सांस्कृतिक वारसा (सांस्कृतिक विरासत)

महाराष्ट्र की भक्ति परम्परा और शौर्य गाथाओं ने समूचे राष्ट्र पर अपना प्रभाव स्थापित किया है। निःस्वार्थ राष्ट्रचिंतन महाराष्ट्र की रक्त धमनियों में संस्कृति के तौर पर अनायास प्रवाहित होता है। वर्तमान में भारत का शायद ही कोई राज्य और जिला होगा, जिसके निवासी यहां जीविकोपार्जन के लिए न रह रहे हों।

बहु असोत सुंदर सम्पन्न की महान,

प्रिय अमुचा एक महाराष्ट्र देश हा!

महाराष्ट्र भारत का एकमात्र ऐसा राज्य है जिसे अपने पराक्रमी वीरों, विचारकों और संतों के विश्व व्यापी दृष्टिकोण के कारण एक राष्ट्र के रूप में मान्यता प्राप्त है। नि:स्वार्थ बुद्धि से राष्ट्र हित का चिंतन महाराष्ट्र की संस्कृति का सहज स्वभाव है। विश्व बंधुत्व की इस कल्पना का उद्घोष संत ज्ञानदेव ने ‘अवघे विश्वची माझे घर’ (सम्पूर्ण विश्व ही मेरा संसार) के तौर पर सहज शब्दों में कर दिया था। आतिथ्यशीलता, उदारता और भावुकता महाराष्ट्र के लोगों के व्यवहार की सहज प्रक्रिया है।

संस्कृति जीवन जीने का एक तरीका है। मानसिक उन्नति के संकेतक के रूप में व्यवहार करने के आदर्श तरीके की परम्परा को संस्कृति कहा जाता है। पिछली पीढ़ियों द्वारा बनाए गए जीवन मूल्यों को हर पीढ़ी परम्परा के रूप में प्राप्त करती है। पैतृक धरोहरों की इस सामाजिक विरासत को भी संस्कृति कहते हैं। खाना-पीना, वाणी-व्यवहार, पहनावा और अलंकरण, शिष्टाचार-विचार, आस्था-विश्वास, त्यौहार, मन्नत-विश्वास, अच्छे और बुरे की धारणा, कलात्मक स्वाद आदि चीजों का संस्करण बचपन से ही मन पर होता रहता है। इस परम्परा को संस्कृति कहा जाता है।

शक्तिशाली चालुक्य सम्राट पुलकेशिन द्वितीय ने भी महाराष्ट्र में शासन स्थापित किया। बीजापुर (ईस्वी सन् 634)के एक शिलालेख में उन्हें तीन महाराष्ट्र (देश, विदर्भ और अपरांत) देशों का स्वामी कहा गया है। उनके समय (641 ई.) के दौरान, चीनी यात्री हुएंत्सुंग ने महाराष्ट्र का दौरा किया। हुएंत्सुंग का महाराष्ट्र का वर्णन बहुत मायने रखता है:  उसी के शब्दों में ..

इस क्षेत्र की भूमि उपजाऊ और खेती के लिए अनुकूल है। मौसम गर्म है। लोग बहादुर, नेक लेकिन ईमानदार और सरल होते हैं। वे पढ़ाई के शौकीन हैं। वे एक उपकारी का कर्ज कभी नहीं भूलेंगे। यदि कोई सहायता मांगेगा, तो वे अवश्य दौड़ते हुए आएंगे; लेकिन अगर कोई उनका अपमान करता है, तो वे उससे बदला लिए बिना नहीं रहेंगेे। जो कोई भी हमला करने वाला है, उसे वे अग्रिम चेतावनी देंगे। इसी तरह, वे सशस्त्र होने के लिए समय देंगे। बाद में ही उसके साथ लड़ाई करेंगे। वे भागते हुए शत्रु का पीछा करेंगे, लेकिन आत्मसमर्पण करने वालों को उदारतापूर्वक आश्रय देंगे।

शिलालेख ‘श्री चामुंडरायें करविएलें’ मराठी की पंक्ति में पहला उपलब्ध वाक्य है। यह वाक्य वहां 983 के आसपास खुदा हुआ हो सकता है।

माझा मर्‍हाटाचि बोलू कवतिके।

परी अमृतातेही पैजेसी जीके।

ऐसी अक्षरेंची रसिके मेळवीन। 

संत ज्ञानदेव ने ऐसा वचन दिया और उसे पूरा किया, ज्ञानेश्वरी ग्रंथ लिख कर। आदिकविकीर्ति मुकुंदराज ने ‘विवेकसिंधु’ ज्ञानदेव ने ‘ज्ञानेश्वरी’ और ‘अमृतानुभव’ लिखे मराठी भाषा को समृद्ध किया। प्रथम गद्य पुस्तक ‘लीलाचरित्र’ लिखने वाले म्हाईंभट मराठी के प्रारम्भिक काल के एक प्रसिद्ध लेखक थे।

