पूर्वोत्तर के आठों राज्य लगभग समान संस्कृति साझा करते हैं। उन्होंने आधुनिकता के प्रवाह के बावजूद अपनी सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत बनाए रखा है। धीरे-धीरे देश और दुनिया के अन्य भागों के लोगों तक उनकी सांस्कृतिक विशेषताएं पहुंचने लगी हैं। स्वतंत्रता के पश्चात लगभग सात दशकों तक हाशिए पर रख दिए जाने के बाद पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में भी विकास की गंगा प्रवाहमान होने लगी है।
श के कुल भूभाग का 7.6 प्रतिशत भाग पूर्वोत्तर क्षेत्र के इन आठ राज्यों में समाविष्टक है। कुल क्षेत्रफल का 52 प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित है। इस क्षेत्र में 400 समुदायों के लोग रहते हैं, जबकि लगभग 220 भाषाएं बोली जाती हैं। संस्कृति, भाषा, परम्परा, रहन-सहन, पर्व, त्यौहार आदि की दृष्टिसे यह क्षेत्र इतना वैविध्यपूर्ण है कि इस क्षेत्र को भारत की सांस्कृतिक प्रयोगशाला कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। इस क्षेत्र में आदिवासियों का घनत्व देश में सर्वाधिक है। सैकड़ों आदिवासी समूह और उनकी उपजातियां, असंख्य भाषाएं व बोलियां, भिन्न-भिन्न प्रकार के रहन-सहन, खान-पान और परिधान, अपने-अपने ईश्ववरीय प्रतीक, आध्यात्मिकता की अलग-अलग संकल्पनाएं इत्यादि के कारण यह क्षेत्र अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। इस क्षेत्र में सर्वाधिक वन व वन्य प्राणी हैं। वनस्पततियों, पुष्पों तथा औषधीय पेड़-पौधों के आधिक्य के कारण यह क्षेत्र वनस्पति-विज्ञानियों एवं पुष्प-विज्ञानियों के लिए स्वर्ग कहलाता है। पर्वतमालाएं, हरित घाटियां और सदाबहार वन इस क्षेत्र के नैसर्गिक सौंदर्य में अभिवृद्धि करते हैं। जैव-विविधता, सांस्कृतिक कौमार्य, सामूहिकता-बोध, प्रकृति प्रेम, अपनी परम्परा के प्रति सम्मान भाव पूर्वोत्तर भारत की अद्धितीय विशेषताएं हैं। अनेक उच्छृंखल नदियों, जल-प्रपातों, झरनों और अन्य जल स्रोतों से अभिसिंचित पूर्वोत्तर की भूमि लोक साहित्य की दृष्टि से भी अत्यंत उर्वर है।
आधुनिकता की दौड़ में भी लोक संस्कृति पूर्वोत्तर के लोगों की जीवनशैली बनी हुई है। समय के साथ बहुत कुछ बदला है, लेकिन उनकी लोक संस्कृति सुरक्षित है, क्योंकि यह उनकी जीवन शैली है। ईटानगर प्रवास के दौरान डॉ. जोराम बेगी से मिलने का मौका मिला। वे आठ भाषाओं के जानकार हैं। असमिया, बांग्ला, हिंदी, अंग्रेजी, निशी, आपातानी, आदी और नेपाली भाषा पर उनकी पकड़ है। शिक्षा पर कई पुस्तकें लिख चुके हैं। उन्होंने कहा कि समाज में बदलाव के लिए शिक्षा जरूरी है। इससे व्यवस्था में बदलाव आएगा। वे मानते हैं कि राज्य का बुनियादी और बौद्धिक ढांचा बदलने के लिए शिक्षा अनिवार्य है। इससे सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव आएगा। पिछली पीढ़ी की तुलना में मौजूदा पीढ़ी ज्यादा विकसित है। उन्होंने गांधीजी के हवाले से एक महत्वपूर्ण बात कही कि ताजी हवा आने के लिए खिड़कियों को खोलना जरूरी है, लेकिन उस हवा में उड़ना नहीं चाहिए। डॉ. बेगी के कहने का तात्पर्य यही था कि समय के अनुसार विधि-विधान में परिवर्तन अनिवार्य है, लेकिन आस्था में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए। आंतरिक स्थति में बदलाव नहीं होना चाहिए, लेकिन बाहरी स्थिति में परिवर्तन सम्भव है। यह परिवर्तन समय के अनुसार होना चाहिए। मसलन आज मिथुन बलि के लिए उपलब्ध है, लेकिन कल नहीं रहेगा, इसका यह मतलब नहीं है कि ईश्वर की आराधना रोक दी जाए। मिथुन का विकल्प तलाशना होगा। मिथुन भैंसे की तरह का एक जानवर है। लोग इसे जंगल में छोड़ आते हैं। जब उनकी जरूरत पड़ती है तो पकड़ लाते हैं। अरुणाचल में मिथुन पालना समृद्धि की निशानी है। इसका मांस काफी प्रिय है और खास अवसरों पर पकाया जाता है। पूजा-पाठ में मिथुन की बलि अनिवार्य मानी जाती है। इसकी संख्या कम होती जा रही है।
