उत्तराखंड को देवभूमि यूं ही नहीं कहा जाता है। यह छोटा सा राज्य सनातन संस्कृति के हर आयाम का साक्षी है। यहां का कठोर जीवन भारतीय सेना में इनकी प्रचंड उपस्थिति का भी कारण बनता है। राज्य बनने के बाद यहां बहुत तेजी से विकास कार्य हुआ, जिसमें पिछले 8 वर्षों में काफी तेजी आई है। यहां का साहसिक पर्यटन भी नित नई ऊंचाइयां छू रहा है।
जब हम उत्तराखंड की बात करते हैं तो सही मायनों में यह भारतीय संस्कृति का पर्याय ही है। अध्यात्म व प्रकृति के उदात्त रूप के बीच पली-बढ़ी संस्कृति हिमालय-सी उन्नत एवं गंगा जैसी अविरल, गतिशील और निर्मल। भारत की तमाम संस्कृतियों का संगम, जिसे इसे देवभूमि में फलने-फूलने की उर्वरा भूमि मिली। सुरम्य वादियों में शीतलता, गरिमा व मानव मात्र के कल्याण की प्रतीक यह संस्कृति आज राज्य बनने के करीब बाइस साल बाद नई करवट ले रही है। राज्य आंदोलन के लिये बलिदान देने वाले तमाम शहीदों की शहादत आज रंग ला रही है। मसूरी कांड, खटीमा कांड, श्रीयंत्र टापू बलिदान और रामपुर तिराहा मुजफ्फनगर में बर्बरता के बाद राज्य आंदोलन की सार्थक परिणति ने जिस नये राज्य को आकार दिया, आज उसके विकास की महक से देश सुगंधित है। केंद्र की अटल बिहारी सरकार के दौरान वर्ष 2000 में ’उत्तरांचल’ नाम से अस्तित्व में आया राज्य भारतीय जनता पार्टी की उस सोच का परिणाम है जिसमें छोटे राज्य विकास की नई इबारत लिखते हैं। बड़े राज्य का हिस्सा होना इस बात का प्रमाण था कि विकास की विकृत परिभाषा ने यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर तो कब्जा किया, मगर रोजगार का अवसर न दिया। गांव के गांव शहरों में उतर गये। यह पलायन इस संस्कृति के क्षरण का भी वाहक बना।
उत्तराखंड सदियों से भारतीय जनमानस, ऋषि-मुनियों की प्रिय भूमि रही। गढ़वाल में जब वैदिक धर्म के प्रणेता जगतगुरु शंकराचार्य विशिष्ट प्रतिभा हासिल करने आते हैं तो उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत की गरिमा का बोध होता है। उन्होंने नारदकुंड से हासिल भगवान बद्रीनाथ की मूर्ति को बद्रीनाथ में स्थापित करके सारे भारत को एकता के सूत्र में पिरोने का प्रयास किया। ज्योतिर्मठ यानी जोशीमठ में शंकराचार्य पीठ की स्थापना की। शंकर का अवतार माने जाने वाले शंकराचार्य ने केदारखंड के केदारनाथ में शरीर त्यागा। सही मायनों में यह सम्पूर्ण भारत को एक सांस्कृतिक सूत्र में पिराने की कोशिश थी। आज भी केरल के नम्बूदरी ब्राह्मण बद्रीनाथ में पूजा कराने आते हैं। पिछले दिनों प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने केदारनाथ में आदिशंकराचार्य की भव्य प्रतिमा का अनावरण करके सनातन संस्कृति के ध्वजावाहक आदिशंकराचार्य की गरिमा की पुन:प्रतिष्ठा ही की। इस तीर्थ का आध्यात्मिक सम्मोहन ही है जो प्रधान मंत्री को बार-बार बाबा केदार के दरबार में खींच लाता है।
