बालासाहब देवरस उन चुनिंदा स्वयंसेवकों में से थे, जिन्होंने संघ की पहली शाखा में हिस्सा लिया था। उन्होंने स्वयंसेवकों की एक बेहतरीन टीम खड़ी की, जिन्होंने देशभर में संघ के कार्यों को विस्तार दिया। उन्होंने 1980 के दशक में रामजन्मभूमि आंदोलन को भी पुनर्जीवित किया, जिसका परिणाम हम भव्य राम मंदिर के रूप में सामने देख रहे हैं।
मधुकर दत्तात्रेय देवरस, जिन्हें उनके प्रसिद्ध नाम ‘बालासाहब देवरस’ से जाना जाता है, वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तीसरे सरसंघचालक थे। वह स्वयंसेवकों के उस पहले समूह में से थे, जिन्होंने डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा नागपुर के मोहिते बाड़ा में शुरू की गई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली शाखा में भाग लिया था (यद्यपि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना वर्ष 1925 में विजयादशमी के मौके पर की गई थी, परंतु पहली दैनिक शाखा कुछ महीनों के बाद वर्ष 1926 में शुरू की गई थी)। बालासाहब का प्रशिक्षण और किसी ने नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक ने स्वयं अपने हाथों से किया था और शायद यही उन कारणों में से एक था कि लाखों स्वयंसेवकों को, जिन्होंने डॉ. हेडगेवार को कभी नहीं देखा था, उन्हें बालासाहब में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक की छवि नजर आती थी।
लगभग सात दशक तक विभिन्न दायित्वों का वहन करते हुए संघ के संगठनात्मक विकास तथा उसकी दिशा तय करने में बालासाहब की भूमिका महत्वपूर्ण रही। नागपुर में संघ कार्यवाह के रूप में बालासाहब ने अपनी अनुकरणीय संगठनात्मक कुशलताओं का परिचय दिया। उन्हें एक साथ 15 शाखाओं को आरम्भ करने के लिए जाना जाता है। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य को अन्य राज्यों में ले जाने के लिए कार्यकर्ताओं का एक निरंतर प्रवाह बना रहे। बालासाहब, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य स्वरूप में कुछ विशेष बदलाव भी लेकर आए, जिनका दीर्घकालीन प्रभाव पड़ा। उनके नागपुर कार्यवाह बनने से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएं सप्ताह में छह दिनों के लिए लगती थीं और रविवार को छुट्टी का दिन होता था तथा श्रावण के पवित्र महीने में रविवार के साथ सोमवार को भी छुट्टी रहती थी। बालासाहब ने रविवार तथा सोमवार, दोनों दिनों के लिए गतिविधियां आरम्भ कीं और धीरे-धीरे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सप्ताह के सातों दिन, वर्ष में 365 दिन बिना रुके शाखा लगानी आरम्भ की और यह क्रम आज तक जारी है।
वर्ष 1938 में बालासाहब के कहने पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रथम प्रातःकालीन शाखा नागपुर में मोहिते बाड़ा स्थान पर शुरू की गई, जहां अपेक्षाकृत अधिक उम्र के व्यक्तियों ने आना शुरू किया। तात्याजी बाविस्कर इस ‘प्रभात’ शाखा के कार्यवाह और बाबूराव माघ उसके मुख्यशिक्षक थे।
प्रातःकालीन शाखा लगाए जाने का विचार बालासाहब के संज्ञान में तब आया, जब उन्होंने देखा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई कार्यकर्ता शाम की शाखा में शामिल होना तो चाहते थे, मगर चूंकि वे दफ्तरों या अन्य व्यापारिक संस्थाओं में अपनी आजीविका के लिए कार्य करते थे, उनके पास शाखा में शामिल होने का समय न था। उन्हें संघ से जोड़ने के लिए प्रातःकालीन शाखा शुरू की गई। ‘प्रभात शाखा’ ने अंतत: संघ के संगठन तंत्र को मजबूत करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। बालासाहब को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘घोष’ (बैंड) तथा ‘समूहगान’ की परम्परा शुरू किए जाने का भी श्रेय प्राप्त है। वर्ष 1937 के विजयादशमी समारोह में लगभग 2000 स्वयंसेवकों ने एक साथ मिलकर नागपुर में पांच ऐसे समूह गान प्रस्तुत किए थे, जिन्होंने श्रोताओं और दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया था। बालासाहब ने स्वयं इन समूह-गीतों को चुना था और सुनिश्चित किया था कि स्वयंसेवक इनका पर्याप्त अभ्यास कर लें।
वर्ष 1939 में बालासाहब एक प्रचारक के रूप में कलकत्ता गए, परंतु डॉ. हेडगेवार के निधन से थोड़ा पहले उन्हें नागपुर वापस बुला लिया गया। जब गुरुजी सरसंघचालक बने, उन्हें फिर से नागपुर की मुख्य शाखा के ‘कार्यवाह’ का दायित्व दिया गया। वह शाखा संघ के विकास के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि वहां से प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में प्रचारक निकलकर आते थे, जो देश के विभिन्न भागों में जाकर संघ के कार्य का विस्तार करते थे। साधनों की बेहद कमी थी, परंतु इससे समर्पित प्रचारकों को कोई फर्क नहीं पड़ता था और इसका परिणाम यह हुआ कि आनेवाले कुछ वर्षों में संघ के पदचिह्न देश के विभिन्न हिस्सों में पड़ चुके थे।
