हमारी पुराणक कथाओं में कल्पवृक्ष नामक एक दिव्य वृक्ष का वर्णन आता है कि अगर उस वृक्ष के नीचे बैठकर कोई मनुष्य अपनी इच्छा प्रकट करता है तो वह वृक्ष तुरंत उसकी इच्छापूर्ति कर देता है। मगर किसी मनुष्य को हम कल्पवृक्ष की संज्ञा कैसे दे सकते हैं ? यह प्रश्न स्वभाविक है क्योंकि पतंगेजी जैसा व्यक्ती स्वयं को समाज से कभी भी महान नही मानता है अपितु वास्तविकता यह होती है कि अपने समाज के बारे में उनके मन मे सदा सर्वदा संतति के प्रति जो वत्सलभाव होता है वही निवास करता है। इसीलिए कहा गया है – अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥ अर्थात् यह मेरा अपना है और यह नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त एवं संकुचित मन वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो सम्पूर्ण धरती ही परिवार है।
इसी कारणवश ऐसे उदार लोग अपने समाज की क्या-क्या आवश्यकताएं हैं इसका भलीभांति ज्ञान रखते हैं और उनकी कृति तथा व्यवहार से समाज की यह सारी आवश्यकताएं अपने आप पूरी होती जाती है। तो एक मायने में ऐसे महान व्यक्ती कल्पवृक्ष से भी कई अधिक गुणा बढ़कर होते हैं। कल्पवृक्ष तो उसके नीचे बैठे मनुष्य का मनोकामना पूर्ण करता है लेकिन ऐसे चलते-फिरते कल्पवृक्ष तो दुसरों के मनोरथ स्वयं जानकर परिपूर्ण भी कर देते हैं। अपने समाज में समरसता का अभाव है यह इस कल्पवृक्ष ने पहचाना और अपना जो-जो समाज घटक ‘मैं मधु से अनभिज्ञ आज भी, जीवनभर विषपान किया है’ ऐसा मानकर चल रहा था उसे सामाजिक समरसता मंच के माध्यम से समरसता का मधु ही नहीं बल्कि अमृत रस का पान करवाया हैं। इस वैचारिक यात्रा का नेतृत्व रमेश जी ने किया है।
हमारे समाज में घुमन्तु और विमुक्त जनजातिओं का कार्य संघ योजनाओं से आरंभ हुआ। वंचित, उपेक्षित, अकिंचन एवं असहाय वर्ग की घुमन्तु और पूर्व गुनहगार जनजातियों के बालक-बालिकाओं की शिक्षा हेतु संचलित यमगरवाडी प्रकल्प तथा घुमन्तु समाजबंधुओं के निवास हेतु मगरसांगवी का प्रथम पुनर्वसन प्रकल्प आपकी ही वैचारिक कृतिशीलता की देन है और ऐसे कई परियोजनाओं की वैचारिक आधारशिला आपने ही रखी है जो आज समाज में पथदर्शी प्रकल्प सिद्ध हुए हैं।
इस कल्पवृक्ष के कृति और व्यवहार में अभेद होने के कारण यमगरवाडी जैसी परियोजनाओं से पतंगे जी आरंभ से ही जुड़े रहे और आज वहां जो नंदनवन हम अनुभव कर रहे है उसके निर्माण का प्रयास इसी कल्पवृक्ष के कारण फलीभूत हुआ है।
‘यः क्रियावान स पण्डितः’ को चरितार्थ करनेवाले पतंगे जी कृतिशील विचारक हैं। उनको यह विचारपाथेय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में प्राप्त हुआ। इसी संघ शाखा से प्राप्त संस्कारों का कालानुरूप अर्थ सुलझा कर हिंदुत्व का सामाजिक आशय पतंगे जी ने प्रकट किया। संघ स्वयंसेवक होने के नाते विचार के साथ-साथ उनके आचरण में भी समरसता का व्यवहार आरम्भ से ही था। इसीलिए पतंगे जी आज जाने पहचाने जाते हैं सामाजिक समरसता का भावजागरण करनेवाले पुरोधा के रूप में!
