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संविधान के प्रति आरएसएस का दृष्टिकोण

संविधान के प्रति आरएसएस का दृष्टिकोण

by हिंदी विवेक
in ट्रेंडींग, देश-विदेश, मीडिया, युवा, राजनीति, विशेष, संघ, संस्कृति, सामाजिक, साहित्य
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का प्रभावशाली सांस्कृतिक संगठन है। उसके विचार एवं गतिविधियों से समाज का मानस बनता और बदलता है। इसलिए अकसर विभिन्न विषयों को लेकर चर्चा चलती है कि उन विषयों पर संघ का विचार क्या है? कई बार ऐसा भी होता है कि भारतीयता विरोधी और विदेशी विचार से अनुप्राणित समूह भी राष्ट्रीय प्रतीक और संघ के संदर्भ में मिथ्याप्रचार कर देते हैं। दोनों ही कारणों से बौद्धिक जगत से लेकर आम समाज में भी संघ के दृष्टिकोण को जानने की उत्सुकता रहती है।

भारतीय संविधान भी ऐसा ही विषय है, जिस पर संघ के विचार सब जानना चाहते हैं। दरअसल, भारत विरोधी ताकतों ने अपने समय में यह मिथ्याप्रचार जमकर किया है कि आरएसएस संविधान विरोधी है? वह वर्तमान संविधान को खत्म करके नया संविधान लागू करना चाहता है। मजेदार बात यह है कि गोएबल्स की अवधारणा में विश्वास रखनेवाले गिरोहों ने इस तरह के झूठ की बाकायदा एक पुस्तिका भी तैयार करा ली, जिस पर वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का चित्र एवं नाम प्रकाशित किया गया और लिखा गया था- नया भारतीय संविधान। संघ की ओर से इस दुष्प्रचार के विरुद्ध पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी गई, उसके बाद से यह मिथ्याप्रचार काफी हद तक रुक गया। और भी अनेक प्रकार के भ्रम खड़े करने के प्रयास संघ विरोधी एवं भारत विरोधी ताकतों की ओर से किए गए हैं लेकिन बिना पैर के झूठ संघ की प्रामाणिक एवं देशभक्त छवि के कारण समाज में टिकते ही नहीं हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अब तक की यात्रा देखकर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि यह संगठन राष्ट्रभक्ति का पर्याय है। अपने राष्ट्र और राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति संघ की पूर्ण निष्ठा एवं सम्मान है। संविधान के संदर्भ में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष पदाधिकारी अनेक बार सद्भावना प्रकट कर चुके हैं। वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने तो 19 जनवरी, 2020 को बरेली के रुहेलखंड विश्वविद्यालय में ‘भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण’ विषय पर अपने व्याख्यान में स्पष्ट कहा है- “संघ का कोई एजेंडा नहीं है, वह भारत के संविधान को मानता है। हम शक्ति का कोई दूसरा केंद्र नहीं चाहते। संविधान के अलावा कोई शक्ति केंद्र होगा, तो हम उसका विरोध करेंगे”। यानी संघ न केवल संविधान में पूर्ण विश्वास करता है अपितु उसके मुकाबले अन्य किसी व्यवस्था के खड़ा होने का विरोधी है। इससे अधिक स्पष्ट और मत क्या हो सकता है?

इसी तरह वर्ष 2018 में 17 से 19 सितंबर तक इसी शीर्षक से आयोजित व्याख्यानमाला में उन्होंने कहा कि “हमारे प्रजातांत्रिक देश में, हमने एक संविधान को स्वीकार किया है। वह संविधान हमारे लोगों ने तैयार किया है। हमारा संविधान, हमारे देश की चेतना है। इसलिए उस संविधान के अनुशासन का पालन करना, यह सबका कर्तव्य है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसको पहले से मानता है”। संघ के इतिहास में यह पहली व्याख्यानमाला थी, जिसमें सभी प्रकार की विचारधाराओं के प्रमुख लोगों को आमंत्रित किया गया था और उनके समक्ष संघ के सर्वोच्च अधिकारी ने अपना दृष्टिकोण रखा था। सरसंघचालक डॉ. भागवत न केवल यह बता रहे हैं कि संविधान के अनुशासन का पालन संघ पहले से करता आया है अपितु वे अन्य से भी आग्रह कर रहे हैं कि संविधान का पालन करना सभी अपना कर्तव्य समझें। नागरिक अपने संविधान के मर्म को जानें, इसके लिए सरसंघचालक आग्रह करते हैं कि हमें अपने बच्चों को जीवन के प्रारंभिक चरण में ही संविधान पढ़ाना चाहिए। (हिन्दी मासिक पत्रिका -विवेक के साथ साक्षात्कार– 9 अक्टूबर, 2020)

