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भारतीय चिंतन में सूर्य ब्रह्माण्ड की आत्मा हैं

भारतीय चिंतन में सूर्य ब्रह्माण्ड की आत्मा हैं

by हिंदी विवेक
in अध्यात्म, विशेष, संस्कृति
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सूर्य सभी राशियों पर संचरण करते प्रतीत होते हैं। वस्तुतः पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है। आर्य भट्ट ने आर्यभट्टीयम में लिखा है, ‘‘जिस तरह नाव में बैठा व्यक्ति नदी को चलता हुआ अनुभव करता है, उसी प्रकार पृथ्वी से सूर्य गतिशील दिखाई पड़ता है।” सूर्य धनु राशि के बाद मकर राशि में प्रवेश करते हैं तो इसे मकर संक्रान्ति कहा जाता है। सूर्य का मकर राशि पर होना उपासना के लिए सुन्दर मुहूर्त माना जाता है। वराहमिहिर ने बृहत संहिता में बताया है, ‘‘मकर राशि के आदि से उत्तरायण प्रारम्भ होता है।” गीता (8-24) में कहते हैं, ‘‘अग्नि ज्योति के प्रकाश में शुक्ल पक्ष सूर्य के उत्तरायण रहने वाले 6 माहों में शरीर त्याग कर के ब्रह्म को प्राप्त करते हैं।” उत्तरायण शुभ काल है। इस अवधि में यज्ञ, उपासना, अनुष्ठान और धर्म दर्शन से जुड़े साहित्य का पठन पाठन फलदायी माना जाता है।

ऋग्वेद के रचनाकाल से लेकर उपनिषदों, महाकाव्यों और परवर्ती संस्कृतिमूलक साहित्य में सूर्यदेव की चर्चा है। प्रश्नोपनिषद (1-5) में कहते हैं कि, ‘‘आदित्य ही प्राण हैं।” छान्दोग्य उपनिषद में कहते हैं,”जैसे मनुष्यों में प्राण महत्वपूर्ण हैं वैसे ही ब्रह्माण्ड में सूर्य हैं।” सूर्य के कारण इस पृथ्वी ग्रह पर मनुष्य का जीवन है। सूर्य दिव्य हैं। तेजोमय दिव्यता हैं। सूर्य ऊष्मा ऊर्जा व प्रकाश का अक्षय भण्डार हैं। प्रत्येक ताप का ईंधन होता है। इसी तरह तेजोमय सूर्य ताप के पीछे भी कोई कारण/ईंधन होना चाहिए। सूर्यदेव अरबों वर्ष से तप रहे हैं।

सूर्य अजर अमर हैं। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के सूक्त 36 के देवता विश्वदेवा हैं। इस सूक्त में ऋषि अपने यज्ञ में ऊषा और रात्रि देवी का आवाहन करते हैं। पृथ्वी अंतरिक्ष और समस्त देवलोक को निमंत्रण देते हैं। वे वरुण, इन्द्र, मरुत और जल को भी आहूत करते हैं। वे इन्द्र से संरक्षण, मरुतों से समृद्धि की कामना करते हैं और अंत में सूर्य सविता देव का स्मरण करते हैं। सूक्त का अंतिम मंत्र बड़ा प्यारा है। ऋषि कहते हैं, ‘‘सविता पश्चातात सविता – सविता हमारे पीछे हैं।‘‘ फिर कहते हैं,‘‘पुरस्तात सवितोतर सविता धरातात – सविता सामने हैं। ऊपर हैं। नीचे हैं। ये सविता हमें सुख व समृद्धि दें। दीर्घायु भी दें।” सविता सूर्य की उपस्थिति दशों दिशाओं में है। यही तेजोमय सविता सम्प्रति मकर राशि पर हैं। उनके स्वागत अभिनन्दन की सुन्दर मुहूर्त है मकर संक्रान्ति। मकर संक्रान्ति के दिन तिल, गुड़, मूंग और खिचड़ी आदि का सेवन अच्छा माना जाता है। पुण्यदायी नदियों में स्नान की भी परंपरा है। तुलसीदास ने रामचरितमानस में मकर संक्रान्ति के अवसर के लिए प्रयागराज का शब्द चित्र बनाया है, ‘‘माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।”

हम सब सूर्य परिवार के अंग हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल (सूक्त 164) के प्रथम मंत्र में सूर्यदेव के तीन भाई बताए गए हैं। उनके सात पुत्र हैं। तीन भाइयों में वे स्वयं, दूसरे सर्वव्यापी वायु और तीसरे तेजस्वी अग्नि। ऋषि सूर्य के रथ का सुन्दर वर्णन करते हैं, ‘‘सूर्य के एक चक्र वाले रथ में सात घोड़े हैं। सात नामों वाला एक घोड़ा रथ खींचता है।‘‘ आगे सात शब्द का दोहराव है, ‘‘सात दिन, सात अश्व, सात स्वरों में सविता सूर्य की स्तुति करती सात बहनें।‘‘ वैसे भी सूर्य प्रकाश में सात रंग हैं। ध्वनि में सात स्वर हैं। सप्ताह में सात दिन हैं। इसके बाद खूबसूरत ऋषि जिज्ञासा है,” इस ब्रह्माण्ड में सबसे पहले जन्म लेने वाले को किसने देखा? जो अस्थि रहित होकर भी सम्पूर्ण संसार का पोषण करते हैं।” सूर्य प्रत्यक्ष हैं।

