क्षेत्रीय अराजकता के बीच भारत

भारत की सबसे बड़ी समस्या है कि उसके कई पड़ोसियों का व्यवहार हमेशा से संदिग्ध रहा है लेकिन धीरे-धीरे भारत ने उनके जाल को काटकर एशिया क्षेत्र में अलग समीकरण बनाने शुरू कर दिए हैं। इसकी बानगी श्रीलंका में उभरी अराजकता और रूस-यूक्रेन युद्ध के समय दिखा। बालाकोट स्ट्राइक के कारण भी पड़ोसियों की नजर में भारत की मजबूत छवि बनी है।

डोसी भूगोल का उपहार हैं, किंतु कभी-कभी ऐतिहासिक पीड़ा बन जाते हैं। भारत भी एक अशांत पड़ोस से घिरा हुआ है और विशेष रूप से पाकिस्तान और चीन के साथ अक्सर एक चौराहे पर खड़ा रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों की भारत के सम्बंध में जोड़+घटा शून्य राशि वाली नीति है। बीजिंग भारत को दक्षिण एशियाई परिदृश्य तक सीमित देखना चाहता है और इसके लिए सीमा पर घुसपैठ, आक्रामक नीतियों के माध्यम से काम कर रहा है, आतंकवाद से लड़ने में बाधाएं पैदा कर रहा है, फिर भी उम्मीद रखता है कि उसके इस व्यापक प्रारूप के विरुद्ध भारत अपने द्विपक्षीय आर्थिक जुड़ाव और अंतर्निहित आर्थिक निर्भरता के कारण प्रभावी प्रतिक्रिया नहीं देगा। वे इस बार गलत साबित हुए जब गलवान चीन के प्रति भारत की विदेश नीति के विकल्पों में एक निर्णायक क्षण बन गया है, जिसमें क्वाड जैसे बहुरेखीय माध्यम से साझेदारी को मजबूत करना भी शामिल है हालांकि वह चीन के नियंत्रण में विश्वास नहीं करता है।

चीन भारत के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरा है, यहां तक कि दोनों पक्षों के बीच एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) पर तनाव को थामने के लिए राजनयिक, सैन्य और व्यापार के बारे में अब तक की सबसे अधिक द्विपक्षीय वार्ताएं हुई हैं। वास्तव में वर्चस्ववादी शब्दों में  वास्तविक नियंत्रण रेखा को ’चीन के अनुसार नियंत्रण रेखा’ कहा जा सकता है। 2022 का भारत 1962 का भारत नहीं है, यह सभी द्विपक्षीय मुद्दों पर शांतिपूर्ण उपायों और बातचीत करते हुए भी चीन को उसी की भाषा में उत्तर देने के लिए भी कमर कसे हुए है। दोनों ही पक्ष जी 20, ब्रिक्स, आरआईसी और एससीओ जैसे विभिन्न क्षेत्रीय और उप क्षेत्रीय संगठनों में सहयोग करना जारी रखे हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग कम से कम 18 बार मिल चुके हैं और साथ ही एनएसए, विदेश एवं रक्षा मंत्रियों ने भी कुछ तौर तरीकों को खोजा है। लेकिन जैसा विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने कहा कि वास्तव में तीन पारस्परिक्ताएं – परस्पर सम्मान, परस्पर संवेदनशीलता और परस्पर हित इनका निर्धारण करती हैं। इन्हें एक ओर रखकर यह आशा करना कि सीमा की परिस्थितियों के बीच में जीवन निर्बाध चल सकता है, यह यथार्थ से नितांत परे है। भारत अगले वर्ष एससीओ शिखर सम्मेलन का आतिथ्य करने वाला है साथ ही जी-20 की वार्ता भी जारी रहेगी।

पाकिस्तान द्विपक्षीय साझेदारी के बहुआयामी सकारात्मक पक्ष के लाभ को देखने से इनकार करता है। यह भारत के खिलाफ सीमा पार आतंकवाद में लिप्त है और यूएनजीए और ओआईसी (इस्लामिक सहयोग संगठन) में जम्मू एवं कश्मीर के मुद्दे को व्यर्थ में उठाता रहता है। अफगानिस्तान के संदर्भ में यह इस संकटग्रस्त देश के विकास में भारत के योगदान को स्वीकार करने से इनकार करता है और एक ऐसी नीति का पालन करता है जहां भारत की भूमिका तथा संलिप्तता को नकारा जाता है। रावलपिंडी अल कायदा, आइएसआइएस, आइएसकेपी, लश्कर ए तइबा जैसे आतंकी संगठनों को लगातार पोषित करते हुए बड़ी चतुराई से स्वयं को आतंकवाद से पीड़ित देश के रूप में प्रदर्शित करता है। धारा 370 के निर्मूलन से अब इसे बहस लायक एक और बिंदु मिल गया है। आर्थिक और प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित पाकिस्तान एक असफल राज्य होने की ओर बढ़ रहा है जो भारत के लिए अपने आप में एक कठिन स्थिति है।