असम में रंगाली बिहू आते ही ब्रह्मपुत्र के किनारे कपौ फूल उगने लगते हैं। इसी फूल को युवक अपनी प्रेमिका को अर्पित करते हैं। युवतियां गाते हुए अपने प्रेम का इजहार करती हैं। बिहू नृत्य के दौरान ही युवक और युवती करीब आते हैं। यही स्थिति मणिपुर में होली के दौरान दिखती है। नृत्य के दौरान ही युवक अपनी प्रेमिका से निवेदन करता है। यदि युवती उसके साथ नृत्य करने को तैयार हो जाती है तो उसे इजहार मान लिया जाता है। उनका समाज इसे स्वीकार कर लेता है।
पूर्वोत्तर के लोगों में आज भी लोक संस्कृति जिंदा है। उदाहरण के लिए अरुणाचल में बौद्ध धर्म के अनुयायियों के नए वर्ष के उत्सव लोसर को लिया जा सकता है। करीब एक सप्ताह तक चलने वाले इस उत्सव में लोग सुबह से शाम तक उत्सव मनाते नजर आते हैं। आमतौर से यह उत्सव बौद्ध धर्म के अनुयायी-लामा लोग मनाते हैं, लेकिन इसके साथ ही बौद्ध धर्म के प्रभाव में आ चुकी दूसरी जनजातियां-मसलन शेरडुकपेन आदि भी मनाती है। इसलिए तवांग से भालुकपोंग (असम की सीमा) तक आमतौर पर फरवरी के दूसरे सप्ताह में हवा में लहराती बौद्ध पताकाएं और पवित्र मंत्र लिखे कपड़े की पट्टियां पूरी घाटी में देखी जा सकती हैं। जिसे देखते ही यह बात किसी को भी समझ में आ जाती है कि बौद्धों का नया साल लोसर आ चुका है। यह मान्यता है कि पवित्र सफेद ध्वज और मंत्र लिखे कपड़ों से टकराकर बहने वाली हवा पवित्र हो जाती है और पूरा वातावरण भी।
इस मौके पर प्रत्येक बौद्ध मठ को सजाया जाता है और पूजा के विशेष अनुष्ठान आयोजित किए जाते हैं। जहां पर दैनिक पूजा-अर्चना सम्पन्न की जाती है। इस पवित्र स्थान के कमरे काफी विशाल होते हैं, जिनमें अवलोकी ईश्वर की वृहत आकृतियां होती हैं। बौद्धत्व के अध्ययन शास्त्र का पहलू काफी विशाल है और इसका प्रत्येक अंग बौद्ध धर्म से जुड़े इतिहास से मेल खाता है। बौद्धत्व की कुल आठ प्रधान चेष्टाएं हैं- कलश, चक्र, यंत्र, छत्र, विजय ध्वज, मतस्य और कमल। बौद्ध कला अपनी पारदर्शिता और अनुशासन की वजह से आज एक उच्च शिखर पर पहुंच गयी है।
शेरडुकपेन समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति आर. के. खिरिमे ने बताया कि शेरडुकपेन हिंदू और बौद्ध धर्म को मानते हैं। बहुरंगी उत्सव लोसर प्रत्येक साल करीब एक सप्ताह तक मनाया जाता है। इस उत्सव के धार्मिक रीति-रिवाजों की प्रस्तुति बौद्घ पंडित (लामा) करते हैं। खिरिमे ने बताया कि पहले लोग घर और गुम्पा तक ही सीमित थे, लेकिन कुछ लोगों के प्रयासों से लोसर को सामूहिक रूप से मनाने की परम्परा बनी, ताकि अपनी परम्परागत संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए अगली पीढ़ी को सौंपा जा सके। पहले दिन लोग घर में इसे मनाते हैं। दूसरे दिन गुम्पा में जाते हैं और उसके बाद इसे विभिन्न स्थानों पर सामूहिक रूप से मनाया जा जाता है।