पूर्वज ऋषि सविता सूर्य की आतंरिक गतिविधि जानना चाहते हैं, ‘‘यह विज्ञ सप्त तंतुओं – किरणों को कैसे फैलाते हैं।” ऋषि विनम्रतापूर्वक जानकारी की सीमा बताते हैं, ”मैं नहीं जानता लेकिन जानना चाहता हूँ। सभी लोकों को स्थिर करने वाले अजन्मा का रूप क्या है? जो सूर्य रहस्य के जानकार हैं, कृपया वे बताएं। अंत में कहते हैं, ‘‘बारह अरों वाला चक्र द्युलोक में घूमता रहता है। वह अजर अमर है।” सूर्य के प्रति भारतीय चिंतन में अतिरिक्त श्रद्धा है। सूर्य अभिभावक हैं। गीता (4-1) में ज्ञान परंपरा है। श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘मैंने योगविद्या का ज्ञान सबसे पहले विवस्वान सूर्य को दिया था। सूर्य ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को यही ज्ञान दिया।”

वैदिक देवतंत्र में सूर्य महत्वपूर्ण हैं। ऋग्वेद में सविता की स्तुति में 11 सूक्त हैं। 170 से ज्यादा स्थलों पर सविता का उल्लेख है। सूर्य देवता के लिए अलग से 10 सूक्त हैं। सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं। सूर्य उपासना यूनान में भी थी। वैदिक मन्त्रों में सविता सूर्य और ऊषा अलग अलग स्तुतियां पाते हैं। लेकिन यथार्थ में वे एक ही सूर्य के भिन्न भिन्न आयाम हैं। डॉ० कपिल देव द्विवेदी ने ”वैदिक देवताओं के आध्यात्मिक और वैज्ञानिक स्वरुप” पर किताब लिखी है। उन्होंने लिखा है कि ”सविता ही सूर्य हैं। सविता का अर्थ प्रेरणा शक्ति देने वाला प्रेरक। गति देने वाला। सूर्य इस संसार को गति, प्रेरणा और प्रकाश देते हैं। इसलिए सूर्य को सविता कहते हैं।” सूर्य उपास्य हैं। ऊषा भी उन्हीं का एक आयाम हैं।

ऋषि कहते हैं, ‘‘देवी ऊषा के पीछे सूर्य वैसे ही अनुगमन करते हैं जैसे मनुष्य नारी के पीछे चलते हैं।‘‘ आगे कहते हैं, ‘‘सविता सूर्य विश्वरूपाणि हैं और ऊषा के बाद प्रकाशित होते हैं।‘‘ सूर्य ही सविता हैं। वे अग्निरूप भी हैं। ऋग्वेद (1-141-2) में अग्नि के तीन रूप बताए गए हैं। पहला भौतिक अग्नि। दूसरा मेघों बादलों में विद्युत रूप अग्नि और तीसरे सूर्य। ऊषा देवी सूर्योदय के पहले की आभा हैं। ऊषा की स्तुति में एक सुन्दर मंत्र में कहते हैं, ‘‘ऊषा स्वर्ग की कन्या जैसी प्रकाश के वस्त्र धारण करके प्रतिदिन पूरब से वैसे ही आती हैं जैसे विदुषी नारी प्रकृति के शाश्वत नियमों के अनुसार चलती है।‘‘ यहाँ ऊषा का वस्त्र प्रकाश है। आगे बताते हैं जैसे भद्र नारियां सोए हुए परिजनों को जगाती हैं। वैसे ही ऊषा भी सोने वालों को जगाती हैं।‘‘

वैदिक समाज के लोग प्रातःकाल उठते थे। वे सूर्योदय देखते थे। सूर्य नमस्कार करते थे। ऊषाकाल वैदिक समाज के लोगों का जागरण काल है। ऋषि ने ऊषा को लेकर सुन्दर कविता की है। कहते हैं कि ”यह ऊषा जैसे पति से मिलने के लिए मुस्कराती हुई अपना सौंदर्य प्रकट करती है।” ऋषियों का भावबोध बहुत गहरा है। सौंदर्यबोध और भी बहुत गहरा है। कहते हैं, ‘‘ऊषा अपने पराए का भेद नहीं करती। जैसे छोटी बहन बड़ी बहन के लिए स्थान खाली कर देती है वैसे ही रात्रि रुपी छोटी बहन बड़ी बहन ऊषा के लिए अपने स्थान से हट जाती है।‘‘ ऋषियों के मन में अच्छे लोगों के आदर के लिए भेदभाव भी हैं। स्तुति है, ‘‘हे ऊषा आप कंजूस लालची को न जगाएं। कर्मठ संघर्षशील लोगों को ही जगाएं।” प्रार्थना यह भी है कि वे हमारी बुद्धि को सत्कर्मों के लिए प्रेरित करें।‘‘ दुनिया की किसी भी कविता में ऊषा जैसा मनोरम चरित्र नहीं मिलता।

विश्वविख्यात गायत्री मंत्र में भी सूर्य सविता की स्तुति है। ऋग्वेद (3-62-10) के अनुवाद में सातवलेकर कहते हैं, ‘‘हम सविता देव के उस श्रेष्ठ वरण करने योग्य तेज का ध्यान करते हैं। वे सविता हमारी बुद्धियों को उत्तम मार्ग के लिए प्रेरित करें – तत्स वितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात।‘‘मकरसंक्रांति के अवसर पर इसी मंत्र का पुरस्चरण करते हुए लोकमंगल की उपासना करें।

– हृदयनारायण दीक्षित

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