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मुद्रास्फीति: नियंत्रण करने का भारतीय आर्थिक चिंतन

Rising food cost and grocery prices surging costs of supermarket groceries as an inflation financial crisis concept coming out of a paper bag shaped hit by a a finance graph arrow with 3D render elements.

मुद्रास्फीति: नियंत्रण करने का भारतीय आर्थिक चिंतन

by हिंदी विवेक
in आर्थिक, ट्रेंडींग
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दरअसल भारत का कृषक अब जागरूक हो गया है एवं पदार्थों की मांग के अनुसार नई तकनीकी का उपयोग करते हुए उत्पादन करने लगा है। आवश्यकता अनुसार पदार्थों का उत्पादन बढ़ाया जा रहा है, इससे उन पदार्थों की आपूर्ति बाजार में बढ़ रही है एवं इस प्रकार मुद्रा स्फीति पर अंकुश लग रहा है। सब्जियों के अलावा अन्य खाद्य पदार्थों में भी महंगाई दर दिसम्बर 2022 माह में कम हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में महंगाई अधिक तेजी से कम हुई है। दिसम्बर 2022 माह में जहां ग्रामीण इलाकों में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर 6.1 प्रतिशत की रही है वहीं शहरी इलाकों में यह घटकर 5.4 प्रतिशत हो गई है। भारत में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर लगातार दूसरे महीने 6 प्रतिशत के नीचे रही है। नवम्बर 2022 माह में यह 5.88 प्रतिशत थी।   

केंद्र सरकार द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर को 4 प्रतिशत तक नियंत्रित रखने का लक्ष्य दिया गया है, यह लक्ष्य 2 प्रतिशत से ऊपर एवं नीचे जा सकता है। इस प्रकार भारत में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर 2 से 6 प्रतिशत के बीच रह सकती है। जनवरी 2022 से लगातार यह दर 6 प्रतिशत के ऊपर बनी हुई थी इसके लिए अभी हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए केंद्र सरकार को एक पत्र भी लिखा गया है। हालांकि भारतीय रिजर्व बैंक ने उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति को कम करने के उद्देश्य से मई 2022 से रेपो दर में कुल 5 बार वृद्धि करते हुए इसे 2.25 प्रतिशत से बढ़ा दिया है। केंद्र सरकार ने भी कई आवश्यक वस्तुओं के निर्यात को रोकने के उद्देश्य से निर्यात करों में वृद्धि की है ताकि इन पदार्थों की घरू बाजार में पर्याप्त मात्रा में उपलब्धि बनी रहे। कुल मिलाकर बाजार में उत्पादों की पर्याप्त उपलब्धता पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है, ताकि वस्तुओं के दाम नहीं बढ़ें।

नवम्बर 2022 माह में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में भी 7.1 प्रतिशत की वृद्धि अर्जित की गई है। खनन क्षेत्र, विनिर्माण क्षेत्र एवं ऊर्जा क्षेत्र में उत्पादन नवम्बर 2022 माह में क्रमशः 9.7 प्रतिशत, 6.05 प्रतिशत एवं 12.7 प्रतिशत की दर से बढ़ा है। इसी प्रकार, पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन में भी 20.7 प्रतिशत की अतुलनीय वृद्धि दर्ज की गई है तथा उपभोक्ता टिकाऊ एवं उपभोक्ता गैरटिकाऊ वस्तुओं के उत्पादन में 5.1 प्रतिशत एवं 8.9 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। ढांचागत/निर्माण वस्तुओं के क्षेत्र में भी 12.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। उक्त वर्णित क्षेत्रों से सबंधित उत्पादों के उत्पादन में वृद्धि होने के चलते इनकी उपलब्धता बाजार में बढ़ रही है जिसके कारण इन उत्पादों के बाजार मूल्यों में भी कमी दर्ज की जा रही है।

आगे आने वाले समय के लिए अब यह अनुमान लगाया जा रहा है कि भारत में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर 6 प्रतिशत के अंदर बनी रहेगी और यह मार्च 2023 तक घटकर 5 प्रतिशत तक आ जाएगी एवं जून 2023 तक यह 4.7 प्रतिशत तक नीचे आ जाएगी। 

लगातार बढ़ रही मुद्रा स्फीति की दर से विश्व के लगभग सभी देश परेशान हैं और कई विकसित देश तो इस पर नियंत्रण करने के उद्देश्य से ब्याज दरों में लगातार वृद्धि करते जा रहे हैं ताकि नागरिकों के हाथ में धन की उपलब्धता में कमी हो एवं इस प्रकार बाजार में उत्पादों की मांग में कमी हो। उत्पादों की मांग में कमी के चलते इन वस्तुओं के उत्पादन में कमी होती दिखाई दे रही है एवं इससे कम्पनियां अपने कर्मचारियों की छंटनी करने में लग गई है जिससे बेरोजगारी की समस्या आ रही है एवं इसके चलते कहा जा रहा है कि इनमें से कुछ देशों में मंदी फैल सकती है।  

