वामपंथी वैचारिक लड़ाई का व्यापक रणक्षेत्र

वामपंथियों ने समूचे भारतवर्ष को एक वैचारिक युद्ध क्षेत्र में बदल दिया है। वे संघ की सनातन संस्कृति को आगे ले जाने वाली नीतियों को लेकर हमेशा मुखर रहते हैं तथा उन्हें देश का लोकतंत्र खतरे में नजर आने लगता है। इन देश विरोधी प्रवृत्तियों का पोषण नेहरू और इंदिरा के राज में ही शुरू हो गया था।

राहुल गांधी की कंटेनर यात्रा शुरू है। इस यात्रा को उन्होंने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ यह नाम दिया है। इस नामकरण के साथ मन में एक प्रश्न निर्माण होता है। पिछले कुछ वर्षों में, क्या भारत कभी बिखरा है? इसका उत्तर है, भारत पूर्व में कभी नहीं था इतना सशक्त हुआ है फिर भारत जोड़ो यात्रा का मकसद क्या है? सभाओं में भाषण देते हुए वे कहते हैं कि आरएसएस तथा भाजपा की विचारधारा से देश को खतरा है। वह खतरा कौन सा है, बताते हुए वे कहते हैं की प्रजातंत्र खतरे में है, देश का संविधान खतरे में है तथा देश का भाईचारा खतरे में है।

राहुल गांधी की बात कोई भी गम्भीरता से नहीं लेता। यह यदि सत्य भी हो तो भी उनके द्वारा उपस्थित किए गए प्रश्न केवल उन तक ही सीमित नहीं है। हम यह भी कह सकते हैं कि यह विषय उनके नहीं  ही है। वह मात्र तोतारटंत से अधिक कुछ भी नहीं है। यह विषय वामपंथी विचारधारा की उपज है। वामपंथी विचारधारा यानी क्या? यह थोड़ा स्पष्ट करूंगा। वामपंथी विचारधारा में कम्युनिस्ट, समाजवादी, सेक्यूलर, परिवर्तनवादी, प्रगतिशील, बुद्धिवादी, व्यक्तिवादी इस प्रकार की विचारधारा के लोग शामिल हैं। इन सब को मिलाकर यह एक गुट

का निर्माण करता है जिन्हें हम वामपंथी कहते हैं। यह सब गुट संस्थापक रूप से भले ही एक ना हों परंतु विचारधारा के रूप में वे एकजुट हैं। इस गुट के पास मानवबल भले ही ज्यादा ना हो परंतु बुद्धिबल प्रचंड है। इस बुद्धि बल के आधार पर उन्होंने देश के लिए एक विषय सूची तैयार कर रखी है।

इस सूची के अनुसार आरएसएस की विचारधारा और गुट की विचारधारा में निरंतर संघर्ष है। इस संघर्ष के क्षेत्र वामपंथी तैयार करते हैं। कुछ विषयों को उन्होंने अपने आप  स्वीकार कर लिया है। वे क्षेत्र इस प्रकार हैं :-

1) संघ विचार प्रतिगामी है, इस लिए देश के लिए खतरा है।

2) संघ के विचार साम्प्रदायिक हैं। संघ की विचारधारा मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध तथा प्रकृति पूजकों के विरुद्ध है। इस विचारधारा का प्रभाव बढ़ने पर हिंदू छोड़कर सभी धर्मों का अस्तित्व संकट में आ जाएगा। वे शब्द प्रयोग करते हैं कि उनका ’प्रोग्रोम’ हो जाएगा। प्रोग्रोम अर्थात नरसंहार।

3) संघ की विचारधारा दलित विरोधी है। संघ को समानता मान्य नहीं है। संघ चाहता है की अस्पृश्यता कायम रहे। संघ की विचारधारा

स्त्री दासता को कायम रखते हुए पुरुष प्रधान तथा विषमतामूलक है।

4) वामपंथी विचारधारा के लोग एक शब्द प्रयोग करते हैं। ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ यह वह शब्द है। आइडिया ऑफ इंडिया यानी भारत नामक देश का जन्म सन 1947 में हुआ। उसके पहले हम पिछड़े हुए थे। 1947 के बाद विज्ञाननिष्ठ और बुद्धिवाद पर आधारित समाज रचना निर्मित करने का काम शुरू हुआ।

5) हमें सम्पूर्ण रूप से नए भारत का निर्माण करना है। भूतकाल को भूलकर नया इतिहास रचना है। ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी, नए दौर में लिखेंगे मिलकर नई कहानी….’, सिनेमा के इस गीत में आइडिया ऑफ इंडिया के विचारों की छाप है।

