इधर रामप्यारी मुद्दतों से आम खाने की जिद पर अड़ी है और उधर जनाब ख्यालीराम हैं कि उनके कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। कोई कितनी कहा सुनी करे करता रहे, उनकी बला से। बड़ी बेजोड़ जोड़ी है अपने ख्यालीराम और रामप्यारी की, एक की झोली में भरपूर सन्नाटा तो दूसरे के दामन में घनघोर घमासान। बाहर से देखने पर एकदम पूरब-पच्छिम, लेकिन अंदर की चाहत ऐसी कि ’एक डोर खींचे दूजा दौड़ा चला आए’। आम को लेकर एक की बेचैनी और दूसरे की बेबसी देखने वाली थी।
चैन बेचारे आम को भी कहां? खट्टा रहे तो लोग पीस-पीस कर चटनी बना दें और मीठा होने पर आए तो दबोच-दबोच कर पिलपिला कर दें, मुंह नोच लें, निचोड़ डालें। अजीब दस्तूर है दुनिया का, खट्टे को पीस दे, मीठे को मसल डाले। स्वास्थ्य और स्वाद का खजाना है आम के पास, कहते हैं कब्ज में रामबाण की तरह काम करता है अगर बात पेट की हो, हां दिमाग के कब्ज का इलाज इस दमदार फल के पास भी नहीं है। तरह-तरह के खनिज-विटामिनों से भरपूर मगर कच्चा ही टूटने को मजबूर। अब तो लगभग सभी को हर एक फल कच्चा तोड़ लेने की आदत सी हो गई है, पकने का इंतजार कोई नहीं करता।
न जाने कब से धीरज का दामन कस कर पकड़े रहने के बावजूद एक दिन अचानक बर्दाश्त के सारे बांध अगर टूट भी गए तो आमरस के सपनों में सराबोर रामप्यारी का इसमें क्या कुसूर? मन तो आखिर मन है, जिस पर आना था आ गया। आम की बर्फी, आम की खटाई, आम का अचार, आम का पापड़, आम का मुरब्बा और न जाने क्या-क्या। आम से बनी सौ चीजें बाजार में, लेकिन उसका चहेता आम हर जगह से गायब।
बुरा हो इन पेय पदार्थ बनाने वालों का, बोतल वाले जिन्न की तरह बाहर आते हैं, आम की कुल जमा फसल बटोर कर वापस अपनी बोतल में चले जाते हैं और फिर, कोई बोतल में आम परोसने के सपने दिखा-दिखाकर भोलेभाले लोगों को बेखौफ लूटता है तो कोई मुट्ठी में आम वाली गोली दिखाकर सारी दुनिया को बहकाता फिरता है। अब एक तो यह लुटेरे ऊपर से पड़ोसन का टीवी, गाहे-बगाहे मुआ ऐसे ही विज्ञापन दिखा-दिखा कर तंग किये रखता है। आम की गुठली और छिलका देखकर भी मुंह में पानी भर लाने वाली रामप्यारी की निगाह जब-जब टीवी के इन लुभावने विज्ञापनों पर जाती, उसका दिल बल्लियों उछलने लगता। आम जब उसके दिलोदिमाग पर बुरी तरह हावी हो गया तो जज्बात आखिर एक दिन भड़क ही उठे। रामप्यारी और करती भी क्या, उसका न जी पर काबू रहा न जुबान पर। आज उसने सौ कही एक गिनी, ऐसी बोली कि जिन्दगीभर की भड़ास निकाल दी, आम की चाहत का नशा उस पर कुछ ऐसा चढ़ा कि ख्यालीराम बेचारे तस्वीर बने देखते रह गए।
रामप्यारी को समझाना टेढ़ी खीर हो रहा था जबकि ख्यालीराम की सोच सीधी पटरी पर थी। कौन नहीं जानता, आम फलों का राजा है, राजा का ठिकाना राजमहल में होगा या किसी कंगाल की कोठरी में? किसी नादान को अगर कोठी और कोठरी का अंतर पता न हो तो इसमें राजा का क्या कुसूर? महलों की शोभा किसी के चाहने भर से झोंपड़े की राह पकड़ लेगी क्या? सब कुछ जानते हुए भी इस बार ख्यालीराम ने छाती पर पत्थर रख कर इरादा पक्का कर लिया, बाद में चाहे सौ दिन फाके करने पड़ जायं मगर एक दिन वह रामप्यारी को इस फल के जायके का एहसास कराकर ही दम लेगा।
