पं. राजेंद्र वर्मन ने सितार वादन की कला को घरानों की परम्परा से बाहर निकालकर नई पीढ़ी की पौध विकसित करने की दिशा में सार्थक प्रयत्न किया है। सवा पांच की ताल के उन्नायक राजेंद्र वर्मन वर्तमान समय के बेहतरीन, संवेदनशील और रचनात्मक कलाकार हैं, जो उनके रागों के गायन में प्रदर्शित होता है। आप अपनी शुद्धता एवं व्यवस्थित विकास और राग की शांति के लिए जाने जाते हैं। हिंदी विवेक को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने संगीत खासकर सितार की बारीकियों और संगीत के भविष्य को लेकर लम्बी बातचीत की। प्रस्तुत हैं उस साक्षात्कार के सम्पादित अंश:
अपने बचपन और परिवार के विषय में कुछ बताएं?
मेरा जन्म राजस्थान के एक संगीत घराने में जोधपुर में हुआ था। मेरे पिताजी ‘नाद रत्न’ आचार्य देवेंद्र वर्मन संगीत के बड़े विद्वान और गायक थे। संगीत के दो तकनीकी भाग होते हैं, परफार्मेंस(प्रदर्शन) और शास्त्र। मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि मेरे पिताजी के पास दोनों का विशद् ज्ञान था, जिसे मुझे सीखने का मौका मिला। गहन शिक्षा के लिए मुझे योग्य गुरु की तलाश थी। उसी समय इंदौर घराने के सितार वादक पद्मभूषण उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर खान जी का जोधपुर में कार्यक्रम हुआ। उन्हें सुनते ही मुझे लगा कि इनसे बेहतर गुरु मुझे कोई और नहीं मिल सकता।
आप सितार वादन के क्षेत्र में ही क्यों आए, किसी और विधा में क्यों नहीं?
दरअसल, मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं गायन सीखूं। मैंने उसकी शिक्षा भी ली। साथ ही, तबला सीखा क्योंकि गायन के साथ ही साथ आपको किसी एक वाद्य का वादन आना आवश्यक है। इन सारी कवायदों के बावजूद सितार मुझे ज्यादा आकर्षित कर रहा था। उसे सुनते ही मन के तार झंकृत हो उठते थे। इसे आप दैवीय संयोग मानिए या कुछ और, हमेशा लगता था कि मुझे यही सीखना चाहिए। संयोग से मुझे बेहतरीन गुरु भी मिल गए। खां साहब ने मुझे मुंबई आने के लिए प्रोत्साहित किया, जबकि घर की माली हलात ऐसी नहीं थी कि पिताजी मेरा मुंबई में रहने का खर्चा उठा सकते।
सितार वाद्य की क्या विशेषता होती है और यह सर्वश्रेष्ठ वाद्य क्यों माना जाता है?
सितार एक पूर्ण भारतीय वाद्य है क्योंकि इसमें भारतीय वाद्यों की तीनों विशेषताएं होती हैं। तंत्री या तारों के अलावा इसमें घुड़च, तरब के तार तथा सारिकाएं होती हैं। यह भारतीय तंत्री वाद्यों का सर्वाधिक विकसित रूप है। सामान्यतः सितार में 18, 19, 20 या 21 तार हो सकते हैं। इनमें से छह या सात बजने वाले तार हैं जो घुमावदार, उभरे हुए फ्रेट्स पर चलते हैं, और शेष सहानुभूति तार (तारब, जिसे तारिफ या तारफदार के रूप में भी जाना जाता है) हैं जो फ्रेट्स के नीचे चलते हैं और बजाए गए तारों के साथ सहानुभूति में गूंजते हैं। इन स्ट्रिंग्स का उपयोग आम तौर पर एक प्रस्तुति की शुरुआत में राग के मूड को सेट करने के लिए किया जाता है। फ्रेट्स, जिन्हें परदा या थाट के रूप में जाना जाता है, फाइन-ट्यूनिंग की अनुमति देते हैं। बजने वाले तार वाद्य यंत्र के सिर पर या उसके पास ट्यूनिंग खूंटे तक चलते हैं, जबकि सहानुभूति तार, जो कि विभिन्न लम्बाई के होते हैं, फ्रेटबोर्ड में छोटे छेद से गुजरते हैं ताकि छोटे ट्यूनिंग खूंटे से जुड़ सकें जो उपकरण की गर्दन के नीचे चलते हैं। सितार में दो पुल होते हैं। बड़ा पुल (बड़ा गोरा) बजाने के लिए और ड्रोन तार और छोटा पुल (छोटा गोरा) सहानुभूति तारों के लिए। यह खासियत इसे अन्य वाद्यों से अलग बनाती है।
आप स्वयं को किस घराने से सम्बद्ध मानते हैं और उस घराने की क्या खूबी है?
