने देश की संरचना की परिधि पर बैठे आखिरी व्यक्ति के जीवन को गति देने का प्रयास किया था। लेकिन यह तारीख ऐसी बहुत सी अन्य घटनाओं का भी साक्षी रहा है, जो समाज में जागरूकता लाने की दिशा में महती भूमिका अदा कर रही हैं। दहेज विरोधी अधिनियम भी उन्हीं में से एक है। 1984 में उस दहेज विरोधी अधिनियम में संशोधन किया गया जो 1961 में लागू किया गया था। इसके अंतर्गत भविष्य में होने वाले कानूनी पचड़ों से बचने के लिए यह कानून लागू किया गया जिसमें वर-वधू द्वारा प्राप्त तोहफे की सूची तैयार करने का  प्रावधान है। यह अधिनियम 2 अक्टूबर 1985 से प्रभावी हुआ। आगे चलकर इस कानून में प्रावधान बढ़ाते हुए 2018 में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने एक नई धारा 498क बनाई, जिसके तहत अगर दहेज के मामले में किसी को पकड़ा जाता है या उसे दंडित किया जाता है तो उसे जमानत नहीं मिलेगी। मूल प्रश्न यह उठता है कि, क्या दहेज पर अंकुश लगा? कहीं कन्या पक्ष द्वारा 498क का दुरुपयोग तो नहीं हुआ? दोनों प्रश्नों के निराशाजनक उत्तर ही प्राप्त होंगे। हर पक्ष इसकी अपने हिसाब से व्याख्या करेगा। लेकिन समाधान गायब है।

आज भी ’शादी में जरूर आना’ और ’रक्षाबंधन’ जैसे फिल्में बन रही हैं, लोगों को आइना दिखाते हुए। लेकिन समाज मुंह मोड़ ले रहा है।

पिछले साल के आखिरी महीने में न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना की खंडपीठ ने एक जनहित याचिका का निपटारा करते हुए कहा कि इस मुद्दे पर मौजूदा कानून के तहत उठाए जाने वाले कदमों पर विचार करने को लेकर बातचीत शुरू की जा सकती है। अदालत की राय में अगर विधि आयोग इस मुद्दे के तमाम पहलुओं पर विचार करे तो उचित होगा। उसका कहना था कि याचिकाकर्ता इस मामले को विधि आयोग के समक्ष उठाने के लिए स्वतंत्र है। अर्थात सुप्रीम कोर्ट भी मानती है कि भारत में महिलाओं ने शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में बहुत प्रगति की है, लेकिन शादियों में दहेज की समस्या बनी हुई है। पिछले दशकों में लगातार बने नए कानूनों के बावजूद इसके रोकने में कोई कामयाबी नहीं मिली है। अब दहेज-निरोधक कानून पर पुनर्विचार की जरूरत है। देश में शिक्षा के प्रचार-प्रसार और समाज के लगातार आधुनिक होने के बावजूद दहेज प्रथा पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है। दहेज के लिए हत्या और उत्पीड़न के भी हजारों मामले सामने आते रहे हैं। लेकिन साथ ही दहेज निरोधक कानून के दुरुपयोग के मामले भी अक्सर सामने आते हैं। इससे इस कानून पर सवाल उठते रहे हैं।

भारत में शादी के मौकों पर लेन-देन यानी दहेज की प्रथा आदिकाल से चली आ रही है। पहले यह वधू पक्ष की सहमति से उपहार के तौर पर दिया जाता था। लेकिन हाल के वर्षों में यह एक सौदा और शादी की अनिवार्य शर्त बन गया है। विश्व बैंक ने पिछले साल जुलाई में एक अध्ययन में कहा था कि बीते कुछ दशकों में भारत के गांवों में दहेज प्रथा काफी हद तक स्थिर रही है। लेकिन यह प्रथा जस की तस है। विश्व बैंक की अर्थशास्त्री एस अनुकृति, निशीथ प्रकाश और सुंगोह क्वोन की टीम ने 1960 से लेकर 2008 के दौरान ग्रामीण इलाके में हुई 40 हजार शादियों के अध्ययन में पाया कि 95 फीसदी शादियों में दहेज दिया गया। बावजूद इसके कि वर्ष 1961 से ही भारत में दहेज को गैर-कानूनी घोषित किया जा चुका है। यह शोध भारत के 17 राज्यों पर आधारित था। इसमें ग्रामीण भारत पर ही ध्यान केंद्रित किया गया था जहां भारत की बहुसंख्यक आबादी रहती है। दहेज में परिवार की बचत और आय का एक बड़ा हिस्सा खर्च होता है। वर्ष 2007 में ग्रामीण भारत में कुल दहेज वार्षिक घरेलू आय का 14 फीसदी था। देश में वर्ष 2008 से लेकर अब तक समाज में काफी बदलाव आए हैं। लेकिन शोधकर्ताओं का कहना है कि दहेज के लेन-देन के तौर-तरीकों में अब तक कोई बदलाव देखने को नहीं मिला है।