पतंगे जी के रूप में समाज ने पाया एक चिंतनशील लेखक! लेकिन उनकी लेखनी क्रियाशील होने का कारण यह नहीं था कि उन्हे स्वयं को एक लेखक रूप में प्रस्थापित करना था। इस कल्पवृक्ष के मन में जो विचार उभरे वह एक स्वानुभव पर विचार कथा बनकर ‘मैं, मनु और संघ’ (मराठी – मी, मनु आणि संघ) इस पुस्तक के माध्यम से अभिव्यक्त हुए और इस पुस्तक ने अपने आप में एक इतिहास रच डाला। इस साहित्य शलाका ने संघ को मनुवादी मानकर स्वयं समाज में नई विषमता का बीजारोपण करनेवाले छद्म पुरोगामी और तथाकथित बुद्धिवादियों का मुखौटा तार-तार कर डाला और इसी पुस्तक का विविध भारतीय भाषाओं में तथा अंग्रेजी में अनुवाद होने के कारण इन सभी भाषकों को संघ की ओर देखने की नई विचार दृष्टि प्राप्त हुई। यह पुस्तक वैचारिक वाङ्मय जगत में एक मील का पत्थर सिद्ध हुई।
रमेश पतंगे जी दीर्घकाल तक साप्ताहिक विवेक के संपादक रहे हैं। यह साप्ताहिक संघ विचार का साप्ताहिक इस रुप में जाना जाता हैं। समाज की धारणा के लिए जो-जो भूमिका जब-जब पतंगे जी को उचित लगी तब-तब उन्होंने किसी के भी राग-अनुराग की परवाह किए बिना वह प्रस्तुत की है। इसीलिए आज जो लोग स्वयं को संघ विचारधारा के विरोधक मानकर चलते है वह भी आदरपूर्वक पतंगे जी का लेखन पढ़ते हैं और वह विचार पढ़कर कभी-कभी अचंभित हो जाते हैं एवं प्रभावित भी होते है। ऐसे पैनी लेखनी के धनी हैं रमेश जी! संघ विचारधारा का कालोचित अर्थ समाज के सामने प्रस्तुत करने की कुशलता और महारत उन्होंने बखूबी हासिल की हैं। इसी कारणवश जो स्वयं को संघ का घटक नहीं मानते हैं ऐसे लोगों के मन में भी संघ भाव जगाने में उनकी लेखनी सफल हो जाती हैं। संघ का विचार सर्वदूर पहुंचाने में साहित्य निर्माण कें प्रयास की पराकाष्ठा करने के उपरांत और आयु का अमृत महोत्सव देखने के पश्चात भी उतनी ही गति से अनथक कार्यरत रही है। यह सचमुच आश्चर्य की बात है इसीलिए वे समाज के लिए कल्पवृक्ष ही है।
पतंगे जी ने जब साहित्य सृष्टि में फैली हुई विषाक्त विषमता का अनुभव किया तब उनकी अस्वस्थता (प्रेरणा) से साकार हुई समरसता साहित्य परिषद! इस परिषद के माध्यम से महाराष्ट्र में हर वर्ष समरसता साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया जाने लगा। विशिष्ट विषयाधारित साहित्य सम्मेलन के माध्यम से समाज में समरसता भाव जागरण के सरस साहित्य का प्रचार एवं प्रसार होने लगा। स्वयं रमेश जी कल्याण में संपन्न सत्रहवें समरसता साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रह चुके हैं। इस सम्मेलन का विषय ‘डॉ. बाबा साहब आंबेडकर जी का राष्ट्र निर्माण में योगदान’ यह था। भारतीय संविधान निर्माता भारतरत्न डॉ. बाबासाहब आंबेडकर और भारतीय संविधान यह पतंगे जी के आस्था एवं अध्ययन का विषय रहा है। भारतीय संविधान तथा विश्व के अन्य प्रमुख देशों के सविधानों पर आसान और सरल भाषा में भाष्य करनेवाली कई पुस्तकों का लेखन उन्होंने भारतीय समाज को संविधान साक्षर बनाने हेतु किया तथा दिल्ली, लखनऊ, गुजरात, तमिलनाडु स्थित विविध विश्वविद्यालयों में सम्माननीय वक्ता के रूप में उपस्थित रहकर डॉ. आंबेडकर जी का राष्ट्रचिंतन और भारतीय संविधान के बारे में उन्होंने बहुमोल विचारपाथेय प्राध्यापक एवं अनुसंधानकर्ता विद्यार्थियों के सामने उजागर किया है। विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के साथ-साथ समरसता अध्ययन केंद्र जैसी संस्था का भी मार्गदर्शन एवं वैचारिक भरण पोषण पतंगे जी ने किया है।
