खेलोगे, कूदोगे बनोगे नवाब

वैसे तो भारत गांवों का देश कहा जाता है लेकिन जब खेलों की बात होती है तो हमारे सामने बड़े शहरों के खिलाड़ियों की तस्वीर ही उभरती रही है। हालांकि पिछले कुछ समय से गांवों से भी बहुत तेजी से प्रतिभाएं सामने आ रही हैं। उसके प्रमुख कारणों में ग्रामीण जीवन और उनका शरीर सौष्ठव, सरकारों का बदलता दृष्टिकोण, बढ़ती बुनियादी सुविधाएं इत्यादि हैं।

पुल पार करने से /पुल पार होता है /नदी पार नहीं होती /नदी पार नहीं होती नदी में धंसे बिना /नदी में धंसे बिना /पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता /नदी में धंसे बिना /पुल पार करने से /पुल पार नहीं होता /स़िर्फ लोहा-लंगड़ पार होता है /कुछ भी नहीं होता पार /नदी में धंसे बिना /न पुल पार होता है /न नदी पार होती है।

नरेश सक्सेना की यह कविता जीवन के हर क्षेत्र को सार्थक अर्थ देती है, प्र्रेरणा देती है कि सफलता का मोती छिछले पानी में पाने की आशा करना व्यर्थ है। उसके लिए डूबना पड़ता है। विचरना पड़ता है उन बीहड़ों में, जहां अनगढ़ हीरे रेतीले कंकड़ की भांति बिखरे पड़े होते हैं। ठीक उसी प्रकार यदि आपको भारत की आत्मा खोजनी हो या राष्ट्र के विकास को गति देने के कारकों को ढूंढ़ना हो तो गांवों की खाक छाननी ही पड़ेगी। अगर इसका सशक्त उदाहरण देखना हो तो खेलों के क्षेत्र पर अपनी पैनी नजर दौड़ाइए। जब तक शहरों पर निर्भरता बनी रही हम खेलों में फिसड्डी बने रहे। पिछले दो दशकों में खासकर राज्यवर्धन राठौर के खेल मंत्रालय सम्भालने के दौरान इस खोज को गांवों की ओर मोड़ा गया। परिणाम हम सबके सामने है। तमाम खेलों में अंतरराष्ट्रीय स्तर के लाजवाब खिलाड़ी सामने आ रहे हैं।

इसके प्रमुख कारणों में से एक गांवों की जीवन पद्धति और शहरी जीवन में खेलों से लगातार बन रही दूरी है। सामान्यतः बच्चों का मैदान से दूर होने का कारण भी उनके पास से ही शुरू होता है, पहले बच्चा जब नासमझ होता है, घर में रोता है, तो आधुनिक भाग-दौड़ की जिंदगी के आदी शहरी माता-पिता अपने बच्चे को मोबाइल थमा देते हैं। धीरे-धीरे बच्चा उसी मोबाइल-फोन का आदी हो चुका होता है। इसके इतर दूसरा कारण शहरों में महत्वाकांक्षा का बढ़ता दौर भी बच्चों के जीवन से मैदान को छीन रहा है। इसके अलावा खेलों से बढ़ती दूरी का कारण मैदानों का घटता आकार भी है। अब बढ़ती आबादी ने बड़े-बड़े घरों का रूप धारण कर लिया है। वैसे यह समस्या गांवों में भी बढ़ रही है लेकिन अभी भी वहां खुले मैदान बचे हैं तथा तरक्की की धनात्मक हवा ने अपने पैर पसारना शुरू किया ही है। इसीलिए गांव में तो आज भी खुली जगह बच्चों को खेलने के लिए मयस्सर हो जाती है, लेकिन शहरों की तंग गलियों में तो बच्चों के खेल-कूद के लायक कोई माहौल ही नहीं छोड़ा गया है। इसके अलावा समाज की भेड़-चाल ने भी बच्चों के हाथ में जिस उम्र में खिलौने होना चाहिए, उस उम्र में बस्ते का बोझ लाद दिया जाता है। जिससे उनका शारीरिक विकास तो अवरुद्ध होता ही है, मानसिक और सामाजिक विकास भी नहीं हो पाता। हमारी संस्कृति और सभ्यता सिखाती है, कि समाज बच्चों को नैतिकता का पाठ सिखाता है, लेकिन अब तो विकास की चाहत और अपने बच्चों की दूसरे बच्चों से तुलना ने बच्चों को किताबों के भीतर ही समेटकर रख दिया है, उस रवायत को हमारे समाज को त्यागना होगा। हमारे सभ्यता और संस्कृति में कितने उद्धरण हमें मिलते हैं, कि किसी ने मात्र किताबी कीड़ा बनकर देश और समाज को ऊंचाइयों के तख्त पर नहीं पहुंचाया है।