राहुल गांधी कितने बुद्धिमान हैं, यह उनके आज तक के राजनीतिक प्रवास से देखा जाए, तो वह निरंक है। परंतु वामपंथियों द्वारा रचित तोतारटंत करने में वे माहिर हैं, इसमें कोई शंका नहीं है। उन्हें जब जब समय मिलता है तब तब वे स्वातंत्र्यवीर सावरकर पर असत्य आरोप लगाते रहते हैं। संघ पर भी वे इसी प्रकार आरोप लगाते रहते हैं। इस सम्बंध में उनके ऊपर कुछ मुकदमे भी चल रहे हैं। परंतु राजपुत्र होने के कारण वे मुकदमों से नहीं डरते।

वामपंथी विचारकों ने यह जो वैचारिक लड़ाई शुरू की है उसका रणक्षेत्र भी व्यापक है। सिनेमा, नाटक, कविता, कथा, उपन्यास, वैचारिक लेखन, सेवा कार्य ,सेवा कार्य हेतु कई प्रकार के एनजीओ, मजदूर संगठन, बुद्धिवादी संगठन, वकील-प्राध्यापक संगठन, राजनीतिक दल, नक्सलवादी, ऐसे सभी क्षेत्रों में वामपंथी हावी हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के पहले से वे इन सब क्षेत्रों में अत्यंत सक्रिय हैं। पंडित नेहरू के कार्यकाल में इस विचारधारा को राजनीतिक प्रश्रय मिला। इसके कारण केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार के सभी प्रमुख मंत्रालय में वामपंथियों की भरमार हो गई। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में कार्डधारी कम्युनिस्टों ने कांग्रेस में प्रवेश किया। जो-जो मौके की जगह थी, उस पर उन्होंने कब्जा कर लिया। सभी क्षेत्रों में उन्होंने अपनी पैठ जमाई।

वामपंथी विचारों का रणक्षेत्र जैसा व्यापक है वैसे ही विचारों की इस रणभूमि में वामपंथी अत्यंत निर्दयी होते हैं। संघ विचारों के किसी भी व्यक्ति को मंच ना मिले, उसे पुरस्कार ना मिले, उसका सम्मान ना हो, उसके द्वारा निर्मित साहित्य कितना भी अच्छा हो फिर भी उसकी उपेक्षा करना, कलाकार, अभिनेता की उपेक्षा कर उसे सड़ा डालना, जो साहित्य हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति, हिंदू देवी देवता का मजाक उड़ाते हों ऐसे साहित्यकारों को ज्ञानपीठ पुरस्कार, सरस्वती पुरस्कार देकर सम्मानित करना यह कार्य वे प्राथमिकता से करते हैं। ‘हिंदू’ तथा ‘सनातन’ ये दोनों ग्रंथ इसके ज्वलंत उदाहरण है। जो लेखक हिंदू संस्कृति अर्थात भारतीय संस्कृति का गौरव करेंगे वे इस वामपंथी मंच पर अस्पृश्य हैं। कल भी यही परिस्थिति थी और आज ही यह परिस्थिति विद्यमान है।

इस बौद्धिक लड़ाई में ये वामपंथी सेनापति जातियों का बहुत कुशलतापूर्वक उपयोग करते हैं। ब्राह्मणद्वेष सूत्र सभी में समान है। इनके सेनापति हैं श्री शरद पवार। पुरंदरे ब्राह्मण हैं इसलिए उनका बहिष्कार, सुधीर फड़के ब्राह्मण थे इसलिए उनको पीठ दिखाना, इतना ही नहीं तो समर्थ रामदास स्वामी ब्राह्मण थे इसलिए उन पर गंदे आरोप लगाए जाते हैं। ब्राह्मण द्वेष की यह छूत की बीमारी अब तमिलनाडु एवं उत्तर प्रदेश में भी ‘खेला’ कर रही है। ‘ब्राह्मण कितना भी श्रेष्ठ क्यों ना हो परंतु उसे माना जाए अत्यंत भ्रष्ट’ – यह वामपंथियों का घोषवाक्य है। प्रशासन में कितने ब्राह्मण हैं, कितने ब्राह्मण प्रधान मंत्री पद पर पहुंचे, कितने ब्राह्मण मुख्य मंत्री बने, कितने ब्राह्मण आईएएस अधिकारी हैं इनकी सूची बार-बार जारी करते हैं। जातिवाद ही उनका टॉनिक है।

ये लोग संघ पर ब्राह्मणवादी होने का आरोप लगाते हैं। कितने ब्राह्मण संघ के सरसंघचालक बने, कितने पदाधिकारी ब्राह्मण हैं, संघ विचारधारा के कितने लोग सहयोगी संगठनों में पदाधिकारी हैं, इसकी भी जानकारी उनके पास होती है। दलित, सरसंघचालक क्यों नहीं हो सकता, ऐसा अनेक बार मुझसे पूछा जाता है। मैंने उसका समर्पक उत्तर भी दिया है।

