यह देश का दुर्भाग्य ही है कि अंग्रेजों ने जो भ्रामक इतिहास शिक्षा के माध्यम से जन-जन में प्रसारित किया, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी उसमें सुधार का प्रयास नहीं हुआ। प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू का विचार था कि भारत के पुरातन ग्रन्थों में विद्यमान इतिहास मिथक और कोरी कल्पना है। उनकी इस सनक का लाभ उठाकर देशद्रोही वामपन्थियों ने सभी इतिहास संस्थाओं पर कब्जा कर लिया। इसी कारण आज भी देश की नयी पीढ़ी वही गलत इतिहास पढ़ रही है और श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसी विभूतियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाये जा रहे हैं।
वामपन्थियों और कांग्रेस के इस राष्ट्र विरोधी षड्यन्त्र का जिन लोगों ने बौद्धिक म॰चों पर हर जगह ठोस तर्क और तथ्यों के साथ मुकाबला किया, उनमें डा. स्वराज्य प्रकाश गुप्त का नाम प्रमुखता से लिया जाएगा।
डा. गुप्त का जन्म 22 दिसम्बर, 1931 को प्रयाग में हुआ था। छात्र जीवन में उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ। इतिहास और पुरातत्व में रुचि होने के कारण उन्होंने इसी क्षेत्र में शिक्षा पूर्ण की और अपनी प्रतिभा से अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विशिष्ट स्थान बनाया। दिल्ली में राष्ट्रीय संग्रहालय से काम प्रारम्भ कर उन्होेंने प्रयाग पुरातत्व संग्रहालय के निदेशक तक के दायित्व निभाये।
देश तथा विदेश के प्रायः सभी शीर्षस्थ इतिहासकारों का प्रेम और सान्निध्य डा. स्वराज्य प्रकाश गुप्त को मिला। आर्याें ने भारत पर आक्रमण किया और यहाँ के मूल निवासियों को वनों और दक्षिण में खदेड़ दिया, अंग्रेजों और फिर वामपन्थियों द्वारा प्रचारित इस नितान्त झूठे सिद्धान्त की उन्होंने धज्जियाँ उड़ा दीं। वे हड़प्पा सभ्यता को सिन्धु के बदले सरस्वती सभ्यता कहते थे। उनके इस सिद्धान्त को भी व्यापक मान्यता मिली।
1977 में केन्द्र में सत्ता बदलने पर उन्होंने देश के मूर्धन्य इतिहासकारों को जोड़कर ‘भारतीय पुरातत्व परिषद’ बनायी। दिल्ली में इसका भवन एवं पत्रिका ‘हिस्ट्री टुडे’ भी उनके परिश्रम की ही देन है। दक्षिण पूर्व एशिया की सरकारों ने अपने देश के पुराने मन्दिरों के जीर्णोद्धार के समय उनके स्थापत्य तथा काल निर्धारण के बारे में इस संस्था से ही परामर्श किया।
डा. गुप्त की प्रतिभा श्री रामजन्मभूमि आन्दोलन के दौरान खूब प्रकट हुई। जहाँ एक ओर वामपन्थी श्रीराम को कल्पना बता रहे थे, वहाँ कांग्रेस मन्दिर के अस्तित्व को ही नकार रही थी। ऐसे में जब हिन्दू तथा मुस्लिम पक्ष में वार्ताओं का दौर चला, तो डा0 गुप्त हिन्दू पक्ष की कमान सँभालते थे। उनके तर्कों के आगे दूसरा पक्ष भाग खड़ा होता था। छह दिसम्बर को बाबरी ध्वंस से जो अवशेष मिले, उन्होंने बड़े साहसपूर्वक उनके चित्र लिये और बाबरी राग गाने वालों को केवल देश ही नहीं, तो विदेश में भी बेनकाब किया।
डा. गुप्त इतिहास की पुस्तकों और संस्थाओं के वामपन्थीकरण के विरुद्ध स्वर उठाने वालों की अग्रिम पंक्ति में रहते थे। उन्होंने समुद्री पुरातत्व के क्षेत्र में भी काम किया और इसकी शोध पत्रिका प्रारम्भ कराई। इसी से ‘श्रीरामसेतु विवाद’ के समय ‘विश्व हिन्दू परिषद’ को प्रचुर सामग्री पहले ही उपलब्ध हो सकी।
ऐसे बौद्धिक योद्धा का तीन अक्तूबर, 2007 को देहान्त हुआ। अन्त समय तक उन्हें इतिहास के शुद्धिकरण की ही चिन्ता थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी ने ठीक ही कहा कि डा. स्वराज्य प्रकाश गुप्त इतिहास खोजते-खोजते स्वयं इतिहास बन गये।