मृत देह को दक्षिणोत्तर क्यों रखते हैं ?

जीव की प्रेतवत् अवस्था, पंचप्राणों एवं उपप्राणों के स्थूल देह संबंधी कार्य की समाप्ति दर्शाती है । जिस समय जीव निष्प्राण हो जाता है, उस समय जीव के शरीर में तरंगों का वहन लगभग थम सा जाता है व उसका रूपांतर ‘कलेवर’ में होता है । ‘कलेवर’ अर्थात स्थूल देह की किसी भी तरंग को संक्रमित करने की असमर्थता दर्शाने वाला अंश । ‘कलेवर’ अवस्था में देह से निष्कासन योग्य सूक्ष्मवायुओं का वहन बढ जाता है ।

मृत देह को दक्षिणोत्तर रखने से कलेवर की ओर दक्षिणोत्तर में भ्रमण करने वाली यम तरंगें आकर्षित होती हैं और मृत देह के चारों ओर इन तरंगों का कोष तैयार हो जाता है । इससे मृत देह की निष्कासन योग्य सूक्ष्म वायुओं का अल्प कालावधि में विघटन होता है । निष्कासन योग्य सूक्ष्म वायुओं का कुछ भाग मृत देह की नासिका व गुदा (मलद्वार) से वातावरण में उत्सर्जित होता है । इस प्रक्रिया के कारण, निष्कासन योग्य रज-तमात्मक दूषित वायुओं से मृत देह मुक्त हो जाता है, जिससे वातावरण में संचार करने वाली अनिष्ट शक्तियों के लिए देह को वश में करना बहुत कठिन हो जाता है । इसीलिए मृतदेह को दक्षिणोत्तर रखा जाता है ।

व्यक्ति की मृत्यु होने के उपरांत उस की देह घर में रखते समय उसके पैर दक्षिण दिशा की ओर क्यों करते हैं ?

दक्षिण यम दिशा है । व्यक्ति का प्राणोत्क्रमण होते समय उसके प्राण यम दिशा की ओर खींचे जाते हैं । देह से प्राण बाहर निकलने के उपरांत अन्य निष्कासन-योग्य वायु का देह से उत्सर्जन प्रारंभ होता है । इस उत्सर्जन की तरंगों की गति तथा उनका आकर्षण/खींचाव भी अधिक मात्रा में दक्षिण दिशा की ओर होता है ।

व्यक्ति की कटि के निचले भाग से (कमर के नीचे का भाग) अधिक मात्रा में वासनात्मक तरंगों का उत्सर्जन होता रहता है, वह अधिक उचित पद्धति से हो, इसके लिए यम तरंगो के वास्तव्य वाली दक्षिण दिशा की ओर ही उस व्यक्ति के पैर रखने का शास्त्र है । ऐसा करने से यम तरंगों की सहायता प्राप्त होकर व्यक्ति की देह से उसके पैर की दिशा से अधोगति से अधिकाधिक निष्कासन-योग्य तरंगे खिंचकर इस वायु का योग्य प्रकार से अधिकतम मात्रा में उत्सर्जन होता है जिससे चिता पर रखने से पूर्व देह अधिकतम मात्रा में रिक्त हो जाती है । यह दिशा अधिकाधिक स्तर पर देह से बाह्य दिशा में विसर्जित होने वाली निष्कासन-योग्य वायु के प्रक्षेपण के लिए पूरक होती है ।

यम (दक्षिण) दिशा में यम देवता का अस्तित्व होता है । इसलिए उन के सान्निध्य में देह से प्रक्षेपित होने वाली निष्कासन योग्य वायु के उत्सर्जन के उपरांत विलिनीकरणात्मक प्रक्रिया अधिकाधिक प्रमाण में दोष विरहित करने का प्रयास किया जाता है, अन्यथा निष्कासन-योग्य वायु के उत्सर्जन के लिए संबंधित दिशा पूरक न रखने पर, ये तरंगें घर में अधिक समय तक घनीभूत होने की संभावना होती है; इसलिए यमदिशा की ओर इस निष्कासन-योग्य तरंगों का वहन होने के लिए मृत व्यक्ति के पैर घर में दक्षिण दिशा की ओर रखने की पद्धति है ।’
मृत देह घर में रखते समय मृतक के पैर दक्षिण दिशा में रखने का शास्त्र ज्ञात न होने के कारण वर्तमान में कुछ स्थानों पर घर में मृतदेह रखते समय मृतक के पैर उत्तर की ओर रखने का अयोग्य कृत्य किया जाता है ।
मृतदेह को श्मशान में ले जाने के उपरांत मृतदेह चिता पर रखते समय मृतक के पैर उत्तर दिशा में रखना आवश्यक होता है ।