दरअसल, उत्तराखंड के धार्मिक महत्व को समझते हुए इसके धार्मिक महत्व को प्रतिष्ठा देने के लिये भाजपा की मोदी सरकार व राज्य सरकार लगातार प्रयासरत है। चार धाम के लिये ऑलवेदर रोड का निर्माण इन दोनों सरकारों की प्राथमिकता में है। यह महत्वाकांक्षी योजना जहां तीर्थयात्रा को सुगम बनाएगी, वहीं सामरिक दृष्टि से इसका विशेष महत्व है। चीन द्वारा भारतीय सीमाओं पर लगातार पैदा की जा रही चुनौतियों के मद्देनजर बॉर्डर पर कुमुक व रसद भेजने में इससे विशेष मदद मिलेगी। केंद्र की मोदी सरकार रेलवे लाइन के विस्तार में भी इतिहास रच रही है। आजादी के बाद उत्तराखंड क्षेत्र में रेल सेवाओं का विस्तार नहीं हो पाया था, अब ऋषिकेश से श्रीनगर तक की रेल लाइन तमाम जटिल स्थितियों व तमाम सुरंगों से होती हुई अंतिम पड़ाव की ओर पहुंचने को सरपट दौड़ रही है।
सही मायनों में केदारखंड के नाम से विख्यात गढ़वाल भूमि की पहचान हिमालयी भूभाग में पवित्र स्थली के रूप में होती है। स्कंद पुराण समेत कई पौराणिक ग्रंथों में कई प्रख्यात ऋषि-मुनियों के आश्रमों का जिक्र होता है। हमारी जीवनशैली का निर्धारण करने वाले प्राचीन भारतीय वाङ्मय की रचना ऋषि-मुनियों ने इसी धरा पर की। वैदिक काल में जिन सात नदियों का उल्लेख मिलता है, वह उत्तराखंड क्षेत्र में ही मानी जाती हैं। आज भी उत्तराखंड से निकलने वाली गंगा भारतीय संस्कृति की पर्याय है। ऐसी मान्यता है कि तपोभूमि बदरिकाश्रम के निकट मणिभद्रपुर यानी माणा में महाभारत ग्रंथ की रचना की गई। वह व्यास गुफा आज भी विद्यमान बताई जाती है।
ऐसी ऋषि संस्कृति के मूल स्थान, जो अपनी प्राकृतिक सुषमा एवं मनोहारी सुरम्यता के लिए जाना जाता है, उत्तराखंड भूमि के रूप में विशिष्ट महत्व रखता है। आज भी भारतीय संस्कृति का उदात्त रूप सुंदर-सूक्ष्म रूप में उत्तराखंड की संस्कृति के रूप में जाना जाता है। जनमानस की आवश्यकताओं-आकांक्षाओं के रूप में जो संस्कृति यहां विकसित हुई, उसमें आध्यात्मिक व धार्मिक पक्ष सबल रहा। प्राकृतिक परिवेश, जीविका के साधनों, भौगोलिक जटिलताओं तथा मौसमी चुनौतियों के बीच उत्तराखंड की जीवंत संस्कृति का उत्तरोतर विकास हुआ। जीवन मूल्यों को सामाजिक मान्यता ने संस्कृति को विस्तार दिया। यहां जीवन को व्यावहारिक उपयोग के नजरिये से सम्बल मिला। व्यवस्था की जरूरतों, जीवन मूल्यों तथा संस्कारों की छाप के साथ कालांतर संस्कृति विशिष्टता के साथ उपस्थित होती है।
हिमालय के इस पवित्र भूभाग केदारखंड की संस्कृति में धार्मिक पक्ष की मान्यता एवं विश्वास सशक्त रूप में विद्यमान रहा है। महाभारत काल में पांडवों की लीला-भूमि रहे इस इलाके में पांडवों के स्वर्गारोहण का उल्लेख मिलता है। मान्यता है कि केदारनाथ में उन्हें शिव के दर्शन हुए थे। स्वर्ग से गंगा के धरती में अवतरण का वृत्तांत इसी क्षेत्र में माना जाता है। वहीं कौरवों की सक्रियता का उल्लेख जौनसार के इलाके में मिलता है। यहां कुछ इलाकों में उनकी पूजा तक होती है। यही वजह है कि यहां की संस्कृति में शैव, वैष्णव, शाक्त व स्मार्त सम्प्रदायों को समान दृष्टि से देखा जाता है। वैसे पूरे भारत से आने वाले तमाम तीर्थयात्री इस भूमि से मंत्रमुग्ध होकर यहीं के होकर रह गए, जिन्होंने स्थानीय संस्कृति का अंगीकार तो किया, लेकिन कुछ योगदान भी सांस्कृतिक समरसता में दिया।