मेरा घराना वही है, जो मेरे उस्ताद का है। इंदौर घराना। अपने पिताजी के बाद मैंने अपने गुरु अब्दुल हलीम जाफर खां साहब से ही सीखा। उनके प्रशिक्षण के कारण ही बहुत ही कम समय में सितार के ‘जफरखानी बाज’ की पेचीदगियों को समझ पाया था। मेरा सौभाग्य है कि मेरे गुरु मुझे अपने सबसे बेहतर शिष्यों में स्थान देते थे।
इंदौर घराने की मूल विशेषता क्या है?
किसी भी घराने के बनने और प्रतिष्ठित होने के पीछे उसके मुखिया के काम और विशेष उपलब्धियां काम करती हैं। उस व्यक्ति ने किस-किस को सिखाया और उसके सिखाए शिष्यों ने आगे चलकर कितनी प्रगति की और नाम कमाया, इन सारी चीजों को मिलाने से घराना बनता है। मेरे गुरु का सितार वादन के क्षेत्र में पूरे विश्व में नाम था। अगर सितार की बात करें तो इसके लिए तीन घराने ज्यादा प्रसिद्ध रहे। पं. रविशंकर का मैहर घराना, उस्ताद विलायत अली खां साहब का इटावा घराना और हमारा इंदौर घराना। इन तीनों घरानों ने इस विधा में काफी काम किया। इसीलिए इन सब का सितार वादन के क्षेत्र में काफी नाम रहा।
अब तक आपने कितने शिष्यों को सितार वादन की शिक्षा दी हैं?
पूरी तरह से गिनती तो नहीं की परंतु तीन सौ से ऊपर ही संख्या बैठेगी। मैं लगभग 50 सालों से सितार बजाने के साथ ही साथ लोगों को सिखा भी रहा हूं क्योंकि मुंबई शहर में जीविकोपार्जन का अन्य कोई बेहतर विकल्प मेरे सामने न था। सिखाने का एक बड़ा कारण था कि मैं जोधपुर से ठीकठाक सितार वादन सीखकर आया था। मेरे पिताजी की इच्छा थी कि मैं लोगों को सितार की शिक्षा दूं। उनकी इस इच्छा का मान हो गया। परंतु मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं बिना फीस लिए सिखाऊं। वह मैंने नहीं किया। पहला प्रश्न आजीविका का था। दूसरी बात, मुफ्त में सीखने वाले लोग उस विद्या की कद्र नहीं करते। कोई बहुत ज्यादा गरीब है तो ठीक है पर जो दे सकता है उसे देना चाहिए।
मुंबई फिल्मों की नगरी है। क्या उस क्षेत्र में भी आपने हाथ आजमाया?
मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि शुरुआती दौर से ही मुझे फिल्मों में सितार वादन का कार्य मिलता रहा। मैंने सुर संगम, देस परदेस, अंगूर, दिल है कि मानता नहीं, रॉकी, हीरो समेत लगभग 250 से अधिक फिल्मों के लिए कार्य किया। 90 के दशक में कई सारे मित्रों ने जोर देना शुरू किया कि मुझे संगीत देना ही चाहिए क्योंकि मैं धुनें बना लेता था। उस दौर में दूरदर्शन पर 13-13 एपिसोड के धारावाहिक बनते थे। मैंने एक धारावाहिक ‘रात की पुकार’ में संगीत दिया। उसके बाद एक कारवां सा चल पड़ा। ‘दिल से संगीत तक’ कार्यक्रम किया और बहुत सारे जिंगल्स भी किए। पर मेरा मन हमेशा सितार में ज्यादा रमा।
भारतीय संस्कृति के वैश्विक विस्तार में संगीत का कितना योगदान रहा?
