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स्वयंसेवकत्व का सामाजिक व सांस्कृतिक दायित्व

Meerut: Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) volunteers sit in queues during Path-Sanchalan," or Route March, in Meerut, Sunday, Oct 28, 2018. (PTI Photo) (PTI10_28_2018_000067B)

स्वयंसेवकत्व का सामाजिक व सांस्कृतिक दायित्व

by हिंदी विवेक
in विशेष, संघ, संस्कृति, सामाजिक
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स्वयंसेवक बहुत बड़ी संख्या में गृहस्थाश्रमी हैं। देश के हर अंचल में व जन जीवन के हर क्षेत्र में विद्यमान हैं। ये अपने-अपने परिवारों को सामाजिक व सांस्कृतिक संस्कारों का केन्द्र बनाने की स्थिति में हैं। फलस्वरूप हम डॉक्टर जी की अपेक्षा के अनुसार स्वयं चौबीसों घंटे स्वयंसेवक के रूप में कार्यरत होकर राष्ट्र के नव-निर्माण का तथा युगानुकूल समाज-रचना का ऐतिहासिक कार्य करने में जुट सकते हैं। अपने परिवार के सभी छोटे-बड़े, महिला-पुरुष सदस्यों को पास-पड़ोस में रहने वालों के प्रति, अपने ही परिवार के सदस्य मानकर, व्यवहार करने की दिशा में गतिमान कर सकते हैं। इससे संघ स्वयंसेवकों के परिवारों में परिवार के सदस्यों को समाज के लिए पूरक बनने की प्रक्रिया में जुटाना प्रारम्भ होगा। परिणामतः हर एक स्वयंसेवक का परिवार सहज में ही सामाजिक परिवर्तन का केन्द्र बनेगा ।

अर्थार्जन प्रत्येक परिवार की आवश्यकता रहती है। समाज की एक न एक आवश्यकता पूर्ण किये बिना अर्थार्जन संभव नहीं होता। अपनी क्षमतानुसार समाज की एकाध भी आवश्यकता पूर्ण करना समाज सेवा का ही कार्य है। अतः अर्थार्जन को समाज सेवा का प्रसाद मानकर ग्रहण करने से वृत्ति में बहुत बड़ा अन्तर आ सकता है। अन्तर काम के रूप में नहीं पड़ता किन्तु जीवन के दृष्टिकोण में आता है। नौकरी को, व्यापार को, दुकानदारी को, रिक्शा या टैक्सी चलाने को या कारखाना चलाने को, लेखन-कार्य करने को समाज सेवा का उपकरण मानने की भावना विकसित की गयी तो सहज में ही काम में प्रामाणिकता व जीवन में नैतिकता का प्रभाव बढ़ेगा। निपुणता व काम की गति में कल्पनातीत वृद्धि होगी। सम्मेलनों, प्रस्तावों, प्रदर्शनों व भाषणों से यह उपलब्धि नहीं होगी। अपने परिवार के हर एक सदस्य के यह दृष्टिकोण अपनाकर कार्यरत होने मात्र की आवश्यकता है। यह ही संघ कार्य है । अन्यथा संघ का स्वयंसेवक चौबीसों घंटे स्वयंसेवक है, यह विचार प्रस्तुत करने की डॉक्टर जी आवश्यकता अनुभव नहीं करते ।

छुआछूत या ऊँच-नीच की भावना, प्रचलित कुप्रथाएँ, अन्धविश्वास, कालबाह्य रूढ़ियाँ आदि अपने परिवार से मिटाकर युगानुकूल सामाजिक पुनर्रचना के लिए आवश्यक परम्पराओं का निर्माण अपने परिवारों से प्रारम्भ करना ही चौबीसों घंटे के लिए स्वयंसेवक का दायित्व है। इसीसे चारों ओर फैली निराशा और हताशा तथा निरन्तर बढ़ रही विषमता घटने लगेगी। संघ कार्य समाज का प्राणवायु सिद्ध होगा । युगानुकूल नवरचना का मार्ग प्रशस्त होगा।

साभार : केशव स्मरामि सदा

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