यह वामपंथी गुट बहुत ज्यादा असहिष्णु है। संघ विचारधारा वाले लोगों को जीवित नहीं रखना, यह उनका मत है। जब अवसर आता है तभी यह लोग अपने मन की बात कृति रूप में सामने लाते हैं। गांधी हत्या के बाद देशभर में जो हिंसा हुई उसमें सैकड़ों स्वयंसेवकों ने अपना जीवन बलिदान दिया। उनके घरद्वार सब नष्ट कर दिए गए। इस हिंसाचार में कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग अग्र पंक्ति में थे। दीर्घकाल से केरल में उनकी सत्ता है। केरल में अब तक कई संघ स्वयंसेवक तथा कार्यकर्ताओं की क्रूर हत्या हुई है। बंगाल में 33 वर्ष वामपंथी सत्ता में थे। वहां हुई हत्याओं पर कई पुस्तकें प्रकाशित हुई है।

‘द कश्मीर फाइल्स’ यह सिनेमा भी प्रदर्शित हुआ। उसके बाद भारत की जनता को समझ में आया कि कश्मीर में हिंदुओं पर किस प्रकार का अत्याचार हो रहा था। वामपंथी आंदोलन के मित्र फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, इन सबों ने इस हत्याकांड की अनदेखी की। किसी भी वामपंथी चिंतक ने इस हत्याकांड का कथानक तैयार नहीं किया। किसी ने भी उसका प्रचार नहीं किया, उसकी निंदा नहीं की परंतु कश्मीर फाइल्स सिनेमा प्रदर्शित होने के बाद वामपंथी उसका विरोध या बुराई करने के लिए सम्बद्ध हो गए और चित्रपट पर टूट पड़े। ऐसे सब आइडिया ऑफ इंडिया वाले लोग अपने शस्त्रों के साथ अर्थात बौद्धिक, शारीरिक तथा शस्त्रों के साथ युद्ध क्षेत्र में संघ विचारधारा के विरोध में खड़े हैं।

इन सबको संघ से लड़ना है। यहां संघ यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम की संस्था नहीं है। संघ संस्थापक ने अत्यंत स्पष्ट शब्दों में बताया था कि हमें संघ (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के नाम को ऊंचाई पर नहीं ले जाना है। हमें तो भारत माता को वैभव सम्पन्न बनाना है। वह हमारा कार्य है। इसीलिए इन सबके साथ संघ को लड़ना पड़ेगा। इन सब के साथ लड़ना, मतलब क्या? यह समझना पड़ेगा।

संघ यानी स्वयंसेवक। स्वयंसेवकों को वामपंथी विचारधारा के साथ लड़ना है। स्वयंसेवक यानी समाज। स्वयंसेवक भी समाज का एक घटक है। समाज को अपने साथ जोड़ कर इस विचारधारा के विरुद्ध संघ को लड़ना है। यह लड़ाई स्वयंसेवकों ने नहीं पुकारी है। यह लड़ाई इसके ऊपर थोपी गई है। उसे तो यह सिखाया गया है कि किसी का विरोध न करते हुए हमें संघ कार्य करना है। हमें ‘सर्वेशाम अविरोधेन’ काम करना है। हमारा कोई शत्रु नहीं, पूरा समाज हमारा मित्र है, यह भावना हमेशा मन में रखनी है। स्वयंसेवकों को यह सीख देने के बाद भी युद्ध के मैदान में खड़े हुए, कौरव, कंस, रावण, तैमूर लंग, नादिर शाह, अफजल खान, औरंगजेब के वंशज हैं। आप अच्छे हैं या बुरे इससे उन्हें कोई लेना देना नहीं है। उनकी दृष्टि में हम काफिर, हिदन, शोषक, जमींदारों के चट्टे बट्टे हैं। आपको समाप्त करना उनके लिए पवित्र तथा प्रगतिशील कार्य है। ऐसी मानसिकता वालों से हमें लड़ना है।

लड़ाई हमारी चुनौती पर हो रही हो या हम पर लादी गई हो, लड़ाई तो हमें लड़नी ही होगी। इसलिए शस्त्रसज्य होना ही पड़ता है। जिन शस्त्रों से वामपंथी हमसे लड़ रहे हैं, उनसे अधिक प्रभावी शस्त्रों से हमें लड़ना पड़ेगा। इसलिए अगले लेख में लड़ाई को लड़ने के लिए बौद्धिक शस्त्र कौन से हो सकते हैं और वह किस प्रकार हमको मिले, इसका विचार हम लोग करेंगे।

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