बालासाहब की संगठनात्मक और असाधारण प्रेरणापूर्ण नेतृत्व क्षमता ने सुनिश्चित किया कि वर्ष 1940 के दशक के आरम्भ में संघ के प्रचारकों ने पंजाब, कर्नाटक, केरल, सिंध, गुजरात, मध्य भारत, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, कश्मीर और यहां तक कि नेपाल में भी कार्य आरम्भ कर दिया था। माधवराव मुले पंजाब गए, यादवराव जोशी कर्नाटक, दत्तोपंत ठेंगड़ी केरल में थे, सिंध में राजपाल पुरी ने संघ शाखा की स्थापना की, मधुकरराव भागवत गुजरात गए, भैयाजी दाणी मध्य भारत में थे, महाकौशल में एकनाथ रानाडे तथा प्रहलादराव अम्बेडकर, उत्कल में मुकुंदराव मुकुंजे, बिहार में गजानन जोशी तथा नरहरि पारखी, राजा देशपांडे और यादवदकर ने आंध्र प्रदेश में संघ कार्य को आगे बढ़ाया। वसंतराव ओक दिल्ली के प्रभारी थे और भाऊराव देवरस उत्तर प्रदेश में संघ के कार्य-रथ को आगे बढ़ा रहे थे। ये सब लोग बालासाहब की देख-रेख में चल रही नागपुर शाखा से निकले हुए स्वयंसेवक थे।
बालासाहब को संचार व सम्पर्क माध्यमों के महत्त्व की पूर्ण जानकारी थी। जैसे ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगा प्रतिबंध 1948 में उठा लिया गया, उन्होंने नागपुर के श्री नरकेसरी मंडल से मराठी समाचार ‘तरुण भारत’ खरीदने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह समाचार-पत्र कुछ समय से बंद पड़ा था और इस पर 45000 रुपयों की देनदारी थी। बालासाहब ने यह पैसा बड़े प्रयत्नों से एकत्र किया और एक नया प्लेटफार्म ‘नरकेसरी प्रकाशन संस्था’ के नाम से खड़ा किया। इसने इस समाचार-पत्र को खरीद लिया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगे प्रतिबंध के दौरान वर्ष 1948-49 में हिंदी साप्ताहिक पत्रिका ‘युगधर्म’ को शुरू किया गया और इसे ‘नरकेसरी प्रकाशन संस्था’ के अंतर्गत ले लिया गया। बाद में अलग-अलग शहरों से ‘युगधर्म’ के विभिन्न संस्करण शुरू किए गए। यह बालासाहब की दूरदृष्टि ही थी कि उन्होंने ‘युगधर्म’ के विभिन्न संस्करणों के बारे में उस समय सोचा, जब भारत में अन्य किसी भी व्यावसायिक समाचार समूह ने इसके बारे में सोचा न था।
वर्ष 1963 में बालासाहब को ‘सहसरकार्यवाह’ का दायित्व दिया गया, मार्च 1965 में उन्हें सरकार्यवाह का दायित्व मिला।
1973 में जब बालासाहब को सरसंघचालक का दायित्व मिला उस समय वह 58 वर्ष के थे। वह मधुमेह के रोगी थे और उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था। परंतु इससे वे कदापि विचलित न हुए और अगले दो वर्षों तक उन्होंने अथक यात्राएं कीं, आपातकाल में जेल यात्रा की और एक कठोर जीवन-शैली को अपनाया, जिसने अंततः अपना प्रभाव दिखाया, परंतु उन्होंने कभी भी अपनी स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं का जिक्र किसी के आगे न किया और न ही संघ सम्बंधी कार्यों पर इसका कोई प्रभाव पड़ने दिया।
मई 1974 में बालासाहब ने पुणे में प्रतिष्ठित ‘वसंत व्याख्यानमाला’ में ऐतिहासिक भाषण दिया। इस व्याख्यान को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अब तक की यात्रा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है। बालासाहब ने इस बेलाग भाषण में जातिगत भेदभाव को लेकर स्पष्ट घोषणा की कि, छुआछूत एक अभिशाप है। इसे यहां से पूरी तरह जाना होगा। उन्होंने अब्राहम लिंकन को उद्धृत करते हुए आगे कहा, लिंकन ने कहा था, ‘अगर गुलामी अनैतिक या गलत नहीं है, तो फिर कुछ भी गलत नहीं है।’ हमें भी कहना चाहिए, ‘अगर छुआछूत गलत नहीं है तो फिर कुछ भी गलत नहीं है।’
बालासाहब देवरस के सरसंघचालक रहते हुए संघ के स्वयंसेवकों ने बड़े पैमाने पर सेवा कार्य आरम्भ किए, सामाजिक समरसता को अपने कार्य का एक प्रमुख हिस्सा बनाया, आपातकाल का सफलतापूर्वक विरोध किया, हिंदुओं को दूसरे मजहबों में जबरन अथवा धोखे से परिवर्तन को एक राष्ट्रीय अभियान बनाया और रामजन्मभूमि आंदोलन को पुनः आरम्भ करने के लिए 1980 के दशक में मजबूत नींव रखी।
संघ का अस्तित्व नही होता तो सायद राम मंदिर निर्माण कभी नही हो पाता।
भारत देश राम जन्म भूमि अयोध्या में आज भव्य राम मंदिर निर्माण कार्य प्रगत की ओर अग्रसर है, तो इस का पूरा का पूरा श्रेय संघ संगठनो को जाता है।
आप का दया 👏
जय श्री राम 🙏