लोक जीवन के चितेरे भिखारी ठाकुर

भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर ने ठेठ देशज नौटंकी को  एक नए शिखर तक पहुंचाने का कार्य किया था। अपने नाटकों में वे हमेशा सामाजिक कुरीतियों पर तीखा प्रहार करते थे। उनकी जीवनगाथा हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणास्पद है, जिसे अपने जीवन की शुरुआत शून्य से करनी है तथा, उसके मन में असीम सम्भावनाओं वाला एक बड़ा लक्ष्य हो।

सूर, कबीर, तुलसी आदि भक्त कवियों के बाद भोजपुरी क्षेत्र में जिस कवि को जनता ने सर्वाधिक कंठहार बनाया उनमें भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र का नाम प्रमुख है। भिखारी ठाकुर ने अपने गीत और लोक नाटकों के जरिए समाज में अपनी पुख्ता जगह बनाई। पारिवारिक परिस्थितियों के कारण भिखारी ठाकुर को विद्यालय जाने का अवसर नहीं मिला। बचपन से ही घर में उन्हें गायों की चरवाही का जिम्मा दिया गया था। बड़े होकर जब पढ़ने लिखने की ललक जगी तो इस उम्र में विद्यालय में पहली कक्षा से पढ़ाई शुरू करना सम्भव नहीं था। एक वणिक् पुत्र से उन्होंने अक्षर ज्ञान प्राप्त किया और कैथी लिपि में लिखने का अभ्यास करने लगे। थोड़ा कोशिश करके अटक-भटककर तुलसीकृत रामचरितमानस भी पढ़ने लगे जिसकी वजह से उनके अंदर कवित्व शक्ति का स्फुरण हुआ और वे स्वयं भी दोहे चौपाई लिखने लगे। गाय चराने के समय से ही वे अपने साथियों के साथ गाने, नाचने और खेल तमाशे का अभ्यास करने लगे थे। बाल्यावस्था में ही उनका विवाह हो गया था। उनकी दो पत्नियां अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गई थी। तीसरी पत्नी का लम्बा साथ मिला। प्रा़ैढ होने पर नौकरी ढूंढ़ते हुए पहले वे खड़गपुर (बंगाल) गए, फिर वहां से मेदनीपुर गए। आषाढ़ मास में जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा में शामिल होकर भुवनेश्वर होते हुए वे अपने घर कुतुबपुर लौट आए। इन स्थानों पर उनका मन नहीं लगा। गांव आकर उन्होंने अपना एक दल बनाया जिसके जरिए पहले तो वे रामलीला कर रहे थे लेकिन शीघ्र ही खुद के लिखे नाटक भी करने लगे। नाई जाति में जन्म के कारण सवर्ण परिवारों में उनका आना-जाना बचपन से ही था। उस जमाने में बड़े घरों की बहुयें नाई के माध्यम से ही अपना संदेश मायके या ससुराल भेजती थीं, इस कारण भिखारी ठाकुर को नारी मनोविज्ञान की बहुत गहरी समझ हो गई थी। गद्य-पद्य में कुल उनकी कुल 29 कृतियां हैं किंतु उनकी विशेष ख्याति का आधार नाटक ही हैं। उनके दस नाटकों के नाम इस प्रकार हैं- बहरा बहार(बिदेसिया) कलयुग बहार, राधेश्याम बहार, बेटी वियोग, विधवा विलाप, गबर घिचोर, भाई विरोध, गंगा असनान, पुत्र बध और ननद भौजाई।

उनकी अन्य पुस्तकों में भिखारी हरि कीर्तन, चौवर्ण पदवी(नाई पुकार), देव कीर्तन या भिखारी चौयुगी, भिखारी शंका समाधान, राम नाम प्रेम, भिखारी जय हिंद खबर आदि हैं। बिरहा बहार(धोबी-धोबन संवाद), ननद भौजाई संवाद, जसोदा सखी संवाद, नवीन बिरहा (मर्द-औरत संवाद), आदि पुस्तकें संवाद शैली में लिखी गई हैं।

भिखारी ठाकुर ने मेदनीपुर में रामलीला, पुरी में रासलीला, बंगाल में जात्रा पार्टी और अपने गांव के आसपास नौटंकी का नाच देखा था। इसका सम्मिलित प्रभाव यह हुआ कि उनके मन में स्वयं एक ऐसा ही दल बनाने का विचार आया जिसकी शुरुआत तो रामलीला से हुई मगर बाद में नाटक भी खेले जाने लगे।  भिखारी ठाकुर के घर के लोगों ने नाच गान में जाने से मना किया लेकिन वे चिट्ठी न्यौतने के बहाने नाच में चले जाते थे। उनके नाच गिरोह में कई सदस्य थे। वे नाच का सट्टा किसी और के द्वार पर लिखवा लेते थे, इसलिए उनके माता-पिता को मालूम नहीं होता था। अपनी शुरुआत के बारे में वे खुद लिखते हैं

