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संविधान की मूल भावना का अंग है यूसीसी

संविधान की मूल भावना का अंग है यूसीसी

by हिंदी विवेक
in जनवरी- २०२३, विशेष, सामाजिक
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समान नागरिक संहिता समय की मांग है क्योंकि किसी धर्म विशेष को विशेषाधिकार दिया जाना संविधान की मूल आत्मा से छेड़छाड़ है। इस पर हो हल्ला मचाने वालों को जानना चाहिए कि बहुत सारे मुस्लिम राष्ट्रों में भी यह व्यवस्था लागू है तथा गोवा में भी यह कानून 1961 से ही लागू है।

समान नागरिक संहिता की बहस एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र मेंं बीजेपी के राज्यसभा सदस्य किरोड़ी लाल मीणा ने यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के लिए प्राइवेट मेंम्बर बिल को पेश किया। जब विपक्ष ने बिल को वापस लेने की मांग की तो राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने उस पर वोटिंग का फैसला किया। ध्वनिमत से हुई वोटिंग में बिल के पक्ष में 63 वोट जबकि विरोध में 23 वोट पड़े। विपक्षी सदस्यों के विरोध पर सरकार ने मीणा का समर्थन करते हुए कहा कि बिल पेश करना उनका अधिकार है। इसी मसले पर अपने एक हालिया टीवी साक्षात्कार में देश के गृहमंत्री अमित शाह ने भी समान नागरिक संहिता के मसले पर भारत की सरकार और बीजेपी के रुख का उल्लेख किया। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि बीजेपी समान नागरिक संहिता लाने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन बहस और चर्चा के बाद। उन्होंने कहा कि जनसंघ के दिनों से ही ये हमारी प्राथमिकताओं में है। साथ ही गृह मंत्री ने यह भी कहा की सिर्फ बीजेपी ही नहीं, संविधान सभा ने भी संसद और राज्यों को उचित समय पर इसे लाने की सलाह दी थी। क्योंकि किसी भी धर्मनिरपेक्ष देश के लिए कानून धर्म के आधार पर नहीं होने चाहिए। यदि देश और राज्य धर्मनिरपेक्ष हैं, तो कानून धर्म पर आधारित कैसे हो सकता है? हर किसी के लिए, संसद या राज्य विधान सभाओं से पारित एक कानून होना चाहिए। समान नागरिक संहिता की आवश्यकता और विरोध के सभी पक्ष को ठीक से समझने के लिए इसको विस्तार से समझना जरूरी है।

आखिर क्या है समान नागरिक संहिता?

समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) का सीधा मतलब देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून का लागू होना है। नागरिक चाहे किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो। समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक और जमीन-जायदाद के बंटवारे, उत्तराधिकार, गोद लेने आदि में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होगा। यूसीसी में किसी भी नागरिक से कोई भेदभाव नहीं है। इसका किसी धर्म से भी कोई लेना देना नहीं है। इस कानून की आत्मा में भारत के संविधान की वो प्रस्तावना निहित है जो समता मूलक समाज की स्थापना के लिए संकल्पित है। संविधान के आर्टिकल 36 से 51 के माध्यम से राज्य को कई मुद्दों पर सुझाव दिए गए हैं। इनमें से आर्टिकल 44 राज्य को सभी धर्मों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने का निर्देश देता है।

यूसीसी से समाप्त होगा कानूनी भेदभाव

समान नागरिक संहिता का मतलब है कि देश के सभी नागरिक चाहे वे किसी भी धर्म के हों, उनके लिए विवाह, तलाक, भरण पोषण, विरासत व उत्तराधिकार, संरक्षक, गोद लेना आदि के बारे में समान कानून होगा। अभी इस बारे में सभी धर्मों के अलग-अलग कानून, पर्सनल लॉ हैं। हिंदुओं का कानून संहिताबद्ध कर दिया गया है लेकिन मुसलमानों में ऐसे मामले शरीयत या पर्सनल ला के मुताबिक तय होते हैं। इन कानूनों में लिंग आधारित समानता भी नहीं है। समान नागरिक संहिता लागू होने से सभी तरह का भेदभाव समाप्त हो जाएगा और सभी धर्मों के अनुयायियों के लिए ऐसे मामलों में समान कानून लागू होगा।

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील अमित कुमार बताते हैं कि समान नागरिक संहिता का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है, यह दीवानी कानून की बात करता है इसलिए इसे धर्म से जोड़ना ठीक नहीं है। वैसे भी पर्सनल ला संविधान के ऊपर नहीं हैं, वे भी संविधान के तहत ही हैं। संविधान धार्मिक क्षेत्र में भी समानता की व्यवस्था स्थापित करता है और इसलिए जो सुधार होंगे वो सभी धर्मों के लिए समान रूप से होने चाहिए। विशेष कर जब समान नागरिक संहिता लिंग आधारित समानता की बात करता है। इसलिए सभी धर्म की महिलाओं को समान रूप से सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए।

