ब्रेकिंग न्यूज अंधी दौड़ और होड़

एक समय था जब मीडिया की खबरों को लोग संदर्भ के तौर पर प्रयोग में लाते थे, लेकिन ब्रेकिंग न्यूज देने की अंधी दौड़ ने पत्रकारिता के सिद्धांतों को ताक पर रख दिया है। साथ ही, पूरी तरह गलत समाचार प्रसारित कर देना और उसके लिए माफी न मांगना भी वर्तमान समय में मीडिया चैनलों की फितरत में शामिल हो गया है। इस पर रोक लगाया जाना आवश्यक है।

हते हैं पत्रकारिता राष्ट्र निर्माण का ‘चौथा स्तम्भ’ है और ब्रेकिंग न्यूज उसकी जान। आज टीवी समाचार चैनलों के 24 घंटों के प्रसारण का महत्व तब भी बरकरार है जब सोशल मीडिया पर व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम जैसे ऍप ने अपनी जगह बना ली है। बेशक आज पत्रकारिता के हर भाषा में कई रूप हैं, लेकिन ब्रेकिंग न्यूज अपनी व्यापकता, लोकप्रियता और पहुंच में बहुत आगे है। यह अपने दर्शकों को आकर्षित करने और बांधे रखने का सबसे सशक्त हथियार है। ब्रेकिंग न्यूज की अंधी दौड़ में तमाम मीडिया संस्थान शामिल हैं। ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर कुछ भी परोसा जाता है। अब बताइये सांप का उड़ना कोई ब्रेकिंग न्यूज हुई? मंत्री की भैंस का चोरी होना, किसी सिने तारिका का ऊप्स मोमेंट, बंदर की गुलाटियां, सैफ-करीना के पुत्र तैमूर की बचकानी हरकतें, मोबाइल के चक्कर में नाले में गिरी युवती, कमिश्नर का कुत्ता मिला, प्याज मांगती चुड़ैल, क्या यह सब ब्रेकिंग न्यूज हैं? इन जैसे अनेकों उदाहरण हैं जो टीवी की ब्रेकिंग न्यूज बनकर आपके ड्राइंगरूम में, आपके मोबाइल स्क्रीन पर या आपके डेस्कटॉप पर शोर मचाते हुए दिखाई दिए होंगे। मजे की बात यह कि किसी भी एक चैनल ने ऐसी किसी खबर को ब्रेकिंग न्यूज बनाया नहीं कि कुछ अपवाद को छोड़कर सारे के सारे उसी खबर पर पिल पड़ते हैं।

ब्रेकिंग न्यूज आमतौर पर ऐसी घटनाओं की ओर इशारा करती हैं, जो अप्रत्याशित हों। उदाहरणतः किसी महत्वपूर्ण नेता-अभिनेता-उद्योगपति की मौत, किसी आतंकी सरगना-अपराधी की गिरफ्तारी या मौत, काले धन के जखीरे का पकड़ा जाना, विमान दुर्घटना, रेल दुर्घटना, इमारत में आग या ऐसा कुछ जो लीक से हटकर हो। लाल-नीली पट्टी चलनी शुरू और एंकर उसी लाइन को लगातार दोहराते चले जाते हैं। लेकिन समस्या यह है कि ब्रेकिंग न्यूज कभी-कभी सबसे अराजक और भ्रमित करने वाली बन जाती है। ऐसे में वह दर्शकों का विश्वास खो बैठती है। कई बार मीडिया संस्थान पहले ऐसी चीजों की रिपोर्ट करने की हड़बड़ी में होते हैं, जो बाद में गलत निकल जाती है। न जाने कितनी बार ब्रेकिंग न्यूज की अंधी दौड़ में ऐसे कई नेताओं-अभिनेताओं को मार दिया जाता है जो वास्तव में भले-चंगे होते हैं। बहुत सारे मीडिया प्लेटफॉर्म एक ही घटना को कवर कर रहे होते हैं, इसलिए स्टोरी को पहले प्राप्त करने के लिए उनके बीच भयंकर प्रतिस्पर्धा होती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया या दिखाने में पिछड़ गए तो फिर टीआरपी की रेस में पिछड़ जाएंगे। चैनल्स की रेटिंग में पिछड़ना मतलब शर्म की बात। चैनल के न्यूज प्रोड्यूसर और डेस्क इंचार्ज की शामत आ जाती है। नोटिस और मेमो पकड़ा दिया जाता है कि पिछड़े कैसे? यह कैसी पत्रकारिता है? यह कैसी अंधी दौड़ है? खबरों की यह अजीब अंधी होड़ है, जिसमें बे-सिर-पैर की खबरों को लेकर प्रतियोगिता बनी हुई है। हर रिपोर्टर पर ब्रेकिंग न्यूज का दबाव होता है। खास बात यह है कि इसे ठीक तरीके से प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी से अनजान पत्रकार अतिउत्साह में चूक कर जाते हैं। और यहीं आकर ब्रेकिंग न्यूज अपना विश्वास खो देती है। यह दौर डिजिटल युग का है जिसमें गलत जानकारी तेजी से फैलती है। कभी-कभी उन्हीं को अक्सर ब्रेकिंग न्यूज बना दिया जाता है। डिजिटल पत्रकारिता के युग में, ब्रेकिंग न्यूज की कहानियों की अक्सर तत्काल समय सीमा होती है जिस से चैनल से जुड़े पत्रकार को जूझना होता है।