संविधान के प्रति नागरिक बोध बढ़े इसके लिए सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का आग्रह इतना अधिक है कि दिल्ली में आयोजित व्याख्यानमाला ‘भविष्य का भारत’ में दूसरे दिन अपने उद्बोधन के दौरान वे संविधान की प्रस्तावना को पूरा पढ़कर सुनाते हैं और फिर उस पर चर्चा करते हैं। बहरहाल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस विचार को लेकर 1925 से अब तक चला है, वही विचार संविधान के केंद्र में है- राष्ट्रीय एकात्मता। समाज में बंधुत्व, राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता की भावना बढ़े, यही संविधान की उद्देशिका में है और यही संघ का उद्घोष है। यह बात हम सब भी जानते हैं और संघ भी मानता है कि भारत की संस्कृति हम सबको जोड़ती है। इसलिए संघ भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की समाज में स्थापना के प्रयत्न करता है। भारतीय मूल्यों का अनुपालन जितना अधिक बढ़ेगा, संविधान का उद्देश्य उतना ही अधिक पूर्णता की ओर बढ़ेगा।

इस संदर्भ में 9 जून, 2016 को नागपुर में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग तृतीय वर्ष के समापन समारोह में डॉ. मोहन भागवत के संबोधन की इस बात को याद रखना चाहिए- “इस देश की संस्कृति हम सब को जोड़ती है, यह प्राकृतिक सत्य है। हमारे संविधान में भी इस भावनात्मक एकता पर बल दिया गया है। हमारी मानसिकता इन्हीं मूल्यों से ओतप्रोत है”। सरसंघचालक डॉ. भागवत यह भी याद दिलाते हैं कि हमने केवल राजनीतिक एवं आर्थिक समता प्राप्त करने के लिए संविधान का निर्माण नहीं किया। अपितु  हमने 26 जनवरी, 1949 को अपने संविधान को इसलिए स्वयं को आत्मार्पित किया ताकि समाज में राजनीतिक और आर्थिक समता के साथ सामाजिक समता भी आए। इसलिए हमें संविधान के पूर्ण लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए। इस हेतु संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहब अंबेडकर की चेतावनी का स्मरण कराते हुए 5 अक्टूबर, 2022 को विजयादशमी के उत्सव में सरसंघचालक डॉ. भागवत ने कहा है- “संविधान के कारण राजनीतिक तथा आर्थिक समता का पथ प्रशस्त हो गया, परन्तु सामाजिक समता को लाये बिना वास्तविक एवं टिकाऊ परिवर्तन नहीं आयेगा, ऐसी चेतावनी पूज्य डॉ. बाबासाहब अंबेडकर जी ने हम सबको दी थी”।

हमारा लक्ष्य क्या है, हम उस ओर कैसे आगे बढ़ सकते हैं, देश की नीतियां क्या होनी चाहिए? इन सब बातों को लेकर स्पष्टता प्राप्त करने के लिए भी सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने संविधान के आश्रय में जाने का सुझाव देते हैं। नागपुर में होनेवाले विजयादशमी के उत्सव में 3 अक्टूबर, 2014 को अपने संबोधन में उन्होंने कहा है- “ऐसी नीतियां चलाकर, देश के जिस स्वरूप के निर्माण की आकांक्षा अपने संविधान ने दिग्दर्शित की है, उस ओर देश को बढ़ाने का काम करना होगा”। अकसर शासन-प्रशासन के किसी निर्णय या समाज में घटनेवाली किसी घटना पर हम उतावलेपन में अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। कई बार ऐसा होता है कि उस प्रतिक्रिया से सामाजिक ताने-बाने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विरोध या आक्रोश व्यक्त करते समय राष्ट्रीय एकात्मता, पंथ, प्रांत, भाषा आदि विविधताओं का सम्मान बना रहे इसके लिए वे आग्रह करते हैं कि प्रतिक्रिया संविधान की मर्यादा के दायरे में रहे।

इसके साथ ही 25 अक्टूबर, 2020 को विजयादशमी के अपने संबोधन में सरसंघचालक डॉ. भागवत ने संविधान का खोल ओढ़नेवाले सियारों से भी सावधान किया है। वे कहते हैं- “दुर्भाग्य से अपने देश में इन बातों (राष्ट्रीय एकात्मता, पंथ, प्रांत, जाति, भाषा आदि विविधताओं) पर प्रामाणिक निष्ठा न रखने वाले अथवा इन मूल्यों का विरोध करने वाले लोग भी, अपने आप को प्रजातंत्र, संविधान, कानून, पंथनिरपेक्षता आदि मूल्यों के सबसे बड़े रखवाले बताकर, समाज को भ्रमित करने का कार्य करते चले आ रहे हैं। 25 नवम्बर, 1949 के संविधान सभा में दिये अपने भाषण में श्रद्धेय डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने उनके ऐसे तरीकों को ‘अराजकता का व्याकरण’ कहा था। ऐसे छद्मवेषी उपद्रव करने वालों को पहचानना एवं उनके षड्यंत्रों को नाकाम करना तथा भ्रमवश उनका साथ देने से बचना समाज को सीखना पड़ेगा”। संविधान को बचाने के लिए समाज में यह जागरूकता आवश्यक है कि वास्तव में संविधान एवं लोकतंत्र का विरोधी कौन है? वे कौन से समूह हैं, जो भारत के विचार में आस्था न रखकर देश के बाहर से प्रेरणा पाते हैं? स्मरण रखें, जिनकी जड़ें भारत में हैं और जो भारतीय संस्कृति से ही प्रेरणा पाते हैं, वे भारत के सभी राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति स्वाभाविक ही पूर्ण निष्ठा एवं श्रद्धा रखते हैं।

– लोकेन्द्र सिंह (लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।)

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