सर्वाधिक रहा। भारतीय संगीत आत्मिक संगीत होता है। इसका सम्बंध आत्मा के साथ होता है। जबकि पश्चिमी संगीत के साथ ऐसा नहीं है। वहां एक व्यक्ति धुन बनाता है और बाकी लोग उसे बजाते हैं। भारतीय संगीत के साथ ऐसा नहीं है। यहां पर पुरानी धुनों या ताल को विस्तार देने की भरपूर गुंजाइश होती है तथा समय के साथ उसे नवीन स्वरूप मिलता रहा है। वहां का संगीत बंधा हुआ है। मेरे गुरु कहा करते थे कि, मुझसे आप सीखते ही हैं। दूसरों को सुनते हैं। इन सब के अलावा अपना स्वयं का मस्तिष्क भी लगाइए। यहां के संगीत में पीढ़ी दर पीढ़ी काफी मेहनत की गई है, इसलिए भारतीय संगीत के प्रति पूरी दुनिया भागती है। आपको जानकर खुशी होगी कि सम्पूर्ण विश्व में सर्वाधिक बजने और सुने जाने वाला भारतीय संगीत है। विश्व का शायद ही कोई बड़ा शहर हो जहां सितार सीखने वाले न हों। गायन हो, वादन हो या नृत्य। दुनियाभर से लोग सीखने के लिए आते हैं।
भारतीय संगीत को वैश्विक स्तर तक पहुंचाने में सबसे बड़ा योगदान किसका मानते हैं?
इस मामले में सबसे बड़ा योगदान पं. रविशंकर का रहा। शायद ईश्वर ने उन्हें इसी काम के लिए पृथ्वी पर भेजा था कि, तुम सम्पूर्ण विश्व में भारतीय संगीत का प्रचार-प्रसार करो। वे चाहते तो अकेले कार्यक्रम कर सकते थे लेकिन उन्होंने दूसरों को खूब मौके दिए। बीटल्स ग्रुप के जॉन लेनन रविशंकर जी से सितार सीखने के लिए बनारस आए थे।
आप लोगों की पीढ़ी मेहनती थी। वर्तमान पीढ़ी फटाफट चीजें पाना चाहती है। उनके लिए क्या कहना चाहेंगे?
साधना समय मांगती है। आप उससे भाग नहीं सकते। यदि आपको बीए की पढ़ाई करनी है तो उतने साल परिश्रम करना ही पड़ेगा। यही नियम संगीत पर भी लागू होता है। यदि आप परिश्रम नहीं करते हैं तो आपको उस स्तर का ज्ञान प्राप्त नहीं होगा।
अर्थात् पहले की अपेक्षा शास्त्रीय संगीत का स्तर गिरा है?
मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं। पहले के लोग मेहनत करना चाहते थे। वर्तमान पीढ़ी उतनी मेहनती नहीं है। एक और कारण रहा। पहले संगीतज्ञ राजपरिवारों से संरक्षण पाते थे। उन्हें केवल रियाज करना रहता था। उनके जीवन यापन की जिम्मेदारी उस राजपरिवार के जिम्मे होती थी। जब आप कमाने लगते हैं तो रियाज पीछ छूटने लगता है। इसका असर फिल्मों पर भी पड़ा है। 40 से लेकर 70 के दशक तक का समय गोल्डेन पीरियड कहा जाता है। मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में से हूं जिन्होंने उस दौर को देखा है। साथ ही, अपने समय के लगभग सभी बड़े और गुनी जनों के साथ संगत की। मुझे फिल्म संगीत के गोल्डेन पीरियड के संगीतकारों के साथ काम करने का भी सौभाग्य मिला।
कोई ऐसा संगीतकार जिसके साथ काम करने में सबसे ज्यादा आनंद आया हो?