गांवों का परिवेश शहर की अपेक्षा थोड़ा सरल लेकिन जुझारू होता है, वहीं शहर का परिवेश उलझा हुआ लेकिन एकाकी होता है। आप शहर में अपने छोटे से परिवार के साथ बिना पड़ोसियों से खास सम्बंध बनाए जीवन व्यतीत कर सकते हैं, लेकिन गांव में यह असम्भव है। आप समाज से कट कर नहीं रह सकते। इसका एक फायदा यह होता है कि आपके बच्चे को अनायास स्वस्थ स्पर्धा मिल जाती है जो उसे किसी खेल में पारंगत होने के लिए प्रेरणा का कार्य करती है। ग्रामीण जीवन पद्धति और जिजीविषा व्यक्ति को बचपन से ही मानसिक और शारीरिक तौर पर मजबूत बनाने का कार्य भी करती है। उस मजबूती को आयाम देने में ग्रामीण परिवेश और समाज अपनी अहम भूमिका अदा करते हैं। धीरे-धीरे खेल के क्षेत्र में नई प्रतिभाओं को सामने लाने और उन्हें प्रोत्साहित करने हेतु सरकार द्वारा भी काफी योजनाएं चलाई जा रही हैं। इन योजनाओं के तहत खिलाड़ियों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है, वैज्ञानिक प्रशिक्षण और बेहतरीन कोच भी उपलब्ध कराए जाते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि खिलाड़ियों का ओलम्पिक और पैरालम्पिक में बेहतरीन प्रदर्शन इस बात का प्रमाण है कि बेहतर ऊर्जा वाले खिलाड़ियों को जितनी बेहतर सुविधाएं दी जाएंगी, उनका प्रदर्शन उतना ही बेहतर होगा।

वैसे देश की स्वतंत्रता के बाद से ही हर पंचवर्षीय योजना में खेलों और शारीरिक शिक्षा पर जोर दिया गया। किसी पंचवर्षीय योजना में स्टेडियमों के निर्माण पर जोर दिया गया तो किसी में कोचिंग और युवा खिलाड़ियों के प्रोत्साहन पर, लेकिन गांवों पर ध्यान देते-देते आठवीं पंचवर्षीय योजना आ गई थी। तब जाकर ग्रामीण विद्यालयों में खेलों के विकास और मैदानों पर ध्यान दिया जा सका। बाद की पंचवर्षीय योजनाओं में खेलों में आधुनिक और वैज्ञानिक सुविधाओं पर जोर दिए जाने का क्रम आगे बढ़ता चला गया।

ओलम्पिक और पैरालम्पिक खेलों में भारत के प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए खेल मंत्रालय ने सितम्बर 2014 में टारगेट ओलम्पिक  पोडियम की शुरुआत की। इस स्कीम ने ग्रामीण क्षेत्र के खिलाड़ियों को काफी फायदा पहुंचाया। उक्त योजना के तहत खिलाड़ियों को टॉप कोच से कोचिंग और खेल से जुड़े इक्विपमेंट खरीदने में काफी मदद मिली। साथ ही, कोर ग्रुप में चुने गए खिलाड़ियों को हर महीने 50 हजार रुपए और डेवलेपमेंट ग्रुप को 25 हजार रुपए का भत्ता भी मिलता है। वर्तमान में कोर ग्रुप में महिला एवं पुरुष हॉकी टीम सहित  सहित 162 खिलाड़ी जबकि कोर ग्रुप में 254 खिलाड़ी शामिल हैं। इसके अलावा खिलाड़ियों को सपोर्ट स्टॉफ यानी फिजियोथेरेपिस्ट और फिजिकल ट्रेनर की सुविधा भी प्राप्त है।

