मंदिरों की पूजा की रीति

सम्पूर्ण भारत में ऐसे-ऐसे दिव्य मंदिर है, जहां की विविधतापूर्ण विशेषताएं विश्व भर के लोगों को आकर्षित करते हैं। साथ ही, देश भर में मनाया जाने वाला नवरात्रि और दशहरे का त्योहार भी हर राज्य में अपनी एक अलग छटा बिखेरता है। नवरात्री का यह त्योहार खास तौर पर भक्ति और शक्ति का प्रतीक है।

पौराणिक धार्मिक मान्यतानुसार इस धरती पर आदिशक्ति मां जगदम्बा के कुल 51 शक्तिपीठ हैं। बता दें कि जिन स्थानों पर देवी सती के विभिन्न अंग कट कर गिरे थे, उन्हें शक्तिपीठ की संज्ञा दी गयी है। इन्हीं 51 शक्तिपीठों में से एक है- मां कामाख्या का मंदिर। इस मंदिर को अघोरियों और तांत्रिकों का गढ़ माना जाता है। इस मंदिर में मां अम्बे की मूर्ति, प्रतिमा या चित्र विराजमान नहीं है। यहां मात्र एक कुंड बना है जो हमेशा फूलों से ढ़का रहता है। जिससे हमेशा ही जल का बहाव होता है। ऐसी मान्यता है कि यहां देवी  सती की योनि गिरी थी। इसी वजह से भगवती यहां अपनी महामुद्रा (योनिकुंड) के रूप में विराजमान हैं।

इस माता मंदिर में मां को अर्पित की जाती है रक्तहीन बलि

बिहार के कैमूर जिले के पवरा पहाड़ी पर स्थित मां मुंडेश्वरी मंदिर की ख्याति पूरे देश में विख्यात है। अष्टकोणीय आकृति का बना यह मंदिर प्राकृतिक पत्थरों से निर्मित दुनिया के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है। मान्यता यह है कि इस मंदिर में पूजा की परम्परा 1900 सालों से चली आ रही है और आज भी यह मंदिर जीवंत रूप के लिए जाना जाता है।  इस मंदिर के बीचों-बीच पंचमुखी शिवलिंग है, जो ’महामंडलेश्वर’ के नाम से विख्यात हैं और मां मुंडेश्वरी पार्वती रूप में यहां विराजमान हैं। यह मंदिर अपने अष्टकोणीय आकृति के साथ-साथ यहां दी जानेवाली रक्तहीन बली परम्परा के लिए भी प्रसिद्ध है, जो कि अपने आप में किसे अजूबे से कम नहीं है।

मान्यता है कि जब किसी की मन्नत पूरी हो जाती है, तो वह प्रसाद के रूप में बकरे को माता की मूर्ति के सामने लाता है। तब मंदिर के पुजारी माता के चरणों से चावल उठाकर बकरे के ऊपर डालते हैं, जिसके बाद बकरा बेहोश हो जाता है। थोड़ी देर के बाद एक बार फिर बकरे के ऊपर चावल डाला जाता है, जिसके बाद वह होश में आ जाता है। तब उसे आजाद करके बलि स्वीकार कर ली जाती है। बलि देने की इस अनोखी परम्परा के जरिये यह संदेश दिया जाता है कि माता रक्त की प्यासी नहीं है और जीवों पर दया करना माता का स्वभाव है। वैसे तो मां के दर्शन करने के लिए भक्तों की तादाद सालों भर लगी रहती है, लेकिन नवरात्रि में मां के दर्शन करने लोग दूसरे राज्यों से भी आते हैं।

सात नरमुंडों के ऊपर स्थापित हैं मां काली का यह मंदिर

बिहार की राजधानी पटना के बांस घाट इलाके में स्थित है मां सिद्धेश्वरी काली मंदिर। माना जाता है कि यह मंदिर करीब तीन सौ वर्ष पुराना है। यह मंदिर अपनी तंत्र साधना के लिए प्रसिद्ध है। नवरात्रि के मौके पर दूर-दूर से तंत्र साधक और अघोरी यहां सिद्धि प्राप्ति के उद्देश्य से आते हैं। मंदिर में वैष्णव पद्धति से पूजा की जाती है।

इस शक्तिपीठ में होती है मां के नवज्योति की पूजा

हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा से 30 किलोमीटर दूर ज्वाला देवी का प्रसिद्ध मंदिर है। ज्वाला मंदिर को जोता वाली मां का मंदिर और नगरकोट भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि यहां देवी सती की जीभ गिरी थी। 51 शक्तिपीठों में से एक यह मंदिर माता के अन्य मंदिरों की तुलना में अनोखा है क्योंकि इस मंदिर में किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती है, बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं को ही शक्ति के नौ रूपों का प्रतीक (महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अंबिका और अंजीदेवी) मानकर उनकी पूजा होती है।

