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आपातकाल के प्रखर प्रतिरोधी प्रभाकर शर्मा

आपातकाल के प्रखर प्रतिरोधी प्रभाकर शर्मा

by हिंदी विवेक
in देश-विदेश, मीडिया, राजनीति, विशेष, संघ, सामाजिक
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भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आपातकाल का विशेष स्थान है। इंदिरा गांधी ने अपनी तानाशाही स्थापित करने के लिए संविधान के इस प्रावधान का दुरुपयोग किया, जिससे 26 जून, 1975 को देश एक कालरात्रि में घिर गया।

इसके साथ ही इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा अन्य अनेक संस्थाओं पर प्रतिबन्ध लगाकर उनके हजारों कार्यकर्ताओं को झूठे आरोप में जेल में ठूंस दिया। सारे देश में भय व्याप्त था। लोग बोलने से डरते थे। सेंसर के कारण समाचार पत्र भी सत्य नहीं छाप सकते थे। जेल में लोगों का उत्पीड़न हो रहा था। ऐसे में 85 वर्षीय वयोवृद्ध सर्वोदयी कार्यकर्ता श्री प्रभाकर शर्मा ने एक ऐसा कदम उठाया, जिसने वे इतिहास में अमर हो गये। यद्यपि सरकारी साधु विनोबा भावे ने आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कहा था।

श्री प्रभाकर शर्मा ने गांधी जी के आह्नान पर 1935 में ग्राम सेवा का व्रत स्वीकार किया था। तब से वे इसी काम में लगे थे। उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं थी; पर जब उन्होंने निर्दोष लोगों का उत्पीड़न होते देखा, तो उनकी आत्मा चीत्कार उठी और उन्होंने इसका विरोध करने का निश्चय किया।

श्री प्रभाकर शर्मा ने 14 अक्तूबर, 1976 को सुरगांव (वर्धा, महाराष्ट्र) में अपने हाथों से अपनी चिता बनाई। शरीर पर चंदन का लेपकर उस पर खूब घी डाला, जिससे आग पूरी तरह भभक कर जल सके। इसके बाद वे स्वयं ही चिता पर बैठ गये। उन्होंने आसपास उपस्थित अपने सहयोगियों और मित्रों को हाथ उठाकर निर्भय रहने का संदेश दिया और चिता में आग लगा ली।

कुछ ही देर में चिता और उनका शरीर धू-धू कर जलने लगा; पर उनके मुंह से एक बार भी आह या कराह नहीं निकली। इस प्रकार लोकतंत्र और वाणी के स्वातं×य की रक्षा हेतु एक स्वाधीनता सेनानी ने बलिदान दे दिया। चिता पर चढ़ने से पूर्व उन्होंने एक खुले पत्र में इंदिरा गांधी और उनके काले कानूनों को खूब लताड़ा है। यह पत्र आपातकाल के इतिहास में बहुत चर्चित हुआ।

वे लिखते हैं – ईश्वर और मानवता को भूली हुई, पशुबल से सम्पन्न सरकार ने लोगों की स्वतंत्रता छीनकर सत्य पर प्रहार किया है। मुगलों के काल में भी ऐसे अत्याचार होते थे; पर इस बार तो वह सरकार ऐसा कर रही है, जिसने गांधी जी के नेतृत्व में अहिंसा की शिक्षा ली थी।

उन्होंने सेंसर की आलोचना करते हुए लिखा – इस प्रकार के अत्याचारों के समाचार भी प्रकाशित नहीं हो सकते। अंग्रेजों के समय में मुकदमा और सजा होती थी। समाचार पत्रों में छपने के कारण बाहर के लोगों को इसका पता लगता था। इससे शेष लोग भी उत्साहित होते थे। जनता में नैतिक जागृति आती थी; पर आपके काले कानूनों ने इसे भी असंभव कर दिया। 

मीसा के बारे में वे लिखते हैं – यह कानून नौकरशाही को राक्षस तथा जनता को कायर बनाता है। न्यायाधीश भी आपके पिट्ठू बने हैं। जो इन कानूनों का विरोध करेगा, उसे न जाने कब तक जेल में रहना पड़ेगा। जेल जाना भी अन्याय सहना ही है। अतः मैं आपकी जेल में भी नहीं जाऊंगा। आपके राज्य में मनुष्य के नाते जीवित रहना कठिन है। अतः मैं जीवित रहना नहीं चाहता। मैंने इसके विरोध में अपनी बलि देने का निश्चय किया है।

उनके आत्मदाह के बाद भी इस पत्र को सार्वजनिक करने का साहस शासन में नहीं हुआ। संघ के स्वयंसेवक अनेक गुप्त पत्रक उन दिनों निकालते थे। उनके माध्यम से ही यह घटना लोगों का पता लगी।

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