हिन्दी के दधीचि पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी

हिन्दी माता की सेवा में अपना जीवन सर्वस्व अर्पित कर देने वाले पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी का जन्म 28 सितम्बर, 1893 को इटावा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। बचपन से ही उनके मन में हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्थान के प्रति अत्यधिक अनुराग था। यद्यपि वे अंग्रेजी और उर्दू के भी अप्रतिम विद्वान् थे। अंग्रेजी का अध्ययन उन्होंने लन्दन में किया था; पर हिन्दी को भारत की राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक एकता के लिए आवश्यक मानकर उसे राजभाषा का स्थान प्रदान कराने के लिए वे आजीवन संघर्ष करते रहे।

वे अंग्रेजी काल में उत्तर प्रदेश में शिक्षा प्रसार अधिकारी थे। एक बार तत्कालीन प्रदेश सचिव ने उन्हें यह आदेश जारी करने को कहा कि भविष्य में हिन्दी रोमन लिपि के माध्यम से पढ़ायी जाएगी। इस पर वे उससे भिड़ गये। उन्होंने साफ कह दिया कि चाहे आप मुझे बर्खास्त कर दें; पर मैं यह आदेश नहीं दूँगा। इस पर वह अंग्रेज अधिकारी चुप हो गया। उनके इस साहसी व्यवहार से देवनागरी लिपि की हत्या होने से बच गयी।

अवकाश प्राप्ति के बाद दुर्लभ पुस्तकों के प्रकाशन हेतु उन्होंने अपनी जीवन भर की बचत 25,000 रु. लगाकर ‘हिन्दी वांगमय निधि’ की स्थापना की। वे 20 वर्ष तक हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्वती’ के सम्पादक भी रहे। वे ‘श्रीवर’ उपनाम से कविताएँ भी लिखते थे। इसके अतिरिक्त वे एक श्रेष्ठ वास्तुविद भी थे। इस बारे में भी उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं।

उनकी हिन्दी के प्रति की गयी सेवाओं के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने 1989 में उन्हें एक लाख रु. का सर्वोच्च ‘भारत-भारती’ सम्मान देने की घोषणा की। ‘हिन्दी दिवस’ 14 सितम्बर को यह पुरस्कार दिया जाने वाला था; पर उससे एक दिन पूर्व कांग्रेसी मुख्यमन्त्री नारायणदत्त तिवारी ने उर्दू को प्रदेश की द्वितीय राजभाषा घोषित कर दिया। इससे उनका मन पीड़ा से भर उठा। उन्होंने पुरस्कार लेने से मना कर दिया।

इसके बारे में मुख्यमन्त्री को पत्र लिखते हुए कहा कि मैंने आज तक कभी एक लाख रु. एक साथ नहीं देखे; इस नाते मेरे लिए इस राशि का बहुत महत्व है; पर हिन्दी के हृदय प्रदेश में मुस्लिम वोटों के लिए देश विभाजन की अपराधी उर्दू को द्वितीय राजभाषा बनाने से मैं स्वयं को बहुत अपमानित अनुभव कर रहा हूँ। इसलिए मैं यह पुरस्कार लेने में असमर्थ हूँ। उनके मन-मस्तिष्क पर इस प्रकरण से इतनी चोट पहुँची कि एक महीने बाद वे पक्षाघात से पीड़ित होकर बिस्तर पर पड़ गये।

सारे देश में उनके इस त्याग की चर्चा होने लगी। लखनऊ के सांसद और भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने यह सुनकर उन्हें ‘जनता भारत-भारती’ सम्मान देने की घोषणा की। प्रदेश की हिन्दीप्रेमी जनता के सहयोग से 1,11,111 रु. एकत्र कर 31 जनवरी, 1990 को अटल जी ने लखनऊ में उन्हें सम्मानित किया। पक्षाघात के कारण उनके पुत्र ने यह राशि स्वीकार की। अटल जी के मन में उनके प्रति बहुत श्रद्धा थी। वे कार्यक्रम के बाद हिन्दीप्रेमियों के साथ उनके घर गये और श्रीफल, मानपत्र और अंगवस्त्र उन्हें बिस्तर पर ही भेंट किया। जनता इस अनोखे समारोह से अभिभूत हो उठी।

पक्षाघात की अवस्था में ही हिन्दी के इस दधीचि का 18 अगस्त, 1990 को देहान्त हो गया।

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