इस धरा की विशेषता है कि बद्रीनाथ में विष्णु की पूजा नृसिंह के रूप में होती है, वहीं श्रीकृष्ण की नागराज के रूप में दूध-दही के देवता के रूप में होती है। बद्रीनाथ को गढ़वाल के इष्ट देवता के रूप में मान्यता है। वहीं वैष्णव, शैव, शाक्त एवं स्मार्त सम्प्रदाय को आदर के साथ स्वीकारा गया है। समन्वय की इस संस्कृति की खासियत यह है कि ये सभी देव एक स्थान में पूजे जाते हैं। कालसी का अशोक स्तम्भ बौद्ध संस्कृति को मान्यता देता है। जैन धर्म के प्रवर्तक भी बद्रीनाथ आये। नाथ-सिद्धों की भी साधना भूमि रही उत्तराखंड। मान्यता है कि पूर्व जन्म में गुरु गोविंद सिंह ने हेमकुंड स्थित ताल के निकट तपस्या की। आज ये स्थान सिखों का पवित्र स्थल हेमकुंड साहेब के नाम से जाना जाता है।
उत्तराखंड के आध्यात्मिक व धार्मिक महत्व का पता इस बात से ही चलता है कि इस साल शुरू हुई चारधाम यात्रा ने श्रद्धालुओं के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये। गत माह के मध्य तक यहां पिछले तीन साल का रिकॉर्ड तोड़ते हुए करीब 35 लाख श्रद्धालुओं ने चारधाम के तीर्थों के दर्शन किये। इन देश-विदेश के तीर्थ यात्रियों ने केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री तथा हेमकुंट साहेब में उपस्थिति दर्ज करायी।
वास्तव में इस भूमि को श्रेय जाता है कि इसने भारतीय संस्कृति को फलने-फूलने के लिए आधारभूमि उपलब्ध कराई। पहली नजर में यह एक लोकसंस्कृति के रूप में नजर आती है। यहां के प्राकृतिक सौंदर्य एवं जैविक विविधता ने यहां की संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने में मदद की। समन्वयता इसकी विशिष्टता है। गंगा की धारा की तरह गतिशीलता इसका विशिष्ट गुण है। ये तमाम कारण संस्कृति की तर्कशीलता में अभिवृद्धि करते हैं।
पहली नजर में पहाड़ उपभोक्तावादी संस्कृति के रसिकों को महज सैर-सपाटे के स्थल लगते हैं, लेकिन सही मायनों में हिमालय के उत्तराखंड स्थित पहाड़ देश की जीवन-धारा के नियामक हैं। मौसम व ऋतु चक्र के संवर्धक हैं। मानसूनी बयार के नीति-नियंता हैं। वे पूरे देश को प्राणवायु देते हैं। वे दिल्ली का मौसम भी बदलते हैं।
कुछ दिन पहाड़ पर गुजारना सैर-सपाटे व मौज मस्ती का पर्याय लगता हो, लेकिन जो पहाड़ पर जीवनयापन करता है,उसे पहाड़ का प्रेम व रौद्र दोनों देखने को मिलते हैं। सही मायनों में जीवन का हर-दिन एक नई चुनौती और हर दिन परीक्षा। लेकिन एक बात तय है कि प्रकृति का सान्निध्य व्यक्ति को मानवीय मूल्यों व संवेदनाओं से परिपूर्ण कर देता है। वीरता व साहस बोनस में मिलता है। कहते हैं पहाड़ पर चढ़ना हो तो झुकना पड़ता है।अकड़ के चलोगे तो गिर जाओगे। पहाड़ का पानी भी वैज्ञानिक भाषा में कठोर होता है। वहां चूल्हे पर पकने वाली दाल भी आसानी से नहीं गलती।