नई दिल्ली अपनी प्रगति और विकास के लिए अच्छे पड़ोसी सम्बंध महत्वपूर्ण हैं जैसी नीति का पालन करती है। हालांकि, अफसोस की बात है कि उन्होंने अपने स्वच्छंद व्यवहार में सुधार करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया है, जिसके कारण भारत को अपनी सीमाओं को सुरक्षित करना पड़ा है और ’आतंक और वार्ता’ की तार्किक नीति का पालन करना जारी नहीं रख पा रहा है, हालांकि पीएम मोदी ने अपनी सद्भावनाओं को पड़ोसी तक पहुंचाने के लिए एक अभूतपूर्व तथा अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन पीएम नवाज शरीफ (वर्तमान प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ के बड़े भाई) के गृहनगर का अचानक बिना किसी पूर्व संकेत के दौरा किया था। किन्तु, सद्भावना के इस बड़े संकेत के पीछे-पीछे पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी हमले हुए जिनमें पाकिस्तान की मिलीभगत पर कोई सवाल नहीं उठाया गया। इसलिए इस्लामाबाद के नापाक इरादों को बेनकाब करते हुए भारत ने दिखाया कि अगर तुम पुलवामा जैसा जघन्य अपराध करोगे तो बालाकोट जैसा उत्तर मिलेगा। सर्जिकल स्ट्राइक चलन बना दिया गया। लेकिन, पाकिस्तान और पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों को जब भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अंतरराष्ट्रीय निंदा और प्रतिबंध के लिए लाया जाता है तब उनके ’लौह कवच’ मित्र चीन द्वारा उन्हें बचाया जा रहा है।

चीन-पाक धुरी एक कड़ी चुनौती बनी रहने वाली है और हर कदम पर अधिक मजबूत प्रतिक्रिया की आवश्यकता होगी। ऐसे विरोधी जो अपनी विदेश नीति के घटक में पारम्परिक और गैर-पारम्परिक दोनों तरह के खतरों और साधनों को नियोजित कर रहे हैं, से निपटने के लिए  ‘शठ शाठ्यम समाचरेत्’ जैसा मंत्र अपनाना ही होगा। प्रचलित भू-राजनीतिक दोष रेखाओं के बावजूद प्रत्येक अंतरराष्ट्रीय मंच पर ऐसे विरोधियों का निरंतर नकाब उठाना और अलग-थलग कर देने की नीति को अपनाना होगा।

आर्थिक रूप से मजबूत पड़ोसी अपनी सुरक्षा के लिए एक सम्पत्ति है, भारत ने लगातार इस नीति का पालन किया है। लेकिन किसी न किसी समय अपने पड़ोसियों के साथ सम्बंधों को सहज स्तर पर बनाए रखने में उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। चूंकि पड़ोस का कोई विकल्प नहीं है और एक संतुलित दृष्टिकोण वाला मजबूत पड़ोसी अपने स्वयं के विकास के लिए एक वरदान है अतः, भारत ने एक गैर-परम्परागत नीति का पालन किया है जिसमें वरीयता प्राप्त बाजार पहुंच, क्षमता निर्माण, निवेश और सुरक्षा और आतंकवाद विरोधी ढांचे के माध्यम से अधिकतम सम्भव सहायता प्रदान करता है। मालदीव में पेयजल की कमी अथवा तख्तापलट का प्रयास हो या फिर चीन द्वारा संकट के समय में अपने ऋण वापसी की मांग हो, नेपाल में विनाशकारी भूकम्प या श्रीलंका में आतंकवादी हमले या उस मामले में बांग्लादेश में बारम्बार आने वाली बाढ़ हो, भारत तुरंत प्रथम प्रतिक्रियादाता के रूप में भी उभरा और इसमें भी अक्सर एक सुरक्षा प्रदाता के रूप में उभरा है।

अफगानिस्तान में तालिबान की शुरुआत और श्रीलंका में असाधारण आर्थिक संकट और राजनीतिक स्थिरता के साथ क्षेत्रीय परिदृश्य बदल गया है। इधर भारत ने तालिबान के साथ बातचीत के रास्ते खोले हैं और उधर श्रीलंका के पीड़ित लोगों को मानवीय सहायता के रूप में भोजन और चिकित्सा सहायता प्रदान की है और साथ ही लगभग 4 बिलियन डॉलर की सहायता प्रदान करके श्रीलंका में आर्थिक तबाही को उबारने की कोशिश की है। मालदीव में कुछ विरोध जारी रहने के बावजूद भारत ने मालदीव की स्थिति को काफी हद तक स्थिर कर दिया है। म्यांमार के साथ भारत ने एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया ताकि वह पूरी तरह से चीनी आलिंगन में न आए। व्यापार और निवेश में तेजी जारी है। नेपाल भी साथ-साथ चल रहा है। तथ्य यह है कि सामरिक प्रभाव के लिए चीन-भारत प्रतियोगिता ने छोटे पड़ोसी देशों को संतुलन बनाने की कला प्रदान की है। वे ’बिग ब्रदर सिंड्रोम’ से पीड़ित हैं और कर्ज के जाल के साथ-साथ चीन की भेड़िया कूटनीति से डरने लगे हैं जो उन्हें ’हॉब्सन की पसंद’ की कहावत जैसी धमक देता है। चीन द्वारा बंदरगाह हथियाने और बुनियादी ढांचे के विस्तार के नाम पर लम्बे पट्टों के कारण सम्भावित सैन्यीकरण ने बांग्लादेश से श्रीलंका तक कुछ क्षेत्रीय देशों की रणनीतिक सोच में इस बड़ी बाधा पर पुनर्विचार सम्भव किया है। यह अवसर भारत के लिए विशेष रूप से क्षमता निर्माण, प्राथमिकता के आधार पर बाजार पहुंच, पूरी तरह से वित्त पोषित छात्रवृत्ति में वृद्धि और महामारी से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने के माध्यम से सूक्ष्म और पारस्परिक रूप से लाभकारी दृष्टिकोण विकसित करने का है, जैसा कि ’वैक्सीन मैत्री’ के माध्यम से किया गया था और जैसा कि अंततोगत्वा रूस यूक्रेन युद्ध में मौलिक स्तर पर बने रहते समय किया गया।