कुमार जैसे विशेषज्ञ बताते हैं कि संविधान में मार्गदर्शक सिद्धांत हैं जो समान नागरिक संहिता की बात करता है। अनुच्छेद 44 में जो राज्य शब्द दिया गया है उसमें केंद्र और राज्य दोनों आते हैं। ऐसे में जिन विषयों पर राज्य कानून बना सकता है वहां वह कानून बना कर समानता स्थापित कर सकता है। केंद्र जब चाहे हस्तक्षेप करके पूरे देश के लिए कानून बना सकता है। ये बड़ा नीतिगत विषय है, हर प्रांत में स्थितियां भिन्न- भिन्न हैं इसलिए संसद ये मत बना सकता है कि हम बाद में दखल देंगे। यूसीसी की राह में जो पेंच है उसको भी समझना जरूरी है। अगर संसद समझती है कि वह राज्यों का रुख और राज्य जो व्यवस्था बना रहे हैं, उसे देखे और उसके बाद कोई कदम उठाए तो ठीक है वह ऐसा कर सकती है। पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग वाली छह याचिकाएं दिल्ली हाईकोर्ट में लम्बित हैं। हाईकोर्ट से उन पर केंद्र को नोटिस भी जारी हुआ था और केंद्र सरकार ने पिछले साल ही हाईकोर्ट में अपना जवाब दाखिल कर दिया था, जिसमें इस पर गहनता से अध्ययन की आवश्यकता बताई थी लेकिन कहा था कि यह मामला विधायिका के विचार करने का है, इस पर कोर्ट को आदेश नहीं देना चाहिए। साथ ही मामला विधि आयोग को भेजे जाने का भी हवाला दिया था। फिलहाल ये मामला 22वें  विधि आयोग के पास है। दिल्ली हाईकोर्ट में लम्बित इन याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट स्थानांतरित करने की मांग की गई थी। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में पांच स्थानांतरण याचिकाएं दाखिल हो चुकी हैं, लेकिन अभी तक उन पर सुनवाई का नम्बर नहीं आया है।

देश का वह राज्य जहां प्रभावी है यूसीसी

भारत में केवल गोवा अभी एक मात्र राज्य है, जहां समान नागरिक संहिता  लागू है। गोवा में 1961 से ही यह कानून प्रभावी है। गोवा मुक्ति के पूर्व से ही वहां 1867 का पुर्तगाल सिविल कोड प्रभावी था। यूसीसी के मसले पर देश के तीन राज्य थोड़े आगे बढ़ चुके है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीशों की अध्यक्षता में एक पैनल बनाया गया है, जिसकी सिफारिशों के आधार पर इन राज्यों में यूसीसी का स्वरूप तय होगा।

क्या राज्य सरकार यूसीसी लागू कर सकती है?

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील  बताते हैं कि उत्तराखंड या कोई भी राज्य सरकार समान नागरिक संहिता को विधिसम्मत तरीके से लागू नहीं कर सकती है। संविधान का अनुच्छेद 44 राज्य को समान नागरिक संहिता लागू करने की आजादी देता है, लेकिन अनुच्छेद 12 के अनुसार ‘राज्य’ में केंद्र और राज्य सरकारें दोनों शामिल हैं। ऐसे में समान नागरिक संहिता को केवल संसद के जरिए ही लागू किया जा सकता है। अदालतों और संसद में केंद्र सरकार के जवाब से भी साफ होता है, समान नागरिक संहिता को केवल संसद के जरिए ही लागू किया जा सकता है। यही कारण है कि बीजेपी ने भी लोकसभा के आम चुनावों के घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता लागू करने की बात की थी। जबकि उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा के घोषणापत्र में इसका जिक्र नहीं था। संविधान में कानून बनाने की शक्ति केंद्र और राज्य दोनों के पास है, लेकिन पर्सनल लॉ के मामले में राज्य सरकारों के हाथ बंधे हैं। इसलिए उत्तराखंड या अन्य राज्य सरकारें अपनी ओर से कोई कोशिश इन मामलों में करती हैं तो अदालत में इसे चुनौती मिल सकती है। इसको लेकर हाय तौबा मचाने वालों को यह भी सोचना चाहिए कि ऐसी पहल वाला भारत एकलौता देश नहीं है। यूनिफॉर्म सिविल कोड पहले से ही अमेरिका, आयरलैंड, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया , सूडान, इजिप्ट आदि देशों में लागू हैं। वैसे में धर्म विशेष पर इससे होने वाले असर की सोचने वालों को यह भी सोचना चाहिए, क्या इस्लामिक मुल्कों में शरिया कानून के नाम पर गैर मुस्लिमों के साथ भेदभाव नहीं होता है। वहीं जिन मुस्लिम देशों में समान नागरिक कानून के नाम पर मजहब विशेष के कानून लागू हैं क्या वो उचित हैं। दरसल अब समय आ गया है कि दकियानूसी मतांध मध्ययुगीन कबीलाई कानून को छोड़ एक सर्वस्पर्शी व्यवस्था बनायी जाए। यही रामायण का संदेश है और यही कुछ भीमराव आम्बेडकर संविधान निर्माण समिति की भी सोच है।

                                                                                                                                                                                      – अमिय भूषण 

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