इस मंदिर में देवी को लगाया जाता है मछली का भोग

बिहार के प्रसिद्ध शक्तिस्थलों में सहरसा जिले के महिषी में अवस्थित श्री उग्रतारा मंदिर प्रमुख है। यह सहरसा के महिषी प्रखंड के महिषी गांव में सहरसा स्टेशन के करीब 18 किलोमीटर दूर स्थित है। इस प्राचीन मंदिर में भगवती तारा की मूर्ति बहुत पुरानी है और ऐसी मान्यता है कि महिषी में भगवती तीनों स्वरूप उग्रतारा, नील सरस्वती एवं एकजटा रूप में विद्यमान हैं। ऐसी मान्यता है कि बिना उग्रतारा के आदेश के तंत्र सिद्धि पूरी नहीं होती है। यही कारण है कि तंत्र साधना करने वाले लोग यहां अवश्य आते हैं।

मां काली के अन्य मंदिरों में जहां उनकी जिह्वा बाहर की ओर निकली हुई होती है, वहीं महिषी मंदिर में मौजूद मां उग्रतारा काली अपने शांत रूप में दिखती हैं। साथ ही, उनका चेहरा सौम्य तथा बाल घुंघराले दिखते हैं। दूसरी ओर धार्मिक ग्रंथों में इसे उग्रतारा काली देवी का मंदिर माना जाता है। बता दें कि देवी काली का एक नाम ’तारा’ भी है, जो कि शिव की छाती पर पांव रखने से पूर्व की मुद्रा मानी जाती है। पूरे उत्तर बिहार में यह मात्र एक ऐसा मंदिर है, जहां मछली का भोग लगता है। कालांतर में मंदिर का निर्माण सन 1735 में रानी पद्मावती ने कराया था।

गुजरात में रहती है गरबा की धूम

रंगों के राज्य गुजरात में दशहरा नवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। इस दौरान यहां गरबा की धूम रहती है। देवी दुर्गा की पूजा के बाद रात भर गरबा खेला जाता है। गरबा के लिए, पुरुष और महिलाएं पारम्परिक पोशाक पहनते हैं। महिलाएं लहंगा-चोली पहनती हैं, जबकि पुरुषों के परिधान को केडिया कहते हैं।

पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा और दशहरा का रंग

पश्चिम बंगाल  के जिक्र के बिना दुर्गा पूजा की जानकारी अधूरी है। दरअसल, यह त्यौहार इस पूरे राज्य को रंगोल्लास से भर देता है। इस दौरान पूरे राज्य में विभिन्न थीम आधारित पंडाल बनाये जाते हैं, जहां 5 दिनों तक गणेश, लक्ष्मी और सरस्वती सहित अन्य देवी-देवताओं के साथ देवी दुर्गा की भव्य मूर्तियों की पूजा की जाती है। पश्चिम बंगाल सहित पूरे देश के लोग इस आयोजन का लम्बे समय से बेसब्री से इंतजार करते हैं। कारण, मां दुर्गा की आराधना की ऐसी उत्सुकता और उत्साह भारत में कहीं देखने को नहीं मिलता।

छत्तीसगढ़ में की जाती है प्रकृति की पूजा

छत्तीसगढ़ में दशहरा का त्योहार प्रकृति, आध्यात्मिकता और राज्य के पीठासीन देवता को समर्पित है। इस दौरान यहां के लोग देवी दंतेश्वरी मां की पूजा करते हैं।

मैसूर में निकाली जाती है भव्य शोभायात्रा

दक्षिण भारत में मैसूर का दशहरा देश-विदेश में प्रसिद्ध है। मैसूर का दशहरा चामुंडेश्वरी देवी की आराधना और भक्ति से जुड़ा पर्व है। दस दिनों तक चलने वाले विजयादशमी उत्सव की शुरुआत चामुंडेश्वरी की विशेष पूजा अर्चना से होती है। वहीं मैसूर ‘दशहरा उत्सव’ के आखिरी दिन कई सजे हुए हाथियों की शोभायात्रा निकलती है, जिसमें नेतृत्व करने वाले विशेष हाथी की पीठ पर चामुंडेश्वरी देवी की प्रतिमा रखी जाती है।

पंजाब में लोग रखते हैं आठ दिनों का उपवास

पंजाब में लोग नवरात्रि के दौरान आठ दिनों का उपवास रखते हैं। इस बीच वे माता जगराता या जागरण आदि का आयोजन भी करते हैं। 8वें दिनअष्टमी को नौ कुंवारी कन्याओं (कंजिका के नाम से ) के लिए भंडारा करके और उन्हें उपहार देकर अपना उपवास खोलते हैं।

 

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