दरअसल आज के युग में ब्रेकिंग न्यूज की महिमा अपरम्पार हो गई है। ब्रेकिंग न्यूज न होती तो कुछ लोगों का जीवन ही नीरस हो जाना था। मैसेज फॉरवार्डिंग मोड पर रहने वाले प्राणियों की तो जैसे सरकारी नौकरी ही चली जाती। हास्य-व्यंग्य तक तो ठीक लेकिन जब ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर हिंसा, नफरत और घृणा का पुट मिला दिया जाए तो वही खबर आफत बन जाती है। अनेक कलाकारों को जीवित रहते मार डालने वाली ब्रेकिंग न्यूज से भी दर्शकों का पाला पड़ता रहता है। खबरों की मारकाट में कई मशहूर हस्तियों को मार डाला जाता है। दिलीप कुमार की मृत्यु से पहले दर्जनों बार उन्हें मारा गया। भेड़-बकरियों के वियाग्रा खाने की खबर, एमएलसी मुलायम यादव की मृत्यु पर पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को मृत घोषित करने वाली खबर, फिल्मी हिंसक दृश्यों को दंगों से जोड़कर बताने वाली खबर, कोरोना के दौरान मृतकों की संख्या बढ़ाने वाली या उस से जुड़ी फेक दवाइयों की खबर जैसे कई उदाहरण हैं जिन्हें ब्रेकिंग खबर बनाकर पेश किया गया। फिल्मी हस्तियों के अफेयर की खबरें तो अक्सर ब्रेकिंग खबर बन जाती हैं। यानी ब्रेकिंग खबर की भूख है कि मिटती नहीं और नित नए-नए प्रयोग करती रहती है।

जहां तक बात खबरों की है, क्या खबरों के बिना आज के जीवन की कल्पना की जा सकती है? प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, इंटरनेट जैसे कई माध्यम हैं जिनके जरिये घर-घर समाचारों की पहुंच हो गई है। संसार के किसी भी कोने में कोई भी घटना घटित हो, उसके अगले दिन हमारे पास उसकी खबर का आना निश्चित है। ऐसा सिर्फ अखबारों, टीवी माध्यमों और डिजिटल मीडिया के माध्यम के कारण ही सम्भव हो पाता है। यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि अखबार पहली और आवश्यक चीज है, जिसे हर सुबह, सबसे पहले देखना सामाजिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। वह खबरें ही हैं जिनकी मदद से वर्तमान समय में विश्वभर से जुड़े रखने में मदद मिलती है। सिर्फ खबरें देने में ही नहीं बल्कि मीडिया हमारे ज्ञान कौशल और तकनीकी जागरूकता को बढ़ाने में भी मदद करता रहा है। यह अलग विषय है कि लोकतंत्र का यह चौथा स्तम्भ अब कितनी स्वतंत्रता के साथ अपनी बात रख पाता है लेकिन यह तो निश्चित है कि लोगों के लिए सूचनाओं का सबसे बड़ा माध्यम मीडिया ही है। उसी मीडिया के लिए समाचारों के चयन के लिए कुछ सिद्धांतों का पालन करना जरूरी होता है। जैसे कि यथार्थता, वस्तुपरकता, निष्पक्षता, संतुलन और स्रोत।