जो लामा इस उत्सव में पूजा की दायित्व का निर्वाह करते हैं, उन्हें मारमे कहा जाता है। यह पूजा उत्सव के दौरान प्रत्येक दिन गुम्पा में की जाती है। इस दौरान भगवान बुद्घ और अन्य बौद्घ देवताओं की प्रतिमा के सामने प्रार्थना के साथ मक्खन की बाती जलाई जाती है। इसके अलावा कुछ अन्य पारम्परिक समारोहों, जैसे कि ल्हाबसंग, चेरटन, कांगले, बोरटन, थाइ, रमने, मालम, तासी और मारमे-सखा भी मनाए जाते हैं।
लोसर उत्सव के दौरान नृत्य- अजिलामु या लामसाम नृत्य, याक नृत्य या याक सबा प्रस्तुत किए जाते हैं। इन नृत्यों की प्रस्तुतियों के पीछे ईश्वर को प्रसन्न करने तथा उनकी पारम्परिक पूजा के प्रति सम्मान व्यक्त करने की अवधारणा होती है।
शेरडुकपेन लोगों के अधिकांश उत्सवों में मुखौटा नृत्यों में उनके रंग-बिरंगे परिधानों के अतिरिक्त मुखौटे का उपयोग किया जाता है। उत्सव के दौरान नृत्यों की प्रस्तुति को अनिवार्य माना जाता है। जिजि सुखाम या याक मुखौटा शेरडुकपेन लोगों की एक अनूठी नृत्यशैली है। जीजी सुखाम या याक मुखौटा काले कपड़े से बांस के बने फ्रेम को ढंककर बनाते हैं तथा इस पर लकड़ी के बने याक के सिर को लगाते हैं। एक देवी की लकड़ी की तस्वीर, जिसमें देवी का बांया हाथ ऊपर उठा होता है, को इसके पीछे लगा दिया जाता है। कपड़े से ढंके फ्रेम के अंदर दो नर्तक चले जाते हैं और उस फ्रेम को उठाकर नकली याक के अंगों के साथ नृत्य करते हैं। इसे देखकर ऐसा लगता है कि सामने कोई याक ही नृत्य कर रहा है। तीन आदमी क्रमश: अपाहेक और उनके दो बेटे-सुंदर कास्टयूम में नकली याक के साथ नृत्य करते हैं। दो लोपक ड्रम और ढोल बजाते हैं।
आजिलामु शेरडुकपेन लोगों का सबसे महत्वपूर्ण मुखौटा नृत्य है। अजिबामु मुखौटे नृत्य में पांच नर्तक भाग लेते हैं। दो क्रोधित दिखने व लहराने वाले मुखौटे (नाइफो और नाइरो), एक राजा(जाली) की तरह ड्रेस पहने तथा अन्य दो रानी (लाम्मू और लुम्मी) की तरह ड्रेस धारण किए रहते हैं। लेकिन सिर्फ पुरुष ही सक्रिय रूप से भाग ले सकते हैं। प्रत्येक मुखौटा नृत्य एक शौखिया नर्तकों का दल प्रस्तुत करता है। जिसे प्रशिक्षक तैयार करता है। प्रशिक्षक को लोपन कहा जाता है। प्रस्तुतियों के समय वे ड्रम और ढोल बजाते हैं। अपनी प्रस्तुतियों के माध्यम से वे पुरानी कहानियों को सजीव कर देते हैं, कभी-कभी नैतिकता का पाठ भी पढ़ाते हैं।
कहते हैं कि ल्हासा के राजा चाजेरनुरजन को दो रानियां थीं। बड़ी रानी का नाम लुमा और छोटी रानी का नाम लुना था। एक दिन दोनों औरतें टोंगसिन नदी में नहाने गईं। दोनों काफी सुंदर थीं। उसी दिन संयोग से दो राक्षस- न्यापा और न्यारो नदी किनारे पर मछली मारने जा रहे थे। जब उन्होंने उन सुंदर रानियों को देखा तो उन्हें पकड़कर अपने साथ ले गया।
जब राजा को पता चला कि उसकी रानियां गायब हों गईं हैं तो वह परेशान हो गया और उनकी तलाश में निकल पड़ा। उसे पता चला उन रानियों को न्यापा के घर में बंधक बनाकर रखा गया है। वह उस जगह पर पहुंच गया। घर के बाहर खड़े होकर रानियों को ऐसी भाषा में संकेत भेजा कि राक्षक को समझ में नहीं आए :
“तुमने हमें क्यों त्याग दिया और इस विचित्र जगह पर आ गई? क्या ऐसा तुमने अपनी मर्जी से किया है या न्यारा तुम्हें जबरन ले आया है? यदि तुम इसके साथ जाना चाहती थी तो मुझे बताना चाहिए था। मैंने तुम्हें सब जगह तलाशा और बड़ी मुश्किल से तुम तक पहुंचा हूं। क्या है तुम्हारी इच्छा? न्यारा के साथ रहना या मेरे साथ घर चलना?”