आज फलों के राजा से हाथ मिलाने का उसका हौसला अडिग था। धड़कते दिल के साथ मंडी के मैदान में कदम रखा तो हक्काबक्का रह गया। तरह-तरह के आम, सभी के आकार और स्वाद में जबरदस्त अंतर। कुछ बेर से भी छोटे, कुछ स्थूलकाय, भार में दो ढाई किलो तक। कुछ अत्यंत खट्टे अथवा स्वादहीन या चेप से भरे तो कुछ अत्यंत स्वादिष्ट और मधुर। इतने रूप-रंग? ख्यालीराम को अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हुआ, यह फल, फलों का राजा है या कोई बहुरूपिया? सोचते-सोचते समझ आया कि इसमें भ्रम किस बात का, कम ही सही, लेकिन जहां-तहां बहुरूपिये आज भी राजा हो रहे हैं और न जाने कितने और हैं जो कल के राजा होने की फिराक में पीढ़ियों से भेस बदल-बदल कर घूम रहे हैं। यूं तो अपनी व्यवस्था के प्रताप से राजा अब राजा नहीं रहे रूप बदल कर जनप्रतिनिधि और जनसेवक कहलाने लगे हैं, पर नाम बदलने से क्या होता है करतब आज भी वही पुराने वाले हैं। आधुनिक सुल्तानों के आचरण पर ध्यान गया तो आज के राजाओं वाली चाल ढाल से फलों के राजा की चाल ढाल उसे सही मेल खाती दिखी। अपना-अपना वक्त आया देखते हैं तो दोनों ही बौरा जाते हैं, इनके चरित्र की एक रूपता का इससे सटीक पैमाना और क्या हो सकता है? जरा सा फूले-फले कि अच्छी नस्ल वाले सब बाहरी मुल्कों में आसरा खोजने निकल जाते हैं, घर-गांव की गलियों में सिर्फ वही छंटे-छंटाए देखने को मिलते हैं जो दोयम दर्जे के होते हैं फिर चाहे वे सियासत की मंडी से निकलें या फलों की मंडी से, क्या फर्क पड़ता है, हैं तो दोनों राजा।
किस-किस की चिरौरी नहीं की? दशहरी, तोतापुरी, हापुस, चौसा, फजली, केसर, सफेदा लेकिन मजाल है किसी का दिल पसीजा हो। ख्यालीराम अब अपनी हैसियत के साथ-साथ राजा और रंक का अंतर ठीक से जान चुका था, रंक की क्या औकात कि राजा को खरीदने का विचार भी मन में लाए। यह और बात है कि मजे लेने का इरादा हो तो मजाक-मजाक में कभी राजा भी ऐसी बेसरपैर की उड़ा दे कि उसका सौदा करने की कोशिश हुई, लेकिन सच तो यही है कि सौदा रंक का होता है राजा का नहीं। गलती ख्यालीराम की थी, उसने रंक होकर राजा तक पहुंच बनाने की कोशिश की। खैर, देर से ही सही, बात समझ में आ गई। अब उसके पैर वापस घर की ओर मुड़ रहे थे। आज वह अपने ऊपर दो-दो कहावतें एक साथ चरितार्थ होते देख रहा था , एक ’देर से आए, दुरुस्त आए’ और दूसरी ’लौट के बुद्धू घर को आए’।
इससे पहले कि रामप्यारी कोई सवाल करती, थके-हारे ख्यालीराम ने घर में कदम रखते ही साफ-साफ कह दिया- आम के लिए दाम चाहिए और दाम किसी खास के पास ही होते हैं, आम के पास दाम कहां? समझ पगली, जो चीज बनी ही ख़ास के लिए है, उसे आम कहां से खाय? अब तू ठहरी भोलीभाली, इस आम-खास की पहेली को सुलझाना न तेरे बस में है न मेरे, इसलिए तू भी अपना मन मार और मेरी तरह अपनी आंखें बंद कर ले। सच मान, जागते रहने वालों की जिंदगी में मुश्किलें अक्सर डेरा डाले रहती हैं। चल, अब देर मत कर, मुंह पर ताला डाल, आम को याद करके रोना छोड़ और अपना सर नींद की गोद में रख कर देख, थोड़ा आराम मिलेगा, बुजुर्गों ने शायद इसीलिए कहा है, ’किस-किस को याद कीजिए किस-किस को रोइए, आराम बड़ी चीज है मुंह ढक के सोइए’। बोलते-बोलते करवट ली और ख्यालीराम तो खर्राटों में खो गए, लेकिन रामप्यारी के खयालों में आम अभी भी करवट ले रहे थे।
मदन मोहन ‘ अरविन्द’