अरथ पूछ पूछ के सीखीं

दोहा छंद निज हाथ से लिखीं।

 निज पुर में करके रामलीला

 नाच के तब बन्हलीं सिलसिला

नाच मंडली के धरि साथा

 लेक्चर देहीं कहि जै रघुनाथा

बरजत रहलन बाप मतारी

 नाच में तू मत रह भिखारी

     एह पापी के कवन पून से भइल एतना नाम

   भजन भाव के हाल न जनलीं सबसे ठगनी धाम।

पुरुषों की नशाखोरी, बाल विवाह से उपजी त्रासदी, दहेज न दे पाने के कारण कन्याओं का बेमेल विवाह, गरीबी में बेटी बेचने को मजबूर पिता, धार्मिक आडम्बरों में ठगी, विधवाओं का दुख, युवावस्था में पतियों का नौकरी के लिए महानगरों में जाना आदि संदर्भ इनके नाटकों के केंद्र में हुआ करते थे। इन सभी नाटकों में संवादों के साथ-साथ गीत भी गुंथे होते थे, जिसके कारण दर्शकों का आनंद कई गुना बढ़ जाता था।

भिखारी अपने सभी नाटकों की शुरुआत देवी देवताओं की वंदना से शुरू करते थे। सूत्रधार के रूप में वे स्वयं होते थे। वे ईश वंदना के साथ साथ सामाजिक विसंगतियों पर भी प्रहार करते चलते थे। भिखारी का सर्वाधिक चर्चित नाटक बिदेसिया गांव से शहर आकर दूसरी स्त्री के मोह में फंसने वाले एक ग्रामीण युवक की कहानी है। वह युवक पत्नी से झूठा बहाना बनाकर कोलकाता आ जाता है और कोलकाता में एक दूसरी स्त्री के मोह में फंस जाता है। पति का वियोग झेल रही पत्नी कोलकाता जा रहे एक बटोही से अपना संदेश भेजती है। बटोही के समझाने पर वह युवक फिर से अपनी पहली पत्नी के पास घर लौटता है मगर शहर की वह पत्नी ग्रामीण पत्नी की तरह शहर में ही आंसू नहीं बहाती रहती बल्कि उसका पता पूछते-पूछते उसके बेटे के साथ गांव तक आ धमकती है। अंतत:दोनों पत्नियां सगी बहनों की तरह रहने लगती हैं। उस समय गांव से शहर आने वाले युवक अक्सर किसी दूसरी औरत के मोह में फंस जाते थे। कुछ लोग तो शहर में ही बस जाते थे। इस वेदना को उनका यह नाटक बहुत संजीदगी से प्रस्तुत करता था, अत:इसे लोग बहुत चाव से देखते थे।

प्रख्यात साहित्यकार और शेक्सपियर के नाटकों के आधिकारिक विद्वान राजेंद्र कॉलेज छपरा के प्राचार्य मनोरंजन प्रसाद सिन्हा ने उन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर कहा। भिखारी ठाकुर शेक्सपियर की तरह नाटककार और गीतकार दोनों थे। शेक्सपियर के नाटकों में भी कुछ कुछ प्रसंगों में गीत पाए जाते हैं जो कथा को गति देने के साथ साथ रोचक भी बनाते हैं। भिखारी ठाकुर ने भी अनजाने में उसी शैली का अनुकरण किया। उन्हें नाटक करने के लिए बहुत दूर दूर से बुलावा आया। आसपास के गांवों कस्बों के साथ-साथ पटना, बनारस, कोलकाता, असम, नेपाल और सिंगापुर तक वे अपने कला के प्रदर्शन के लिए निमंत्रित किये गए। अपने जमाने के नामी समीक्षकों और कलाकारोेंं का उन्हें भरपूर प्रेम और सराहना मिली। नाटककार जगदीशचंद्र माथुर और प्रख्यात लेखक राहुल सांकृत्यायन जैसी विभूतियों ने उनके नाटकों को आम दर्शकों के साथ बैठकर देखा।

18 दिसंबर 1887को कुतुबपुर(छपरा,बिहार)में जन्मे भिखारी ठाकुर का देहांत अपने गांव में ही10 जुलाई 1971को 84 वर्ष की अवस्था में हो गया। अपनी मृत्यु के बारे में उन्होंने अपनी एक पुस्तक में कहा था

अब ही नाम भईल बा थोरा

जब ई छूट जाई तन मोरा

तेकरा बाद पचास बरीसा

तेकरा बाद बीस दस तीसा

तेकरा बाद नाम होई जइहन

पंडित कवि सज्जन जस गइहन

नइखीं पाट पर पढ़ल भाई

गलती बहुत लउकते जाई।

(अभी तो थोड़ा बहुत नाम हुआ है। जब मैं नहीं रहूंगा, उसके 100 वर्षों बाद मेरा बहुत नाम होगा। विद्वान कवि और सज्जन मेरा यश गाएंगे। मैंने विधिवत् पढ़ाई नहीं की है, इसलिए मेरी कृतियों में बहुत ही गलतियां दिखाई देंगी।)

भिखारी ठाकुर की भविष्यवाणी सत्य साबित हो रही है। दिन ब दिन उनकी प्रासंगिकता बढती ही जा रही है। फिलहाल भोजपुरी फिल्मों और एलबमों में काम करने वाले लोगों को उनसे प्रेरणा लेते हुए यह चिंतन करना चाहिए कि बिना अश्लील हुए किस तरह ऐतिहासिक हुआ जा सकता है।

                                                                                                                                                                             रासबिहारी पाण्डेय 

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