पहले मीडिया का ध्यान भी बड़े शहरों के प्रसिद्ध खिलाड़ियों पर रहता था। पर अब मीडिया का रवैया बदल रहा है। लोकल अखबार लोकल खिलाड़ियों को प्रमुखता से स्थान देते हैं, जिसका प्रभाव उस क्षेत्र के लड़कों एवं लड़कियों पर पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ रहे अंतरराष्ट्रीय खेलों का सशक्त उदाहरण है छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिला मुख्यालय से महज 12 किलोमीटर दूर स्थित पुरई गांव,जो अब देशभर में खेल गांव के रूप में मशहूर है। यहां से निकले खिलाड़ियों ने जिले के बाद प्रदेश और देश में भी गांव का नाम रोशन किया है। गांव का एक खिलाड़ी तो अंतर्राष्ट्रीय खो-खो मैच में भारत का प्रतिनिधित्व भी कर चुका है। खेलों की बदौलत यहां के करीब 40 युवा पुलिस, सेना और व्यायाम शिक्षक की नौकरियों में हैं। इस गांव के हर घर में अमूमन एक खिलाड़ी है। इस दिशा में सरकार द्वारा की गई सार्थक पहल और गांव वालों की मेहनत ने रंग लाना शुरू कर दिया है। पहले गांव में खुला मैदान तो था, लेकिन अभ्यास के दौरान वहां आने-जाने वालों की वजह से असुविधा होती थी और खेल में व्यवधान भी पड़ता था। अब वहां खिलाड़ियों को बेहतर सुविधा मुहैया कराने और उनका हुनर निखारने के लिए ग्राम समग्र विकास योजना के तहत 31 लाख रुपये की लागत से मिनी स्टेडियम बनाया गया है। करीब चार एकड़ क्षेत्र में फैले इस स्टेडियम में अब अनेक खेल आयोजनों के साथ ही गांव के खिलाड़ी बिना किसी व्यवधान के अभ्यास कर सकेंगे। मिनी स्टेडियम बन जाने से गांव के खिलाड़ी अब अपना पूरा ध्यान खेल पर लगा रहे हैं।

धीरे-धीरे क्रिकेट के इतर अन्य खेलों के प्रति बढ़ते लोगों के झुकाव और सरकारों द्वारा दी जा रही प्राइज मनी ने भी युवाओं को आकर्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। फोगाट बहनें, साक्षी मलिक, नीरज चोपड़ा, साइना नेहवाल, दुती चंद, मीराबाई चानू  बजरंग पुनिया, पी वी सिंधू, दीपक पुनिया, रवि दहिया, सुधीर जैसे खिलाड़ियों के नाम आम आदमी तक पहुंच रहे हैं जैसे विराट कोहली या सानिया मिर्जा का नाम बच्चे-बच्चे की जुबान पर रहता है। खिलाड़ियों की सहायता के लिए अब तो कई कारपोरेट घराने आगे आने लगे हैं। ऐसे लोगों को और जोड़ना चाहिए क्योंकि किसी भी खिलाड़ी के सामने यक्ष प्रश्न होता है कि हॉस्टल और कॉलेज से निकलने के बाद वह कहां जाए? जिन खिलाड़ियों का सरकार ने इतने वर्षों तक खेलने, पढ़ने का खर्च उठाया, उनके लिए भी तो कोई जॉब होना चाहिए जहां से वे खेल सकें।

भूतकाल में ऐसे हजारों युवा खिलाड़ी रहे जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर तक की प्रतियोगिताओं में प्रतिभाग किया और स्थान पाकर अपने गांव-जवार व खुद का नाम रोशन किया। लेकिन उचित मार्गदर्शन, कोच व सुविधाएं न मिलने के कारण अपने मुकाम तक नहीं पहुंच सके।

सुविधाओं के अभाव में खिलाड़ियों का मनोबल टूट जाता है। थक हारकर बैठने के सिवा उनके पास कोई अन्य रास्ता नहीं बचता। अगर सरकार उन्हें इसी तरह आर्थिक व कोच से सम्बंधित सुविधाएं देती रही तो वह दिन दूर नहीं जब अन्य क्षेत्रों की ही भांति ओलम्पिक तथा अन्य खेलों की पदक तालिका में भारत राष्ट्र का नाम ऊपर से देखा जाएगा, न कि पदक तालिका के निचले हिस्से में।

 

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