घर के अंदर से रानियों ने भी उत्तर उसी भाषा में दिया कि “हमें राक्षस समझ में नहीं आए हम लोग टोंगसिन नदी में नहाने गए थे। जैसे ही हम पानी में घुसे न्यापा और न्यारा मछली मारने पहुंच गए। उन लोगों ने हमें पकड़ लिया। हम लोगों ने भागने का प्रयास किया, लेकिन आजाद नहीं हो पाए। वे पुरुष हैं हम लोग औरतें। अब आप आ गए हैं, हम लोग आपके साथ घर जाना चाहते हैं।”
तब राजा न्यापा के पास गया और बोला- “क्या तुम्हें पता नहीं है कि वे महिलायें मेरी रानियां हैं? क्यों तुम लोग उन्हें जबरन अपने साथ ले आए? यदि तुम उन्हें चाहते थे तो पहले मुझसे कहना था। अब उन्हें वापस कर दो या युद्घ के लिए तैयार हो जाओ।”
यह बात सुनते ही न्यापा और न्यारा डर गए और माफी मांगने लगे और कहा-“हम लोगों को उनके बारे में पता नहीं था। हमने पानी में उनकी सुंदरता देखी और पकड़कर अपने साथ ले आए। अब आप आ गए हैं, आप निश्चित रूप से उन्हें अपने साथ लेकर जाइए।” दरवाजे खुल गए तथा राजा व राक्षस दोस्त बन गए और सभी मिलकर रानियों के साथ नाचने लगे।
दूसरी तरफ जिक चाम या डीयर नृत्य में पांच नर्तक भाग लेते हैं। उनमें से तीन उपयुक्त मुखौटा और कास्ट्यूम पहनकर अपापुक और उनके बेटों का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक नर्तक कुत्ते के अभिनय के लिए कुत्ते का मुखौटा और दूसरा हिरण का मुखौटा पहनता है।
सांस्कृतिक दृष्टि से पूर्वोत्तर भारत अत्यंत समृद्ध है। प्राचीन ग्रंथों में इस क्षेत्र के निवासियों को किरात की संज्ञा दी गई है। सर्वप्रथम यजुर्वेद में किरात शब्द का उल्लेख मिलता है। इसके उपरांत अथर्ववेद, रामायण एवं महाभारत में भी उन जनजातियों की चर्चा मिलती है जो भारत की उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की घाटियों व कंदराओं में निवास करती हैं। ब्रह्मपुत्र घाटी का संबंध किरात से है। महाभारत के विख्यात योद्धा राजा भगदत्त पूर्वोत्तर के थे। अथात् महाभारत काल से पूर्वोत्तर का गहरा सम्बंध है। माना जाता है कि पांडवों ने अपने वनवास का कुछ समय यहां भी बिताया था। अरुणाचल प्रदेश के सियांग जिले में स्थित मालिनीथान और तामेश्वरी मंदिर का सम्बंध श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी से है। अरुणाचल के लोहित जिले में अवस्थित परशुराम कुंड एक प्रमुख तीर्थस्थल है जो भगवान परशुराम से सम्बंधित है। असम का तेजपुर नगर (शोणितपुर) श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध और वाणासुर की पुत्री उषा के प्रेम का साक्षी है। गुवाहाटी स्थित कामाख्या मंदिर एक प्रमुख शक्तिपीठ है। त्रिपुरा का त्रिपुरेश्वरी मंदिर देश की 51 शक्तिपीठों में से एक है। इसे कुर्म पीठ भी कहा जाता है। पौराणिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पूर्वोत्तर भारत का शेष भारत से गहरा सम्बंध है परंतु कुछ समय पहले तक शेष भारतवासी इस क्षेत्र की विशिष्टताओं से अनभिज्ञ तथा भ्रांत धारणाओं से ग्रस्त थे। पिछले एक दशक में इस क्षेत्र का अभूतपूर्व विकास हुआ है जिसकी वजह से यह क्षेत्र राष्ट्र के विकास में कंधे से कंधा मिलाकर अपना योगदान दे रहा है।