अध्ययन से यह बात भी सामने आई है कि दहेज प्रथा सभी प्रमुख धर्मों में प्रचलित है। दिलचस्प बात यह है कि ईसाई और सिख समुदाय में हिंदुओं और मुसलमानों की तुलना में औसत दहेज में बढ़ोत्तरी हुई है। अध्ययन में पाया गया कि दक्षिणी राज्य केरल में 1970 के दशक से दहेज में वृद्धि दर्ज की गई है और हाल के वर्षों में भी वहां दहेज का औसत सर्वाधिक रहा है। इस मामले का एक छोटा लेकिन विकृत रूप 498क का दुरुपयोग भी है, जिसके अंतर्गत लड़की पक्ष के लोग ससुराल पक्ष को डरा-धमकाकर या कानून की खामी का फायदा उठाकर बड़ी रकम ऐंठते हैं। आवश्यक है कि इसके समाधान के लिए भी कोई ठोस अधिनियम आए। वैसे इस तरह की घटनाएं अभी कम व्यवहार में हैं, लेकिन इनका खतरनाक दुष्प्रभाव कहीं न कहीं दहेज विरोधी अधिनियम को प्रभावित करता है।

भारत में दहेज प्रथा कब से शुरू हुई, इस बारे में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन माना जाता है कि यह उत्तर वैदिक काल से ही चल रही है। अथर्ववेद के अनुसार प्रथा वैदिक काल में वहतु के रूप में इस प्रथा का प्रचलन शुरू हुआ जिसका स्वरूप मौजूदा दहेज प्रथा से एकदम अलग था। तब युवती का पिता उसे पति के घर विदा करते समय कुछ तोहफे देता था। लेकिन उसे दहेज नहीं, उपहार माना जाता था। मध्य काल में इस वहतु को स्त्री धन के नाम से पहचान मिलने लगी। इसका स्वरूप भी वहतु के ही समान था। पिता अपनी इच्छा और काबिलियत के अनुरूप धन या तोहफे देकर बेटी को विदा करता था। इसके पीछे सोच यह थी कि जो उपहार वो अपनी बेटी को दे रहा है वह किसी परेशानी में या फिर किसी बुरे समय में उसके और उसके ससुराल वालों के काम आएगा। मौजूदा दौर में दहेज व्यवस्था एक ऐसी प्रथा का रूप ग्रहण कर चुकी है जिसके तहत युवती के माता-पिता और परिवार वालों का सम्मान दहेज में दिए गए धन-दौलत पर ही निर्भर करता है। सीधे कहें तो दहेज को सामाजिक मान-प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया है। वर-पक्ष भी सरेआम अपने बेटे का सौदा करता है। प्राचीन परम्पराओं के नाम पर युवती के परिवार वालों पर दबाव डाल कर उनको प्रताड़ित किया जाता है। इस व्यवस्था ने समाज के सभी वर्गों को अपनी चपेट में ले लिया है। यानी दहेज आधुनिक समाज के माथे पर कलंक बन चुका है। हैरत की बात यह है कि पढ़े-लिखे लोग भी बेहिचक इसकी मांग करते हैं। इस कलंक को मिटाने के लिए समाज की सोच और नजरिया बदलना जरूरी है। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों को गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिल कर दहेज-विरोधी साक्षरता के प्रचार-प्रसार पर जोर देना चाहिए। इस मामले में कानून और अदालतें ज्यादा कुछ नहीं कर सकतीं। युवा पीढ़ी में जागरूकता पैदा किए बिना यह समस्या लगातार गम्भीर होती जाएगी।

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