कश्मीर की खूबसूरत वादियों एक खूबसूरत अप्सरा का जन्म हुआ था, जो कई पीढ़ियों से उसके पुरखों की जन्मभूमि थी। वो नर्म-गुनगुनी धूप में पली गोरी-चिट्टी नवयुवती, जिस पर अचानक दृष्टि पड़ जाए, तो उसका देवी स्वरूप शान्त आलोकित रूप से प्रतीत होता है कि स्वर्गलोक की कोई अप्सरा भटक कर भूलोक में उतर आई हो।
उस देवी स्वरूप कन्या का नामकरण गिरी-कंदराओं में बसी कश्मीर की कुल देवी ने स्वयं उसके रुप के अनुरूप सार्थक – गिरिजा। कश्मीर की किसी आम लड़की की तरह वो कोमलांगिनी भी कुछ बड़ी हुई, उसने घाटी के ही एक छोटे से विद्यालय में पढ़ाना शुरू कर दिया। सरस्वती का सा रूप एवं कोमल भावधारिणी स्वरूप उस देवी का इससे अच्छा और होना भी क्या था घाटी की ठण्डी हवाओं को अरबी रेगिस्तान की गर्म हवाएँ लगातार प्रदूषित कर रही थी। 90 का दशक अपनी उम्र पूरी करने को बस चंद महीने और बीत जाने की राह देख रहा था।
अरबी वहाबी विचारधारा से ओतप्रोत जिहादी गर्म हवाओं की तासीर से अपने भी वज़ूद को झुलसता पाने की आहट भापकर गिरिजा ने घाटी छोड़ जम्मू जा बसने का फैसला किया। भरे मन, रुंधे गले से घाटी की धरती व जननी मां को अलविदा कह गिरिजा भी हजारों पलायन करने वालों के साथ जम्मू की ओर निकल पड़ी। जम्मू में जोड़-तोड़ के जैसे-कैसे दिन बीत थे, अर्थ की कमी उसे हर वक़्त मुंह बाएं चिढ़ाती रहती थी। ऐसे में एक दिन एक छात्र फ़िरदौस डार, जिसको गिरिजा ने पढ़ाया था, उससें मिलने आया। उस किशोर की भीगती मसें उसके बचपन छोड़ जवानी की ओर चल पड़ने की चुगली कर रही थीं।
सामान्य बातचीत के बाद फ़िरदौस ने गिरिजा को बताया कि बांदीपुरा के उस विद्यालय की बहुत सी शिक्षिकाओं को आज भी आधा वेतन मिल रहा है, हालात के सामान्य होने पर जो पहले जैसा हो जाना है। यदि वह चाहे तो उसके साथ चले, वह अपने प्रभाव से हर माह पूरा वेतन दिलवा सकता है। दंगों में अपनी सारी धन-दौलत-घर लुटा चुकी, आर्थिक दुश्चक्रों में घिरी गिरिजा के पास एक समय उसका शिष्य रह चुके फ़िरदौस पर अविश्वास का कोई कारण न था। सो… विश्वास की डोर में बंधी गिरिजा चल पड़ी घाटी की ओर, फ़िरदौस के साथ। जम्मू से उत्तरी कश्मीर, बांदीपुरा की ओर।
25 जून 1990 को एक 28 वर्षीय युवती का शरीर बांदीपुरा की एक सड़क के किनारे पड़ा मिलता है, जो ठीक पेट के नीचे से कटा हुआ, दो टुकड़ों में बंटा हुआ था। एक भी टुकड़े पर कपड़े की एक छोटी सी चिन्दी भी न थी. पूरी निर्वस्त्र कर, काटी गई थी वो. शव-समीक्षा से पता चला… मृत्यु से पहले बेहद भयानक, दुर्दान्त तरीके से उसे एक नहीं कई-कई कुत्तों ने… एक नहीं… कई-कई बार… नोचा था।
ये भी कि… जिस वक़्त उसके बदन को दो भागों में लोहे की आरी से चीरा जा रहा था… उस वक़्त तक उसकी क्लांत देह में प्राण शेष था… यहाँ तक कि कटकर अलग होने के बाद भी… चंद पलों तक तड़पी थी… वो अर्ध-मृत… नुची-लूटी देह… जिसे उसकी मृत्यु के कुछ दिन पूर्व तक भी… सूर्य-देव की किरणों तक ने भी स्पर्श करने का साहस नहीं किया था। गिरिजा फिर कभी वापस जम्मू न आई… न आया फ़िरदौस… वो शायद आज भी कहीं जिन्दा होगा!