हर संगीतकार का अलहदा अंदाज होता है। अगर शास्त्रीय संगीत की बात करें तो मदन मोहन लाजवाब थे। इसलिए उनका संगीत दिल के बहुत ज्यादा करीब रहा। परंतु उसी का और थोड़ा सुधरा रूप जयदेव जी का था। वे बहुत ही अच्छे इंसान थे, और उतना ही उम्दा उनका संगीत रहा। उसके बाद रवींद्र जैन और शंकर-जयकिशन आए। वह दौर ही बेहतरीन संगीत का था। गाने सुनकर पता चल जाता था कि इसमें संगीत ओ. पी. नैयर का है, या एस.डी. बर्मन का। आज वह मधुरता और विशिष्टता गायब हो गई है। सभी ए.आर. रहमान के चेले हो गए हैं। एक ही लय में गा रहे हैं। सुरों की ऊंचाई-गहराई, आलाप इत्यादि पर किसी का ध्यान ही नहीं है। सब ऊंचे सुर में चिल्ला रहे हैं।
भारतीय स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगांठ पर आपने 50 घंटे का कार्यक्रम किया था। इतना वृहद कार्यक्रम किस प्रकार स्वरूप पा सका?
स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगांठ पर जगह-जगह बड़े कलाकारों के कार्यक्रम हो रहे थे। मेरे मन में आया कि एक कार्यक्रम नवोदित और कम प्रसिद्ध कलाकारों का भी होना चाहिए। साथ ही, राष्ट्र को ट्रिब्यूट देने के तौर पर 50 घंटों का होना चाहिए। नए के नाम पर सुनने वाले नहीं आएंगे, इसलिए उनके साथ एक बड़ा आर्टिस्ट भी रखा। हॉल वाले तैयार नहीं हो रहे थे, उतनेे लम्बे कार्यक्रम के लिए। किसी तरह खार के शारदा विद्यामंदिर के संचालक तैयार हो गए। विद्यालय होने के कारण हमारे इतने सारे कलाकारों के लिए ग्रीन रूम की समस्या हल हो गई। मेरे एक आईपीएस मित्र ने पुलिस स्टेशन से परमीशन दिलवाने में मदद कर दी। हमारी मंशा थी कि देश के हर घराने और वाद्य के धुरंधर इसका हिस्सा बनें। कार्यक्रम के सफल आयोजन के पश्चात् महाराष्ट्र के तात्कालीन संस्कृति मंत्री ने हमारी पूरी टीम को मंत्रालय में बुलाकर सम्मानित किया था।
गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड से सम्पर्क साधने की कोशिश नहीं की?
किया था, लेकिन हमारी नियमावली उनसे मैच नहीं खा रही थी। वे चाहते थे कि प्रत्येक 8 घंटों के बाद पंद्रह मिनट का अंतराल हो। डॉक्टरों की टीम, एम्ब्युलेंस समेत बहुत सारी बाते थीं। जबकि हमें था कि एक बार जोत जल गई तो रुकनी नहीं चाहिए। फिर भी उनकी ओर से हमें प्रशस्ति पत्र मिला कि पूरी दुनिया में इस तरह का कोई कार्यक्रम पहले नहीं हुआ था। कोविड के दौरान भी हमने ऑनलाइन कार्यक्रम किए। हमें कार्यक्रम करते हुए 45 साल हो गए।
पिछले 8 सालों में मोदी जी ने भारतीय संस्कृति को विश्वव्यापी बनाने की दिशा में गम्भीर प्रयत्न किए हैं। संगीत के क्षेत्र में कितनी प्रगति हुई?