ऐसे परिवेश में जन्मा व्यक्ति जन्म से सैनिक होता है। कुदरत की कठोरता उसे फौलादी बनाती है। उसे पहाड़ जैसा आत्मस्वाभिमानी और धीर-गंभीर बनाती है। ऐसे ही वातावरण में यदि उत्तराखंड वीर सैनिकों की खान कहलाता है तो कह सकते हैं इन वीर सैनिकों को कुदरत ने ही गढ़ा है। आर्थिक विषमता और रोजगार का संकट इसका यथार्थ है। यही कारण है कि जनसंख्या के अनुपात में उत्तराखंड ने देश को सबसे ज्यादा वीर सैनिक दिये हैं। पिछले साल देश के पहले सीडीएस लेफ्टीनेंट जनरल बिपिन रावत के अवसान के बाद इसी उत्तराखंड से लेफ्टीनेंट जनरल अनिल चौहान का दूसरा सीडीएस बनना उत्तराखंड की गौरवशाली सैन्य विरासत का ही विस्तार है।
अपने समन्वयात्मक स्वरूप के चलते उत्तराखंड की संस्कृति एक लोक संस्कृति है। लोक का आधार विश्वास होता है। विश्वास से आस्था का जन्म होता है, जो लोक संस्कृति को गतिशीलता प्रदान करती है। जिसमें इसके बाह्य अभिव्यक्ति एवं आंतरिक आयामों की सक्रिय भूमिका होती है। आंतरिक आयामों में पूजा व विश्वास लोक संस्कृति को पुष्पित व पल्लवित करते हैं। वहीं इसके बाह्याभिव्यक्ति वाले कारक लोकधर्मी रूप में मिलते हैं। जिसके अंतर्गत कला के विभिन्न रूप, मनोरंजन के साधन, लोकनृत्य, लोक संगीत, नाटक आदि शामिल हैं। इसमें लोक की आत्मा दृष्टिगोचर होती है। सही मायनों में उत्तराखंड की लोक संस्कृति प्रकृति की मनोरम छटा से पैदा होती है।
विभिन्न पर्व त्योहारों पर नजर आने वाले यहां के गीत व लोकनृत्य जनमानस के उल्लास की उदात्त अभिव्यक्ति हैं। ऋतु परिवर्तन, फसल के समय तथा धार्मिक पर्वों पर इसकी बहुरंगी छटा खिलकर आती है। हिमालय की प्राकृतिक नवीनता व शुद्ध प्राकृतिक अवस्था जनजीवन में उत्साह का संचार करती है। यही वजह है कि पहाड़-सी जटिलताओं का जीवन भी यहां का जनमानस हंस-खेल के गुजार देता है।
लोक कवि डॉ. गोविंद चातक की पंक्तियां उत्तराखंडी संस्कृति का सार्थक बिंब उकेरती हैं-‘उत्तराखंड का हृदय संगीतमय है। यहां की हरी-भरी धरती गाती है। बुरांस के फूलों के सिंदूरी रंग से रंगी पर्वत शृंखलाएं गाती हैं।’ यही वजह है कि उत्तराखंड के अधिकांश गीत नृत्यात्मक हैं। नृत्य के बिना गीत अधूरे हैं। लोकनृत्यों के नाम से गीतों को नाम मिले हैं। चौफुला गीत का जिक्र चलने पर पहली छवि चौफुला नृत्य की उभरती है। इन गीतों में श्रृंगार की मनोहारी छटा है, ओज के गीत हैं, धार्मिक आह्वान है तो मायके की याद में दुखी नायिका के दर्द का सशक्त चित्रण है।
