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षड्यंत्र और राजनीति का हिस्सा धर्म परिवर्तन

षड्यंत्र और राजनीति का हिस्सा धर्म परिवर्तन

by अवधेश कुमार
in मीडिया, राजनीति, विशेष, संघ, सामाजिक
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धर्म परिवर्तन आस्था का विषय है लेकिन राजनीतिक रैलियों वाली आक्रामकता चिंता पैदा करती है

टीवी चैनलों और डिजिटल माध्यमों पर एक साथ कुछ हजार लोगों को यह कहते सुनें कि हम राम, कृष्ण, ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भगवान नहीं मानेंगे और उनकी पूजा नहीं करेंगे तो भ अंतर्मन में एक साथ गुस्सा और हैरत के भाव पैदा होंगे। 7 अक्टूबर को राजधानी दिल्ली के अंबेडकर भवन का यह दृश्य निश्चित रूप से हमारे आपके जेहन में लंबे समय तक कायम रहेगा। आयोजकों का दावा है कि 10 हजार दलितों ने हिंदू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण किया है। हमारा संविधान व्यक्ति को अपने इच्छानुसार किसी भी धर्म को त्यागने , अपनाने और उपासना करने की स्वतंत्रता देता है। इस नाते जिन लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया यह उनके व्यक्तिगत आस्था का मामला है। किंतु इसके साथ कुछ दूसरे पहलू भी जुड़े हैं।   दो चार लोग या परिवार धर्मांतरण करते हैं तो बहुत ज्यादा आश्चर्य नहीं होता। हालांकि अंदर प्रश्न उठता रहता है कि इन्होंने अपना धर्म त्याग कर अचानक जिस धर्म से इनका वास्ता नहीं रहा उसे कैसे स्वीकार लिया होगा? वर्तमान धर्म परिवर्तन में भी यह प्रश्न उठ रहा है कि एक साथ इतनी संख्या में लोगों को कैसे हिंदू धर्म अस्वीकार्य लगा और बौद्ध धर्म के प्रति उनकी आस्था घनीभूत हो गई? आयोजन में दिल्ली प्रदेश के मंत्री राजेंद्र पाल गौतम की सक्रियता ने मामले को ज्यादा विवादास्पद बना दिया है।आयोजन में दिल्ली प्रदेश के मंत्री राजेंद्र पाल गौतम गौतम की सक्रियता ने मामले को ज्यादा विवादास्पद बना दिया। हालांकि कार्यक्रम के तीसरे दिन उन्हें इस्तीफा देना पड़ा लेकिन गौतम ने पहले अपना बचाव किया और बाद में कहा कि हम किसी धर्म के विरुद्ध टिप्पणी नहीं कर सकते।

कुछ बातें यहां ध्यान रखना जरूरी है।

एक,  पंथ और उपासना पद्धति व्यक्तिगत आस्था का मामला है। किंतु क्या वाकई इस आयोजन को व्यक्तिगत आस्था का मामला मान लिया जाए।

दो, हमारे आपके विश्लेषण पर निर्भर है कि राम कृष्ण ब्रह्मा विष्णु महेश को देवता नहीं मानने और उसकी पूजा न करने की शपथ किसी धर्म धर्म और उपासना पद्धति का अपमान है या नहीं?

तीन, हिंदुओं के बड़े समूह ने इसे अपने धर्म और देवी-देवताओं का अपमान माना है।

चार,  हिंदू धर्म इतना उदार और व्यापक है कि इसके अंदर अनेक मत मतांतर रहे हैं और सब को सम्मान प्राप्त हुआ है। शिव के उपासकों ने विष्णु की आलोचना की तो विष्णु के उपासकों ने शिव की और इन दोनों ने काली और दुर्गा की आलोचना की। किसी ने इन सबका सम्मान किया और सब के बीच समन्वय स्थापित किया। इस नाते विचार करें तो हमें इनकी भावना का सम्मान करना चाहिए।

पांच,आयोजकों की भाषा इतनी हैं उदार और विनम्र नहीं है। समारोह में डॉ. अंबेडकर के पड़पोते राजरत्न अंबेडकर ने लोगों को शपथ दिलाई। शपथ के रूप में बाबा साहेब की 22 प्रतिज्ञाओं को दोहराया जिनमें हिंदू देवी- देवताओं को न मानने और उनकी पूजा करने की बात थी। उनके वक्तव्य में हिंदू धर्म और भारतीय समाज व्यवस्था को लेकर आक्रामकता भरी हुई है। इनका कहना है कि बाबा साहब अंबेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 को स्वयं बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद चंद्रपुर में सामूहिक धर्म परिवर्तन के कार्यक्रम में जो 22 शपथ दिलवाए थे वही हमने दिलवाया है तो इसमें गलत क्या है? हमारे देश में अपने किसी कदम को सही ठहराने के लिए कोई न कोई महापुरुष सामने ला रख दिया जाता है। बाबा साहब ऐसे महापुरुष हैं जिनके नाम पर कुछ भी करो का माहौल हो गया है। यहां भी कुछ तथ्य देखें।