सामान्यतः बाजार में जब किसी भी वस्तु की उपलब्धता बढ़ जाती है तो उस वस्तु का मूल्य घट जाता है और कीमत के घटने पर उस वस्तु का निर्माण करने वाली कम्पनियों के लाभ पर विपरीत असर दिखाई देने लगता है। इसको दृष्टिगत पूंजीवादी विकसित देश यह प्रयास करते हैं कि वस्तुओं की उपलब्धता बाजार में नियंत्रित रहे ताकि इन वस्तुओं की कीमत कम न हो पाए और अंततः उनके लाभ पर विपरीत असर नहीं पड़े। इन देशों में कम्पनियां येन केन प्रकारेण अपनी लाभप्रदता को बढ़ाना चाहती हैं, इसके लिए उस देश के नागरिक कितनी परेशानी का सामना कर रहे हैं, इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। कम्पनी की लाभप्रदता बढ़ाने के लिए उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं का बाजार में मूल्य बढ़ते रहना चाहिए और वस्तुओं का मूल्य बढ़ते रहने के लिए बाजार में उस वस्तु की आवक नियंत्रित होनी चाहिए।

इसलिए विकसित देशों में वस्तुओं की उपलब्धता के मामले में विपुलता नहीं चाहिए। इस स्थिति को युक्तिजनित अभाव पैदा करना भी कहा जाता है। मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के लिए भी बाजार में वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ाने के स्थान पर वस्तुओं की मांग कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं। पश्चिमी मान्यता प्राप्त अर्थशास्त्र में यह सोच सही नहीं है क्योंकि इस तरह के प्रयासों से तो बाजार में मंदी फैलती है एवं बेरोजगारी बढ़ती है एवं नागरिकों को इस स्थिति से उबरने में कई बार बहुत लम्बा समय लग जाता है। मध्यम वर्ग के लाखों परिवार इस कारण से गरीबी रेखा के नीचे फिसल जाते हैं। अतः पाश्चात्य जगत में आर्थिक चिंतन ही इस प्रकार का है कि बाजार में उत्पादों की उपलब्धता को बढ़ाकर मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के स्थान पर उत्पादों की मांग को किस प्रकार कम किया जाय।

उक्त आर्थिक चिंतन के विपरीत भारतीय आर्थिक चिंतन में विपुलता की अर्थव्यवस्था के बारे में सोचा गया है, अर्थात अधिक से अधिक उत्पादन करो – “शतहस्त समाहर, सहस्त्रहस्त संकिर” (सौ हाथों से संग्रह करके हजार हाथों से बांट दो) – यह हमारे शास्त्रों में भी बताया गया है। विपुलता की अर्थव्यवस्था में अधिक से अधिक नागरिकों को उपभोग्य वस्तुएं आसानी से उचित मूल्य पर प्राप्त होती रहती हैं, इससे उत्पादों के बाजार भाव बढ़ने के स्थान पर घटते रहते हैं।  भारतीय वैदिक अर्थव्यवस्था में उत्पादों के बाजार भाव लगातार कम होने की व्यवस्था है एवं मुद्रा स्फीति के बारे में तो भारतीय शास्त्रों में शायद कहीं कोई उल्लेख भी नहीं मिलता है। भारतीय आर्थिक चिंतन व्यक्तिगत लाभ केंद्रित अर्थव्यवस्था के स्थान पर मानवमात्र के लाभ को केंद्र में रखकर चलने वाली अर्थव्यवस्था को तरजीह देता है।

वर्ष 1929-30 में पश्चिमी देशों में इस प्रकार की स्थिति निर्मित हुई थी तो पूरे विश्व में हाहाकार मच गया था। इस विशेष स्थिति को “डिप्रेशन” अर्थात मंदी का नाम दिया गया था।  मंदी आने का अर्थ था कि अर्थव्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन अधिक हो जाने के कारण इन वस्तुओं के मूल्य गिर गए थे। मूल्य गिरने से इन उत्पादों का निर्माण करने वाली कम्पनियों के  लाभ कम हो गए थे। कितनी विचित्र स्थिति है। बाजार में वस्तुओं के दाम कम होने से सर्वसामान्य नागरिक की सुविधा बढ़नी चाहिए और वह बढ़ती भी है, नागरिक को इस स्थिति में बहुत अच्छा महसूस होता है। परंतु, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सामान्य नागरिक की सुविधा के बारे में विचार नहीं किया जाता है। केवल कम्पनियों के लाभ बढ़ने-घटने पर विचार किया जाता है। यदि कम्पनियों का लाभ बढ़ा तो ठीक अन्यथा यह डिप्रेशन और अवांछनीय स्थिति में है, ऐसा कहा जाता है। इस प्रकार भारतीय आर्थिक चिंतन एवं पूंजीवादी आर्थिक चिंतन धाराओं में बहुत अंतर है। आज यदि “सर्वे भवंतु सुखिनः” का लक्ष्य पूरा करना है तो भारतीय वेदों में बताई गई विपुलता की अर्थव्यवस्था अधिक ठीक है। न कि जानबूझकर अकाल का निर्माण करने वाली पूंजीवादी अर्थव्यवस्था।

इसलिए विकसित देशों को भी आज ब्याज दरों में लगातार वृद्धि करते हुए मुद्रा स्फीति पर  अंकुश लगाने के स्थान पर बाजार में वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ाकर मुद्रा स्फीति पर अंकुश लगाने के बारे में विचार करना चाहिए। इसी प्रकार, भारतीय आर्थिक चिंतन को अपनाकर पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में आ रही विभिन्न अन्य कई समस्याओं पर भी काबू पाया जा सकता है। 

– प्रहलाद सबनानी

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