भाषा की लय और विषयवस्तु के नजरिये से उत्तराखंड का लोक साहित्य हिंदी के अन्य लोक साहित्यों से कई मायनों में विशिष्ट है। यह बात अलग है कि इनका संकलन व वर्गीकरण समय रहते प्रकाश में नहीं आ सका। इसका उल्लेखनीय पक्ष यह है कि इन गीतों का वर्गीकरण जन सुविधा के लिये स्थानीय नामों के आधार पर करने का प्रयास किया गया है। इसके अलावा गीतों के विषय, शैली व भावों को भी वर्गीकरण का आधार बनाया गया। दरअसल, कई गीतों का वर्गीकरण स्थानीय जनमानस में प्रचलित पर्व, आस्था, मनोभावों, सामाजिक मान्यताओं पर किया गया। पूजा गीत व मांगलिक अवसरों पर गाये जाने वाले मंगल गीत व विरह के रूप में गाये जाने वाले खुदेड़ गीत भी इनमें शामिल हैं। इसी तरह धार्मिक लोकगाथाओं को जागर के रूप में, वीर गाथाओं को पंवाड़े तथा प्रेम आख्यानों को चैती के रूप में विभाजित किया गया।
इस दौर में कई विद्वानों ने अपने अनुभव, सोच व प्राथमिकताओं के आधार पर लोक संस्कृति के परिचायक लोक नृत्यों का वर्गीकरण किया। इन नृत्यात्मक गीतों में मंगल गीतों जिसमें पूजा गीत व विवाह के मंगल गीत भी शामिल किया गया। सामान्य वर्गीकरण में मांगल गीत, धार्मिक लोकगीत जागार, पंवाड़े, तंत्र-मंत्र के गीत, थड्या, चौंफला, खुदेड़ गीत, बारामासा, चौमासा, कुलाचार, पसारा, बसंती गीत, होरी गीत, बाजूबन्द, लामण, छोपती, लोरीगीत, नौन्याली गीत, दूड़ा व सामयिक गीत को में शामिल किया।
उत्तराखंड की संस्कृति की एक विशेषता यह भी रही है कि यहां का जनमानस भावुक हृदयी रहा है। जब भी कोई संवेदना को झकझोरती घटना घटी या कुछ भी असामान्य घटनाक्रम घटा, लोक के आशु कवियों ने नये गीत रच डाले। लोक गायकों द्वारा बनाये गीत आज भी जन-जन की आवाज में सुनायी देते हैं। इन गीतों के रचयिता को स्थानीय भाषा में बाद्दी कहा जाता है जिसकी सहधर्मिणी बद्दीण उसके सुर-ताल की सहायक बनती है। लोक में प्रतीक पक्षी के रूप में मान्यता प्राप्त घुघती को लेकर कई मार्मिक गीत आज भी उत्तराखंड की वादियों में गूंजते हैं। फौजी के वापसी के इंतजार में विरह के गीत गुनगुनाती पत्नी, मायके न जा सकने से दुखी स्त्री के मार्मिक गीत अंतर्मन को भेदते हैं। समूह में घसियारियों के गीत हों या विभिन्न पर्वों पर लगने वाले मेलों के गीत हों, ये पूरी उत्तराखंड की संस्कृति का मार्मिक चित्र उकेर देते हैं। ऐसी ही कई हृदय विदारक घटनाओं को लेकर गीत बिना किसी आधुनिक संचार माध्यम के जन-जन तक पहुंच जाते हैं। इन गीतों को जीवंत व हृदयस्पर्शी बनाने में परंपरागत वाद्य यंत्रों ढोल-दमाऊं से लेकर मसकबीन की अहम भूमिका रही है।
उत्तराखंड की संस्कृति की एक खास बात यह भी थी कि यहां प्रकृति के गोद में पली-बढ़ी थी। शुद्ध व प्राकृतिक वातावरण सांस्कृतिक परिवेश में धनात्मक वृद्धि करता है जब उत्तराखंड के लोग मैदानों में उतरते हैं तो अपने सांस्कृतिक संस्कारों को जीवित रखने की कोशिश देश के विभिन्न भागों में करते हैं। लेकिन उनकी अगली पीढ़ी देश की मुख्यधारा में वैसे ही घुलमिल जाती है जैसे उत्तराखंड से निकलने वाली गंगा गंगासागर में मिल जाती है।
