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खत लिखने की खत्म होती परम्परा

खत लिखने की खत्म होती परम्परा

by हिंदी विवेक
in अक्टूबर-२०२२, जीवन, विशेष, सामाजिक
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चिट्ठियों से होते हुए हम ईमेल तक पहुंच गए हैं लेकिन उसे भुला नहीं पाए हैं। पिछली कितनी ही पीढ़ियों के जीवन में सांस और रक्त की तरह रही थीं चिट्ठियां। लेकिन वर्तमान पीढ़ी उसे भूल चुकी है। उन्हें धैर्य शब्द का मतलब ही नहीं मालूम, जबकि चिट्ठियां धैर्य की परीक्षा लेती हैं।

 

सीधा-साधा डाकिया जादू करे महान,

एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान।

निदा फाजली का यह दोहा उस दौर की याद दिला देता है जब चिट्ठियां लोगों की भावनाओं से जुड़ी हुईं थीं, बातचीत का जरिया सिर्फ चिट्ठियां हुआ करती थीं। याद है मां का दरवाजे पर टकटकी लगाए देखना, साइकिल पर थैला लगाए डाकिया अंकल का इंतजार, वो कत्थई थैले में सैकड़ों के ढेर में किसी अपने का अहसास। सीमा पर देश की रक्षा कर रहे जवानों के लिए जीने का जरिया। ये चिट्ठी बड़ी कमाल की चीज है। पैगाम अपनों का, एहसास अपनों का। अपनों के दिल का हाल बताने वाली चिट्ठी। वह चिट्ठी जिसे पढ़कर चेहरे पर मुस्कान आ जाये। वह चिट्ठी जो दूर बैठे अपनों का अहसास दिलाती है। वह चिट्ठी जो जरिया बनी दिलों को जोड़ने का। आज का ये दौर जब कागजों के ढेर में भी उस भावना, उस अहसास को ढूंढ़ नहीं पाता। अगर आपसे पूछा जाए कि आखिरी बार आपको चिट्ठी कब मिली थी? मामा, चाचा या बुआ, दीदी या दूर के रिश्तेदारों की आखिरी चिट्ठी कब आई थी? तो यकीनन आप कुछ देर के लिए सोच में पड़ जाएंगे! और पूछेंगे कि आज के जमाने में चिट्ठी लिखता कौन है? ये सच है कि आज मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया के जमाने में चिट्ठी लिखने और पढ़ने के लिए समय नहीं है। लेकिन चिट्ठी का वह दौर याद करते हैं तो चेहरे पर अनायास ही मुस्कान आ जाती है। क्योंकि चिट्ठी दिलों को जोड़ने से लेकर देशों को जोड़ने तक का काम कर गई। बात उस दौर की है जब प्रेम भरे अल्फाजों से लिखी जाने वाली चिट्ठियों से घर का कोना-कोना महक जाता था। हफ्तों महीनों तक नायिका अपने नायक की प्रेमी पाती को तकिये के नीचे रखकर सोती थी। एक ही चिट्ठी को बार-बार बांचती थी।

दुनिया भर में 9 अक्टूबर को डाक सेवाओं की उपयोगिता, सम्भावनाओं को देखते हुए वैश्विक डाक संघ की ओर से विश्व डाक दिवस मनाया जाता है। विश्व डाक दिवस का उद्देश्य ग्राहकों के बीच डाक विभाग के बारे में जानकारी देना है, उन्हें जागरूक करना और डाकघरों के बीच तालमेल बनाना है। गौरतलब है कि स्वीडन की राजधानी बर्न में 1874 में यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन (यूपीयू) की स्थापना समारोह मनाने के लिए विश्व डाक दिवस मनाया जाता है। 1969 में जापान के टोक्यो में हुई यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन की कांग्रेस द्वारा 9 अक्टूबर को विश्व डाक दिवस घोषित किया गया था। तब से पूरी दुनिया में प्रत्येक वर्ष लगभग 150 देश विश्व डाक दिवस मनाते हैं। इस अवसर पर विभिन्न देश नयी सेवाएं भी आरम्भ करते हैं। आज डाक की उपयोगिता केवल चिट्ठियों तक सीमित नहीं है, बल्कि आज डाक के जरिए बैंकिंग, बीमा, निवेश जैसी जरूरी सेवाएं भी आम आदमी को मिल रही हैं। भारत यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन की सदस्यता लेने वाला प्रथम एशियाई देश था। भारत में एक विभाग के रूप में इसकी स्थापना 1 अक्टूबर, 1854 को लार्ड डलहौजी के काल में हुई। भारतीय डाक सेवा पिछले 165 साल से हिंदुस्तान को दुनिया भर से जोड़े हुए है। 1 जुलाई, 1876 को भारत वैश्विक डाक संघ का सदस्य बना।