क्षेत्रीय भागीदारों से केवल यही अपेक्षा है कि वे किसी भी ऐसे प्रलोभन से बचेंगे जो भारत को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकता है, चाहे वह आतंकवाद हो या भारत की सुरक्षा के लिए प्रतिकूल आर्थिक परियोजनाएं। कोई गुजराल सिद्धांत या विशाल और अनुकूल निवेश अथवा ऋण और अनुदान की व्यवस्था या उस मामले के लिए वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी की पड़ोस पहले नीति पर ध्यान केंद्रित कर सकता है। लेकिन चीन ने अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं और सीपीईसी (चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा) सहित बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के साथ-साथ दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अपनी चेक बुक डिप्लोमेसी और त्वरित परियोजना निष्पादन शैली के माध्यम से स्ट्रिंग ऑफ द पर्ल्स रणनीति के साथ भारत के लिए बड़ी चुनौतियों का निर्माण किया है। इन दोनों मामलों में भारत के पास पकड़ने के लिए बहुत कुछ है, क्योंकि भूटान के एकमात्र अपवाद के साथ उसके अधिकांश पड़ोसियों ने विशेष रूप से बीआरआई के लिए चीनी चारा और पाई खा लिया है जिससे भारत की सम्प्रभुता का विषय चिंतनीय हो चला है, अतः नई रणनीतियों के साथ और काम करने की जरूरत है।

चूंकि सार्क स्वयं भारत-पाक प्रतिद्वंद्विता के बंधन में बंध सा गया है, इसलिए अपने खिलाफ पाकिस्तान के द्वारा आतंकवाद को राज्यगत नीति के उपकरण के रूप में देखते हुए भारत को पड़ोस की नई परिभाषाएं तैयार करनी पड़ीं। इसलिए जुड़ाव और उप क्षेत्रीय सहयोग यानी बीसीआईएम, बीबीआईएन और बिम्सटेक, आईओआर आदि पर जोर देने के साथ एक्ट ईस्ट पॉलिसी के साथ नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी का सम्मिश्रण हुआ। इसके अलावा सहयोगी मैट्रिक्स को रणनीतिक रूप से संलग्न और विस्तारित करने के लिए लुक एंड एक्ट वेस्ट पॉलिसी को बढ़ावा दिया गया है। मध्य पूर्व में विस्तारित पड़ोस विशेष रूप से जीसीसी देशों और इजराइल के साथ सम्बंधों ने एक अभूतपूर्व गहराई हासिल कर ली है और सम्भवतः यह मोदी सरकार की विदेश नीति की सबसे बड़ी सफलता है। प्रधानमंत्री मोदी की कई बार हमारे सभी पड़ोसी देशों की यात्रा और उनके समकक्षों के साथ उनके अंतर-व्यक्तिगत स्पर्श ने इन सम्बंधों को एक असामान्य सहज स्तर और समझ प्रदान की है, जो द्विपक्षीय, उप-क्षेत्रीय, क्षेत्रीय और बहुपक्षीय संदर्भ में सम्बंधों को सुदृढ़ करेगा।

भारत की पड़ोस पहले नीति गैर-पारस्परिक और विकास लाभांश संचालित है। हालांकि, चूंकि हम अपने पड़ोसियों को बदल नहीं सकते हैं, इसलिए एक कार्यप्रणाली और विश्वास निर्माण के उपाय के साथ अवधिगत आश्वासन आवश्यक हैं। कई ब्लैक स्वान (अपूर्वानुमानित) घटनाओं के परिणामस्वरूप तेजी से बदलते भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक परिदृश्य में और 2050 की कल्पना के आधार पर उप-क्षेत्रीय और व्यापक क्षेत्रीय विदेश नीति पर पहल के साथ-साथ समग्र एशिया केंद्रित एक नीति को विकसित करना भारत के लिए उपयोगी होगा

                                                                                                                                                                              अनिल त्रिगुणायत 

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