•बाबा साहब ने 1935 में हिंदू धर्म त्यागने की घोषणा की थी। किंतु उन्होंने 20 वर्ष बाद बौद्ध धर्म स्वीकार किया।

•इसके बाद 1 साल से थोड़ा ही ज्यादा जी सके और 6 दिसंबर 1956 को उनकी मृत्यु हो गई।

•यानी वे जिंदा होते तो अपने धर्म परिवर्तन पर उनका क्या मत होता और अभियान को क्या स्वरूप देते यह कहना मुश्किल है।

•बाबा साहब एक राजनीतिक व्यक्ति थे धार्मिक महापुरुष या बौद्ध भिक्षु नहीं।

उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और अपने साथ लोगों को कराया लेकिन यह धर्म बदलने का मार्ग या आधार नहीं हो सकता। धार्मिक कार्य धर्म क्षेत्र के व्यक्तियों के विचारों और व्यवहारों के द्वारा ही हो सकता है।

• बाबा साहब ने जो प्रतिज्ञाएं दिलाई वो बौद्ध धर्म के अंग नहीं थे। मूल बौद्ध धर्म में तीन ही प्रतिज्ञाएं स्वीकार्य हैं –

बुद्धम शरणम गच्छामि। धर्मं शरणं गच्छामि। संघम शरणम गच्छामि। कोई धर्म बदलेगा तो वह यही तीन प्रतिज्ञाएं स्वीकार करेगा। अंतिम प्रतिज्ञा केवल बौद्ध भिक्षुओं के लिए है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदू से बौद्ध, जैन, सिख आदि बनने को धर्म परिवर्तन नहीं मानती है। इन पर आपत्ति भी नहीं जताती हैं। कारण, इन्हेः हिंदू धर्म के उपांग के रूप में ही देखती है। किंतु जब यह स्वाभाविक धन परिवर्तन का आयोजन नहीं लगता तो इस पर प्रश्न उठाया जाना चाहिए। ऊंच-नीच छुआछूत निश्चित रूप से हमारे समाज की कोढ है। बावजूद यह नहीं कहा जा सकता है कि डॉ आंबेडकर के समय की तरह ही जाति भेद की खाई आज भी बनी हुई है तथा सामाजिक आर्थिक रूप से दलितों की दशा बिल्कुल वैसी ही है। धर्म परिवर्तन राजधानी दिल्ली में हुआ है। यहां आसानी से पता भी नहीं चलता कि हमारे आस पास बैठा हुआ व्यक्ति किस जाति का है। किसी मंदिर में पूजा करने वाले से उसकी जाति नहीं पूछी जाती और पता लगने पर भी उसके साथ अछूत जैसा व्यवहार नहीं होता। दलितों और आदिवासियों को उनकी जनसंख्या के अनुसार संसद राज्य विधायिका स्थानीय निगाहें से लेकर नौकरियों में आरक्षण मिला है। कहने का तात्पर्य कि बहुत कुछ बदला है। अंबेडकर द्वारा धर्म बौद्ध धर्म अपनाने के पीछे बड़ा कारण यही था कि हिंदू धर्म को उन्होंने समाज व्यवस्था के साथ जोड़ा और माना कि इसमें रहते हुए दलित समानता का दर्जा नहीं पा सकते। वह प्रयोग सफल नहीं हुआ क्योंकि बौद्ध बनने के बाद भी आम समाज में वे दलित ही बने रहे। आज ऐसी स्थिति नहीं कि इतनी संख्या में दलितों को समाज व्यवस्था से तंग आकर समानता के लिए बौद्ध धर्म अपनाने की आवश्यकता पड़े। हिंदू धर्म के अंदर ही भारी संख्या में दलितों का सामाजिक उत्थान हुआ है और वह सवर्णों के साथ बराबरी और कहीं-कहीं तो उनसे बेहतर स्थिति में हैं । इस नाते यह आयोजन कई प्रकार के प्रश्न और संदेह पैदा करता है।

•पिछले कुछ समय की इससे संबंधित गतिविधियां चिंता पैदा करने वाली रही है।

•हाल के समय में हिंदू धर्म के विरुद्ध दलित आक्रामकता की जैसी आवाज निकली है उनमें समाज को जोड़ने का भाव कम और तोड़ने का ज्यादा है।

• हिंदू मुस्लिम एकता की जगह दलित मुस्लिम गठजोड़ की कोशिश संदेह पैदा करती है।

•दलित मुस्लिम गठजोड़ की आक्रामक धारा पैदा करने की कोशिश हो रही है।

•यह बाबा साहब के विचार के बिल्कुल विरुद्ध है। उन्होंने इस्लाम धर्म की जैसी तीखी आलोचना की वैसे दूसरे जगह देखने को नहीं मिलती।

•आजादी के पहले मुस्लिम लीग के साथ दलितों के गठजोड़ को इसका इसी आधार पर उन्होंने विरोध किया था तथा बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले जाने वाले दलितों की दुर्दशा पर भी वह लगातार मुखर रहे।