भारत में डाक सेवाओं का इतिहास बहुत पुराना है। कभी कबूतरों से, तो कभी मेघ को दूत बनाकर संदेश भेजे जाने का भारतीय डाक का इतिहास रोमांच से भरा हुआ है। प्रतिवर्ष 9 से 14 अक्टूबर के बीच डाक सप्ताह मनाया जाता है। सप्ताह के हर दिन अलग-अलग दिवस मनाये जाते हैं। भारत में 1766 में लार्ड क्लाइव ने पहली बार डाक व्यवस्था शुरू की थी। 1774 में वॉरेन हेस्टिंग्स ने कलकत्ता में प्रथम डाकघर स्थापित किया था। चिट्ठियों को पोस्ट करते समय उन पर लगाये जाने वाले स्टैम्प्स की शुरुआत 1852 में हुई थी। भारत में वर्तमान डाक पिन कोड नम्बर की शुरुआत 15 अगस्त 1972 को हुई थी। इसके बाद हर गांव और शहर में पोस्ट ऑफिस बनाए गए। बाद में पोस्ट ऑफिस में चिट्ठियों को सम्भालने के साथ-साथ लोगों के पैसों को जमा करने का काम भी किया जाने लगा। यानी अपनों की चिट्ठियों का अहसास कम हुआ तो डाक विभाग ने लोगों से जुड़ने के लिए कई सुविधाएं ग्राहकों को देना शुरू कर दी। आज भी साइकिल पर थैले में चिट्ठियां ले जाने वाला डाकिया गली-गली, सड़क-सड़क घूमता है।

वो डाकिया जिसका इंतजार कभी महीनों तक हुआ करता था, आज भी वो डाकिया उतनी ही मेहनत और ईमानदारी से अपना काम कर रहा है। लेकिन आज डाकिया को देखकर खुशी से झूमने वाले कई गुम हो गये हैं। लेटर बॉक्स से चिट्ठियां निकालने से लेकर हमारे घर तक व्यवस्थित पहुंचाने तक डाकिया कितनी मेहनत करता है, यह शायद हमने कभी नहीं देखा होगा। साइकिल पर 40 किलोमीटर का दायरा तय करना, यह पहचान है भारतीय डाकिया की। जिसे देखकर आज भी जुबां ये कहने से रुक नहीं पाती – डाकिया डाक लाया, डाकिया डाक लाया। बदलते दौर में तकनीक के विकास के कारण अब कोई ही शायद ऐसा होगा जो अपना निजी और महत्वपूर्ण संदेश डाक के माध्यम से पहुंचाना चाहेगा। इसलिए डाक के माध्यम से बधाई, शुभकामनाएं पहुंचाने व सगे-सम्बंधियों के हालचाल जानने के लिए लिखी जाने वाली व्यक्तिगत चिट्ठियों का चलन बंद हो गया है। जब मोबाइल से कुछ ही सेकेंड में अपने परिजनों का हाल पता किया जा सकता है तो भला कौन हफ्तों का इंतजार करना चाहेगा। अब डाक केवल सरकारी कागजों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाने और ले जाने का साधन बनकर सिमट गई है।

भले डाक के माध्यम से निजी पत्रों को भेजने की रुचि कम हुई हो लेकिन अब भी डाक विभाग पर काम का बोझ कम नहीं हुआ है। रोजाना डाकघरों में सरकारी व निजी संस्थाओं की भारी संख्या में डाक पहुंचती है। डाक सेवा में बड़ा बदलाव अब यह देखने को मिल रहा है कि लोगों ने साधारण डाक का सहारा लेना बंद कर दिया है। अब साधारण डाक यहां पहुंचती ही नहीं या फिर पहुंचते-पहुंचते कई महीने लगा देती है। जिसका कारण डाक विभाग के ऊपर काम का बढ़ता बोझ और कर्मचारियों की पर्याप्त संख्या नहीं होना है। अत: आज ग्राहक स्पीड पोस्ट का उपयोग अधिक करने लगे हैं। जिसके द्वारा ग्राहकों को मिलने वाली रसीद के जरिए अपनी डाक की जानकारी कभी भी डाक विभाग की वेबसाइट से ऑनलाइन मिल जाती है। नि:संदेह बदलाव सृष्टि का नियम है। नई चीजें आती हैं और पुरानी चीजें चलन से बाहर हो जाती हैं। डाक का चलन कम जरूर हुआ है लेकिन अभी भी इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है। आवश्यकता है डाक विभाग कुछ सुधारवादी कदम उठाकर अपनी व्यवस्था में फेरबदल करें। ग्राहकों द्वारा भेजी जाने वाली डाक भले वो साधारण डाक ही क्यों न हो के प्रति जवाबदेही तय हो। एक 50 पैसे के पोस्टकार्ड से लेकर स्पीड पोस्ट से प्रेषित की जाने वाली प्रत्येक डाक के पहुंचने की अधिकतम समय सीमा तय होनी चाहिए। तभी जाकर डाक के प्रति लोगों का विश्वास बहाल हो पाएगा।

 

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