सातवाहन अभिलेख में ‘महारठी’ नाम मिलता है। यही कारण है कि इस क्षेत्र को ‘महारठ’ कहा जाने लगा और इसके संस्कृत रूप में ‘महाराष्ट्र’ नाम प्रचलन में आया। महाराष्ट्र नाम वररुचि, वात्स्यायन, भरतमुनि की रचनाओं में मिलता है। इसका मतलब है कि महाराष्ट्र नाम कम से कम दो हजार साल से प्रचलन में है। 235 ईसा पूर्व के आसपास प्रतिष्ठान शहर में सातवाहनों की शक्ति स्थापित हुई थी। सातवाहनों के बाद, वाकाटक, चतुर्य, राष्ट्रकूट और यादवों ने महाराष्ट्र पर शासन किया। ये राजा सुसंस्कृत, जन-उत्साही और कला प्रेमी थे। इस काल में कला, नृत्य, संगीत का विकास हुआ और महाराष्ट्र की संस्कृति का विकास हुआ।

देवगिरी का यादव वंश, जिसने 12वीं शताब्दी के अंत से 14वीं शताब्दी की शुरुआत तक महाराष्ट्र पर शासन किया, ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है। क्योंकि जिसे हम ‘मराठी संस्कृति’ कहते हैं उसकी व्यापक और ठोस नींव यादवों के काल में रखी गई थी। ई.स. 1318 में यादवों की सत्ता समाप्त हो गई। इसके बाद महाराष्ट्र पर बड़े विदेशी आक्रमण हुए। लोगों का जीवन और संस्कृति प्रभावित होने लगी। सामाजिक संतुलन बिगड़ गया। वह राजनीतिक अस्थिरता का दौर था।

उन्हें इस आकांत स्थिति से मुक्त करने के लिए संत आंदोलन का जन्म हुआ और राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा यानी मराठी भाषा, भक्ति पंथ के उदय और कर्तव्यपरायण सामाजिक जीवन से संत ज्ञान की दिशा स्पष्ट हो गई। उन्होंने जन संगठन की महानता को पहचानते हुए लोगों के बीच दिन-रात चलकर समाज के आंतरिक और बाहरी व्यवहार में एक नई भावना का संचार किया और इसकी भावना लोक कला से समृद्ध हुई। महाराष्ट्र में लोक कलाओं की समृद्ध विरासत है। महाराष्ट्र की लोक कला, लोक भूमिकाएं, लोक गीत, नृत्य, नाटक, संगीत, संवाद से जुड़ गए और ‘मराठमोले लोक रंग’ का उदय हुआ। गण-गौलन, पोवाड़ा लावणी, कटाव इस लोककला रंग के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। ललित, दशावतार कीर्तन भी इस लोकरंग का भाग है। जनजागृति के लिये भारुड भी है। शुद्ध मनोरंजन का एक मराठमोला तमाशा है और एक पोवाड़ा भी है जिसमें वीरश्री खिलती है। महाराष्ट्र में ऐसा कोई गांव नहीं है जिसने कीर्तन नहीं किया हो और जिसने तमाशा न देखा हो।

पंढरपुर में हर साल आषा़ढ़ महीने में भक्ति का मेला लगता है। लाखों वारकरी अपने-अपने गांव से पैदल चलते हुए पंढरपुर पहुंचते हैं। यह वारी नाम से जानी जाती है। संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम महाराज कि मूर्तियां पालकी में लेकर लाखों लोग साथ चलते हैं। यहां सामाजिक  एकता का प्रदर्शन होता है। कंधे पर लहराता है, समानता का भगवा  झंडा। शास्त्रों का अद्वैत तत्वज्ञान वारी परम्परा में व्यवहार और आचरण में दिखाई देता है। अद्वैतभाव के आदान-प्रदान से सदाचार और सद्भावना बढ़ती है। ज्ञानेश्वर माउली महाराष्ट्र की सांस हैं और तुकोबाराय नि:श्वास हैं। लाखों वारकरी आध्यात्मिक स्तर पर अद्वैतवाद का अनुभव करते हैं और सामाजिक स्तर पर एकता का अनुभव करते हैं, ‘ज्ञानोबा-तुकाराम’ महाराष्ट्र का महामंत्र हैं। ऋषियों ने महाराष्ट्र के लोक जीवन से संवाद किया ताकि सभी को विचारों के सुख, मन और जीवन के अर्थ और अंतरात्मा के सुख की अनुभूति हो सके। संत नामदेव ने वारकरी सम्प्रदाय का प्रसार और प्रचार पूरे भारत वर्ष में किया। विशेषत: उत्तर भारत में उन्होंने बहुत भ्रमण किया और लोक जागृति की। उनके लिखे दोहे सिख सम्प्रदाय के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में भी सम्मिलित किये गए हैं।