कहने का तात्पर्य यह बाबा साहब का नाम अवश्य लें इस समय वर्तमान दलितवाद चाहे और राजनीतिक हो, गैर राजनीतिक या  धार्मिक बाबा साहब के विचारों और व्यवहारों से इनका रिश्ता न के बराबर है । इनकी भाषा आम समाज के प्रति उग्रता और लताड़ से भरी है। समाज सुधार की भाषा ऐसी नहीं हो सकती। इसमें समाज को जोड़ने का भाव नहीं दिखता जो चिंताजनक है।

वास्तव में आक्रामक दलितवाद और मुस्लिमों के साथ गठजोड़ का मूल उद्देश्य राजनीतिक है। केंद्र से नरेंद्र मोदी और राज्यों से भाजपा सरकार को सत्ता से हटाने के लिए दलित मुस्लिम समीकरण की बात ज्यादा हो रही है। जब उद्देश्य राजनीतिक हो तो उसके पीछे धार्मिक आस्था केवल बहाना हो सकता है। इसके पीछे कुछ अवांछित शक्तियां भी भूमिका निभा रहीं हैं। राजधानी दिल्ली के अंबेडकर भवन के धर्मांतरण समारोह के भाषणों में राजनीति के स्वर ज्यादा थे और धर्म के कम। राजेंद्र पाल  यह कार्यक्रम कराने वाली संस्था द बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ इंडिया और जय भीम मिशन के राष्ट्रीय संरक्षक हैं। उनके स्वर में भाजपा के विरुद्ध आलोचना ज्यादा हैं। बौद्ध धर्म सत्य, अहिंसा और करुणा का संदेश देता है। अगर आपकी सोच भाषा और व्यवहार में सत्य, अहिंसा ,करुणा नहीं है तो कहा जाएगा कि बौद्ध धर्म अपना भले लिया लेकिन यह कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना का ही विषय है। बौद्ध के अष्टांग मार्ग में सम्यक सोच, सम्यक व्यवहार ,सम्यक समझ, सम्यय भाषा की बात है।

इतनी बड़ी संख्या में लोगों का हृदय परिवर्तन कर देना असंभव है। इस बात की जांच होनी चाहिए कि आयोजन की पृष्ठभूमि कैसे तैयार हुई और किन बौद्ध भिक्षुओं और विद्वानों ने इनके ह्रदय बदलने के लिए काम किया? वर्तमान दलित एक्टिविज्म ऐसी तिथियों का उल्लेख करता है जो पहले कभी सुना नहीं गया। इस कार्यक्रम की तिथि के रूप में अशोक विजयादशमी लिखा था। इनका मानना है कि अशोक ने जिस दिन कलिंग पर विजय की उसी दिन उसका हृदय परिवर्तन हुआ और उसने बौद्ध धर्म स्वीकारा। साफ है कि लोगों को लुभाने के लिए ऐसे शब्द गढे जाते हैं।

आस्था परिवर्तन हृदय का विषय है। आप राजनीतिक भाषा शैली और ऐसे प्रतीकों को अपनाकर किसी के अंतर्मन नहीं बदल सकते। गांधी जी इसी कारण धर्म परिवर्तन के विरुद्ध थे। उनका मानना था कि समाज सुधार के काम में धर्म परिवर्तन की भूमिका नहीं है। जाहिर है,  धर्म परिवर्तन के पीछे दिए गए तर्कों को स्वीकार करना कठिन है। यह हैरत का विषय है कि सामान्य विवाद व आरोपों पर पत्रकार वार्ताओं द्वारा अपना मत रखने वाली आम आदमी पार्टी इस मामले पर खामोशी बरतती रही। क्यों? क्या गुजरात चुनाव को देखते हुए वह दिल्ली से दलितवाद की ऐसी तस्वीर पेश करना चाहते थे जिनसे दलित मुस्लिम गठजोड़ का एक बड़ा संदेश जाए? केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की राजनीति को समझने वाले इस पहलू को खारिज नहीं कर सकते। कोई अपनी इच्छा से किसी दूसरे धर्म को अपनाए यह उसका विषय है लेकिन सामूहिक रूप से लोगों को भड़का कर धर्म परिवर्तन को आक्रामक रैली में परिणत करना भयावह दृश्य उत्पन्न करता है । इससे समाज और देश का केवल अहित ही होगा । कुल मिलाकर यह क्षोभ और चिंता का विषय है। धर्म मानव को कर्तव्यों के द्वारा मनुष्यता के उच्चतम शिखर पर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करता है उसे इस तरह राजनीतिक शैली की रैलियां न बनाया जाए यही सबके हित में है। वैसे आर्य समाजी राम, कृष्ण को भगवान नहीं मानते लेकिन महापुरुष मानते हैं। हमारे इतिहास के अनुसार श्री राम इच्छ्वाकू वंश की 65 वीं पीढी थे और महात्मा बुद्ध 123 वीं पीढ़ी। इस नाते वंशावली से भी राम को अपना पूर्वज मानने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। अश्वघोष ने महात्मा बुध की जीवनी लिखी है और उसमें वंशावली मिल गई तो फिर इसको अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं। आखिर अश्वघोष बौद्ध मुनि थे।

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