ईमानदारी की बात यह है कि अब प्रचलित मीडिया में भी इन सिद्धांतों का इस्तेमाल कम हो गया है। जब से भेड़चाल वाली खबरों ने अपने पैर पसारे हैं तबसे तो खबरों की विश्वसनीयता खतरे में आ गई है। खबरों में घटनाओं और इनसे सम्बंधित तथ्यों के चयन की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण स्थान होता है। वैसे तो खबर उसी को कहा जाता है जो सूचना प्रदान करे। पत्रकारिता का मूल उद्देश्य ही है सूचना देना, शिक्षित करना तथा मनोरंजन करना। इन तीन उद्देश्यों में सम्पूर्ण पत्रकारिता का सार तत्व समाहित किया गया है। लेकिन ब्रेकिंग की होड़ और दौड़ में सारे उद्देश्य और सिद्धांत धरे के धरे रह जाते हैं। ब्रेकिंग के नाम पर अक्सर झूठी सूचनाएं जितनी तेजी से फैलती हैं उनका कोई मुकाबला नहीं है। ये दौर फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब और सोशल मीडिया का है। इस दौर में जरूरी नहीं कि आपके पास जो भी फोटोज, वीडियो और डॉक्यूमेंट आ रहा है, वह सत्य ही हो। हो सकता है कि वो फेक हो। लोगों को कोई भी मसालेदार खबर, किसी सच्ची और मार्गदर्शन करने वाली खबर से ज्यादा आकर्षित करती है। शहर में रहने वाले लोगों के पास हाई स्पीड इंटरनेट है। उनका दायरा बड़ा है। उनके पास सच्ची और गलत न्यूज की समझ है। लेकिन फिर भी वह समझना नहीं चाहता। ग्रामीण लोग अब तक इस वायरस से दूर थे लेकिन वह भी अब इसकी चपेट में आ रहे हैं। वह भी अब इंटरनेट की दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं। जिस तरह सोशल मीडिया का दायरा बढ़ रहा है, उसी रफ्तार से गम्भीर खबरों का पतन हुआ है और ब्रेकिंग खबर तो उन खबरों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है।

दरअसल टीआरपी अर्थात ‘टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट’ की होड़ ने न्यूज चैनलों की पत्रकारिता को ही नहीं बल्कि लोकतंत्र के पूरे चौथे स्तम्भ को ही सवालों के घेरे में ला दिया है। अब तमाम न्यूज चैनलों पर सनसनी फैलने वाली खबरें और डिबेट के रूप में हो-हल्ला ही देखने-सुनने को मिलता है। रोचक तथ्य तो यह भी है कि सभी चैनल यह दावा करते हैं कि हम ही नम्बर वन हैं। कुछ वर्ष पूर्व देश के दो बड़े न्यूज चैनलों पर टीआरपी से छेड़छाड़ करने के आरोप भी लगे थे। किसी दौर में ग्राउंड रिपोर्ट न्यूज चैनलों का आधार स्तम्भ हुआ करती थी जो अब धीरे-धीरे गायब ही होती जा रही है। अब कोई न्यूज चैनल ग्राउंड रिपोर्टिंग पर न मेहनत करना चाहता है और न ही अपने संसाधन खर्च करना चाहता है। अब तो चैनल्स अपने संवाददाताओं को बाहर भेजना भी कम कर रहे हैं। न्यूज रूम में बैठे प्रोड्यूसर, कंटेंट राइटर, प्रोग्राम एडिटर और पत्रकारों के दिमाग में खबर बनाते समय केवल एक ही बात ध्यान में रहती है कि, किस कार्यक्रम और खबर से ज्यादा टीआरपी मिलेगी। कैसे खबर को सनसनीखेज ब्रेकिंग के साथ परोसा जाए। पत्रकारिता के गिरते स्तर और टीआरपी की यह होड़ ही सभी समस्याओं की जड़ है। चैनल्स और गम्भीर पत्रकारों को टीआरपी की इस अंधी दौड़ को छोड़कर दर्शकों तक जरूरी खबरें और सूचनाएं पहुंचाने की जिम्मेदारी निभानी होगी। पत्रकारिता का सच्चा धर्म और उद्देश्य तभी सार्थक होगा जब आदर्श पत्रकारिता का दौर लौटेगा। खबर को खबर की तरह पेश किया जाएगा। उसे मनमर्जी परोसा नहीं जाएगा। खबरों को दिखाया जाएगा, उनसे ‘खेला’ नहीं जाएगा।

                                                                                                                                                                                     सैयद सलमान 

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