बालशास्त्री जाम्भेकर से शुरू होकर महाराष्ट्र में सुधारकों की एक श्रृंखला ने सामाजिक स्तर पर तर्कसंगत तर्कवादी विचार की धारा को आगे बढ़ाया। महाराज सयाजीराव गायकवाड़, लोकहितवादी महात्मा फुले, न्या. रानडे, गोपाल गणेश आगरकर, छ. शाहू महाराज, विट्ठल रामजी शिंदे, डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर, स्वा. सावरकर, महर्षि कर्वे, गाडगे बाबा जैसे सुधारकों ने त्याग और सेवा की यज्ञभूमि का निर्माण कर समय-समय पर विद्रोह का झंडा बुलंद किया। बुद्धि प्रामाण्यवाद से महाराष्ट्र के इन विद्रोहियों की परम्परा को वैचारिक क्षेत्र में परिवर्तित किया तथा धर्म को परम्परा की बेड़ियों से मुक्त करने और वैज्ञानिक सुधारवाद को जोड़ने से महाराष्ट्र को एक प्रगतिशील दृष्टि मिली। यह बौद्धिक साक्षरता का सच्चा प्रमाण है।

धर्म, नैतिकता, शिष्टाचार, अनुष्ठान, कानून, विवाह संस्था, आर्थिक उत्पादन प्रणाली आदि सामाजिक संस्थाएं और सामाजिक प्रवृत्तियां आपस में जुड़ी हुई हैं और एक-दूसरे पर निर्भर हैं। उनमें से एक में परिवर्तन दूसरों को प्रभावित करता है।

महाराष्ट्र को भक्तों की भूमि भी कहते हैं। बारह ज्योतिर्लिंगों में से पांच ज्योतिर्लिंग, त्र्यंबकेश्वर, भीमाशंकर, घृष्णेश्वर, वैजनाथ, औंढया नागनाथ महाराष्ट्र में स्थित है। माहुर, तुलजापुर, कोल्हापुर और वणी में देवी के शक्तिपीठ हैं।

संगीत, नाट्य, खेल, चित्रकला, अभिनय, समाजसेवा सहित सभी क्षेत्रों में महाराष्ट्र अग्रसर है और इन क्षेत्र के लोग पूरे देश और विश्व में प्रसिद्ध हैं।

छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिंदवी स्वराज्य की स्थापना करके सनातन भारतीय धर्म और संस्कृति परम्परा की पुनर्स्थापना की। उनका यह कार्य अलौकिक और अभूतपूर्व था। छत्रपति संभाजी महाराज, संताजी घोरपड़े, धनाजी जाधव, वीर बाजीराव पेशवा, महादजी शिंदे, मल्हारराव होलकर आदि पराक्रमी वीरों ने मराठी साम्राज्य पूरे भारत वर्ष में स्थापित किया। अटक से कटक तथा दक्षिण भारत में जिनजी, तंजाउर तक प्रस्थापित किया। छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित 350 से भी ज्यादा किले महाराष्ट्र में हैं। इनमें से रायगड, प्रतापगड, तोरणा, राजगड, सिंधुदुर्ग आदि प्रमुख हैं। महाराष्ट्र में स्थित अजिंठा और वेरुल कि प्रसिद्ध गुफाएं  वैश्विक धरोहर घोषित हो चुकी हैं। लोकमान्य तिलक द्वारा शुरू किया गया गणपति उत्सव महाराष्ट्र भर में दस दिनों तक भक्ति भाव और उत्साह के साथ मनाया जाता है।

मुंबई महाराष्ट्र की आर्थिक राजधानी है, और पूरे देश की भी। यहां पर देश भर के तमाम उद्योग धंधों और औद्योगिक समूहों के कार्यालय  हैं। बहुत सारी विदेशी कंपनीयों ने महाराष्ट्र राज्य मेें निवेश किया है, क्योंकि यहां सुरक्षित-अनुकूल वातावरण, बाजार, कच्चा माल और कुशल मजदूर उपलब्ध हैं। फिल्म इंडस्ट्री के बड़े-बड़े स्टूडियो होने की वजह से भी मुंबई देश का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग भी यहीं स्थित है।

कृषि क्षेत्र में भी महाराष्ट्र अग्रसर है। नासिक जिले से प्याज और अंगूर, नागपूर से संतरा, कोंकण क्षेत्र से अल्फांसो आम, काजू निर्यात होता है। वस्त्रोद्योग, डेअरी उद्योग, पशुपालन और व्यापार में भी महाराष्ट्र का नाम देश के अग्रणी राज्यों में लिया जाता है।

शिक्षण क्षेत्र में भी महाराष्ट्र देश में पहले स्थान पर है। समय के साथ बदलाव करते हुए आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी और कम्प्यूटर उद्योग के क्षेत्र में भी महाराष्ट्र देशभर में अव्वल स्थान रखता है।

                                                                                                                                                                                          क्षितिज पाटूकले

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