आज ऋतुओं पर केंद्रित सांस्कृतिक उत्सवों के चटख रंग फीके पड़े हैं। अब यहीं के कौथिकों यानी मेलों में पहली जैसी भीड़ नहीं जुटती। इसके बावजूद कुछ लोग, सांस्कृतिक समूह, संगठन और मशाल लेकर चलने वाले लोग एक टिमटिमाते दीये की भांति संस्कृति की राह को उजला बनाये हुए हैं। उनमें अपनी जड़ों से जुड़े रहने का जुनून है। जिनके बूते संस्कृति की अविरल धारा मंथर गति से ही सही, आगे बढ़ रही है।
आज उत्तराखंड शिक्षा के क्षेत्र में भी नये आयाम स्थापित कर रहा है। राज्य आधुनिक व तकनीकी शिक्षा का हब बनता जा रहा है। वर्ष 2000 में जब राज्य अस्तित्व में आया तो स्नातक एव स्नातकोत्तर के मात्र 34 राजकीय महाविद्यालय थे। इसी क्रम में सहायता प्राप्त व निजी विश्वविद्यालयों की संख्या महज साठ थी। वहीं तीन राजकीय, एक डीम्ड विश्वविद्याल व दो राष्ट्रीय महत्व के उच्च शिक्षा संस्थान थे। पिछले दो दशकों में राज्य में ग्यारह राजकीय, बीस निजी विश्वविद्यालय हो गये हैं। इसके अलावा एक केंद्रीय विश्वविद्यालय, आईआईटी रुड़की, एम्स ऋषिकेश, आईआईएम व एनआईटी अस्तित्व में आये हैं। एक छोटे राज्य में इतने कम समय में इतने शिक्षण संस्थानों का अस्तित्व में आना निस्संदेह बड़ी उपलब्धि है। लेकिन अभी इनसे जुड़ी समस्याओं को सम्बोधित करना जरूरी है। शिक्षा की गुणवत्ता व भारतीय संस्कारों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का दावा है कि उत्तराखंड नई शिक्षा नीति को लागू करने वाला पहला राज्य है। पहले चरण में राज्य में प्रारम्भिक शिक्षा के तहत करीब पांच हजार आंगनबाड़ी केंद्रों में बाल वाटिका कक्षाओं में नई शिक्षा नीति को अमल में लाया जा रहा है। राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद ने पाठ्यक्रम से जुड़ी पुस्तिकाएं तैयार की हैं।
वहीं दूसरी ओर राज्य पर्यटन, धार्मिक पर्यटन के साथ राज्य में एडवेंचर स्पोर्ट्स को भी नये आयाम मिल रहे हैं। गढ़वाल हिमालय में फूलों की घाटी हमेशा से साहसिक पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रही है। ट्रैकिंग के अनेक महत्वपूर्ण स्थल राज्य में विद्यमान रहे हैं। केदारताल ट्रैक, हर की दून ट्रैक, बुग्याल ट्रैक समेत अन्य स्थल साहसिक पर्यटकों के लिये तीर्थ जैसे रहे हैं। ओली में स्कींइग का स्वर्ग बना है। साथ ही राज्य में शीतकालीन खेलों को भी नये आयाम मिल रहे हैं। इसके अलावा ऋषिकेश में रिवर राफ्टिंग, कायकिंग व बंजी जंपिंग जैसे साहसिक पर्यटन के नये केंद्र विकसित हो रहे हैं। केबल कार राइडिंग का अलग आकर्षण होता है। इतना ही नहीं ये साहसिक खेल स्नो स्कीइंग, पर्वतारोहण, ट्रैकिंग व पैराग्लाइडिंग इन क्षेत्रों में लोकप्रिय होने के साथ ही राज्य में रोजगार के नये अवसर भी खोल रहे हैं। पिथौरागढ़ में भी साहसिक पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये भगीरथ प्रयास किये जा रहे हैं।