प्रसन्न रहने के यथोचित कारण ढूंढने होंगे

जीवन में बालक से लेकर बूढ़े तक सभी प्रसन्नता चाहते हैं और उसे पाने का प्रयत्न करते रहते हैं । ऐसा करना भी चाहिए। क्योंकि स्थायी “प्रसन्नता” जीवन का चरम लक्ष्य भी है । यदि मनुष्य जीवन में “प्रसन्नता” का नितांत अभाव हो जाए तो उसका कुछ समय चल सकना भी असंभव समझना चाहिए ।

यह बात सत्य है कि मानव जीवन में अनुपात दु:ख-कलेश का ही अधिक देखने में आता है। तब भी लोग शौक से जी रहे हैं । इसका कारण यही है कि बीच-बीच में उन्हें “प्रसन्नता” भी प्राप्त होती रहती है और उसके लिए उन्हें नित्य नई आशा भी बनी रहती है । प्रसन्नता जीवन के लिए संजीवनी तत्व है, मनुष्य को उसे प्राप्त करना चाहिए । प्रसन्नावस्था में ही मनुष्य अपना तथा समाज का कुछ भला कर सकता है विषण्णावस्था में नहीं ।

“प्रसन्नता” वांछनीय भी है और लोग उसे पाने के लिए निरंतर प्रयत्न भी करते रहते हैं, किंतु फिर भी कोई उसे अपेक्षित अर्थ में पाता दिखाई नहीं देता । क्या धनवान, क्या बालक और वृद्ध किसी से भी पूछ देखिए — क्या आप जीवन में पूर्ण संतुष्ट और प्रसन्न हैं ? उत्तर अधिकतर नकारात्मक ही मिलेगा। उसका पूरक दूसरा प्रश्न भी करके देखिए — “तो क्या आप उसके लिए प्रयत्न नहीं करते ? 90% से अधिक उत्तर यही मिलेगा कि “प्रयत्न तो बहुत करते हैं, पर “प्रसन्नता” मिल ही नहीं पाती ।” निस्संदेह मनुष्य की असफलता आश्चर्य ही नहीं, दु:ख का विषय है ।

कितने खेद का विषय है कि आदमी किसी एक विषय अथवा वस्तु के लिए प्रयत्न करें और उसको प्राप्त न कर सके । ऐसा भी नहीं कि कोई उसे प्राप्त करने में कम श्रम करता हो अथवा प्रयत्नों में कोताही रखता हो । मनुष्य अनुक्षण एकमात्र संपूर्ण “प्रसन्नता” प्राप्त करने में ही तत्पर एवं व्यस्त रहता है । सोते-जागते, उठते-बैठते’ चलते-फिरते जो कुछ भी अच्छा- बुरा करता है, सब प्रसन्नता प्राप्त करने के मंतव्य से । किंतु खेद है कि वह इसे उचित रूप में प्राप्त नहीं कर पाता ।

इस स्थिति को देखते हुए तो यही समझ में आता है कि या तो मनुष्य “प्रसन्नता” के वास्तविक रूप को नहीं पहचानता अथवा वह अपनी वांछित वस्तु को पाने के लिए जिस दिशा में प्रयत्न करता है वही गलत है । इस समस्या पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है

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