अंतिम संस्कार के समय कपाल क्रिया का सच

हम सभी ने शमशान में अंत्येष्टि के समय देखा है कि मृतक व्यक्ति की चिता जलने के कुछ समय उपरांत सिर पर लकड़ी का डंडा मारा जाता है।

शव को मुखाग्नि देने के करीब आधे घंटे बाद जब शव की चमड़ी और मांस का ज्यादातर भाग जल चुका होता है, तब एक बांस में लोटा बांधकर शव के सिर वाले हिस्से में और घी डाला जाता है।

जिससे की सिर का कोई हिस्सा जलने से न बच जाए। इसे कपाल क्रिया कहते हैं। गरुड़ पुराण की मान्यता अनुसार अगर सिर या दिमाग का कोई हिस्सा जलने से रह जाए तो इंसान को अगले जन्म में पिछले जन्म की बातें याद रह जाती हैं।

इसीलिए अच्छी तरह से जलाया जाता है। अगर पिछले जन्म में इंसान की मृत्यु किसी दुखद कारण की वजह से हुई है तो नए जन्म में उसको याद रखने से मनुष्य फिर दुःखी हो जाएगा और लगातार उसके दिमाग में पूर्व जन्म की बातें और अपने करीबियों का दुःख घूमता रहेगा।

इस बात में मतभेद यह है कि कपाल क्रिया करने से इस जन्म की यादाश्त भूल कर आत्मा अगले जन्म को स्वीकार कर लेती है। दूसरा मतभेद यह है कि कपाल क्रिया करने से सहस्रार चक्र खुल जाता है, और आत्मा ज्ञान मार्ग से मोक्ष को प्राप्त होति है।

पहला मत को पूर्णतया सत्य नही कहा जा सकता है, यादाशत आत्मा के साथ रहती ही है, चाहे भले ही अगले जन्म में वह उसे भूल जाए, परंतु पिछले सभी जन्मों की याद आत्मा या अवचेत्तन मन में हमेशा रहती है। इसलिए कपाल क्रिया का इससे कोई संबंध नहीं।

जहाँ तक दुसरे मत का सवाल है, बहुत हद तक वह सत्य है। सहस्रार चक्र से आत्मा के गमन से ज्ञान मार्ग से आत्मा को मोक्ष मिल सकता है। लेकिन तभी जब आत्मा सहस्रार चक्र से निकले। यहाँ तो आत्मा पहले ही शरीर छोड़ चुकी है, सिर्फ शव पड़ा है आपके सामने। फिर क्यों किया जाए कपाल क्रिया?

बौद्ध धर्म में ख़ास तौर से तिब्बत के कुछ लामा मंत्रो से मृत्यु शय्या पर पड़े कुछ लोगो की आत्मा सहस्रार चक्र से निकालने का दावा करते है। यह एक बहुत बड़ा व्यवसाय भी बन गया है जिसके लिए लाखों रूपए भी लिए जाते है। सनातन धर्म में भी समाधि द्वारा मृत्यु से पूर्व आसन लगा कर आत्मा को सहस्रार चक्र से निकाला जाता है, लेकिन यह एक योगी ही कर सकता है, आम आदमी नहीं।

फिर कपाल क्रिया क्यों? और क्या यह जरूरी है?

जी, यह जरूरी है। यह कर्म कांड का हिस्सा तो नहीं है, लेकिन इसे बाद में कर्म कांड का हिस्सा बना दिया गया। इसका कारण थे दुष्ट तांत्रिक। बहुत से दुष्ट तांत्रिक शमशान से कपाल इखट्टे कर लेते है। इन्ही कपाल द्वारा मृत इंसान की आत्मा को प्रेत बना कर अपने काम निकाले जाते है। इसलिए ही अघोरियों ने इस दुष:क्रिया को रोकने के लिए यह प्रथा चलायी की सभी की कपाल क्रिया कर दी जाय। जब कपाल ही नहीं रहेगा तो उससे कोई दुष:क्रिया नहीं होगी। यह कारण किसी को बताया नहीं जाता, अन्यथा कोई इसे मानेगा कोई नहीं। परंतु मानने या न मानने से तांत्रिकों को तो कोई फर्क नहीं पड़ता न। समय समय पर ऐसे मामले आते ही है जहाँ कोई अच्छी आत्मा को भी प्रेत बना कर गलत कार्य करवाये जाते है। इसलिए यह क्रिया जरूरी है

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