यह सही है कि भारतीय संस्कृति के विस्तार के सार्थक प्रयत्न हो रहे हैं लेकिन अफसोस है कि संगीत के क्षेत्र में कोई व्यापक कार्य नहीं हुआ है। नेहरू पूरे विश्व में संगीतकारों को लेकर जाते थे। इंदिरा गांधी ने भी काफी प्रोत्साहन दिया। आखिरी बार राष्ट्रीय स्तर पर ‘अपना उत्सव’ का आयोजन 1986 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व में हुआ था। हमारी वर्तमान सरकार से अपेक्षा है कि संगीत को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्यक्रम होने चाहिए ताकि भारतीय संस्कृति की इस शाखा के विस्तार को और बल मिले।
सितार बजाते समय सबसे ज्यादा आनंदित कब होते हैं?
साक्षात्कार के दौरान यह प्रश्न मुझे हमेशा पूछा जाता है कि, आपको पूरे विश्व में सितार बजाने में सबसे ज्यादा आनंद कहां आता है? मेरा जवाब होता है, जब मैं अपने घर पर बंद कमरे में रियाज कर रहा होता हूं। उस समय की एकाग्रता और अनुभूति ही किसी कलाकार की कला को सार्थक बनाने की दिशा में सार्थक कदमताल करती है। इसका व्यापक प्रभाव व्यक्ति के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।
संगीत के भविष्य को लेकर आप कितने आशान्वित हैं?
पिछले एक-डेढ़ दशकों में शास्त्रीय संगीत और फिल्मी संगीत, दोनों ने गति पकड़नी शुरू कर दी है। टीवी पर तमाम संगीत प्रतियोगिताएं आयोजित होने लगी हैं, जिनमें देश के कोने-कोने से प्रतिभाशाली प्रतियोगी सामने आ रहे हैं। पहले घराने होने की वजह से जो प्रतिभा सिमटी थी, उसका भी विस्तार हो रहा है। तमाम तालों और रागों को लेकर प्रयोग हो रहे हैं। डॉक्टरी, इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों से जुड़े प्रबुद्ध लोगों का झुकाव भी संगीत की ओर बढ़ रहा है। संगीत की खासियत है कि इसके स्वरों का आंदोलन हमारे दिल के आंदोलन से मिल जाता है। हमारी रीढ़ की में 22 लड़ियां होती हैं। सारे सुरों की संख्या भी 22 ही है।
दक्षिण के पांच राज्यों और बंगाल में संगीत की बड़ी समृद्ध परम्परा रही है, बाकी राज्यों में नहीं। ऐसा क्यों?
इसका सर्व प्रमुख कारण वहां की शासन परम्परा रही। उन राज्यों में राजघरानों ने संगीत के विकास को प्राथमिकता दी। जबकि बाकी जगहों पर उतने बढ़िया ढंग से नहीं हो पाया। उन राज्यों में आम लोगों के बीच संगीत को प्रोत्साहित करने का कार्य किया जाता था। राज परिवार या बड़े उद्योगपति महफिलें आयोजित करवाते थे, जहां नए लोगों को अपना हुनर दिखाने का मौका मिलता था। उत्तर भारत के ज्यादातर विद्यालयों में संगीत की शिक्षा ही नहीं मिलती।
6 दशकों के संगीत के प्रवास का सिंहावलोकन करने पर संगीत के क्षेत्र की कोई उपलब्धि जो बाकी रह गई हो, या कोई विशेष ताल जिसे आपने विकसित किया हो?
संगीत अथाह सागर है। एक व्यक्ति कुछ बूंदें ही पी सकता है। पिछले 60-65 सालों से यमन बजा रहा हूं लेकिन अभी भी स्वयं को पूर्ण पारंगत नहीं कह सकता। वैसे मैंने एक प्रयोग किया जो सफल रहा। राग के क्षेत्र में काफी प्रयोग हुए पर ताल के क्षेत्र में ऐसा नहीं हो पाया था। पहले माना जाता था कि तालों में घटाव-बढ़ाव की गुंजाइश नहीं। पं. रविशंकर ने आधा ताल जोड़ने का कार्य किया। जैसे, 10 की ताल से साढ़े 10 की ताल। मैंने उस कार्य को आगे बढ़ाया और सवा 5 की ताल विकसित की। काफी बड़े सितारवादक मुझसे यह नया अनुसंधान सीखने के लिए आते हैं और प्रशंसा करते हैं।