एक विचारधारा के रूप में केवल भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक मंच पर केंद्रस्थान विभूषित करनेवाले रा. स्व. संघ का बहुआयामी स्वरूप उजागर करनेवाले अमृतपथ, संघगंगोत्री, राष्ट्रसाधना से लेकर विभिन्न प्रांतों संघसरिता ग्रंथमालिकाओं का संपादन तथा निर्माण रमेश पतंगे जी ने किया है। संघ इतिहास का अक्षरधन लिपीबद्ध करना यह कालोचित आवश्यकता ही थी। इसी आवश्यकता की परिपूर्णता रमेश जी के अथक परिश्रम से हो पाई हैं। साप्ताहिक विवेक इस मराठी पत्रिका के प्रखर संपादक के रूप में कार्य करने के पश्चात् रमेश जी ने हिंदुस्थान प्रकाशन संस्था के अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभालकर इस संस्था के विभिन्न प्रकल्पों का वैचारिक नेतृत्व करते हुए प्रगति के नए किर्तिमान स्थापित किए हैं। पतंगे जी की यह यात्रा अविरत ज्ञान साधना की परिचायक है। ‘भारत माता का परम वैभव’ यही इस यात्रा का अंतिम गंतव्य स्थान है।
पतंगे जी के कार्यमग्न जीवन का उत्तम उदाहरण था कोरोना काल, इस वैश्विक महामारी के दौरान प्रकाशित हुआ ‘राम मंदिर से राष्ट्र मंदिर’ यह उत्तम ग्रंथ! संघ विचार यह किस अर्थ में नित्य नूतन और भविष्य की राह दिखानेवाला है यह तथ्य उन्होंने समझाया और इस संकट काल में भी साहित्य प्रकाशन क्षेत्र में एक नया कीर्तिमान स्थापित हुआ। साप्ताहिक विवेक के कई प्रकल्प इसी तरह पतंगे जी की दूरदृष्टि से जन्मे और सफल हुए है। रमेश पतंगे जी का कार्य बहुआयामी है। उनके कर्तृत्व के कई पहलू है। इंडियन फिल्म सेंसर बोर्ड के सदस्य तथा राजा राममोहन राय फाउंडेशन, कोलकाता और भारत भवन, भोपाल के भूतपूर्व सदस्य के रूप में भी पतंगे जी ने कार्य किया है। सामाजिक जीवन में जिस तरह उन्होंने सफल और समाधानी कर्तृत्व का प्रदर्शन किया है उसी तरह उनका गृहस्थ जीवन भी एक कुटुंब प्रमुख के रूप में संतुष्ट एवं कृतार्थ है। एक दीपस्तंभ के रूप में पतंगे जी उनके संपर्क में आनेवाले हर किसी का जीवन आलोकित करने में समर्थ है, इसके साक्ष्य कई कार्यकर्ताओं के रूप में कई सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था जीवन में हम अनुभव कर रहे हैं। ऐसे एक दाता कल्पवृक्ष के रूप में हम कई उदाहरण देख सकते हैं।
इस कार्यमग्न और विचार तपस्वी जीवन को भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा पांचजन्य नचिकेता पुरस्कार, मध्य प्रदेश सरकार द्वारा राष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार, महाराष्ट्र सरकार द्वारा जीवन गौरव पुरस्कार, श्यामा प्रसाद न्यास दिल्ली द्वारा बौद्धिक योद्धा सम्मान, भाऊराव देवरस सेवा सम्मान, डॉ. शंकरराव खरात स्मृति पुरस्कार आदि सम्मानों से गौरवान्वित किया गया है। व्यक्ती और संस्था के जीवन में ऐसे कई प्रसंग आते है जो कभी-कभी अनपेक्षित भी होते है। पतंगे जी को ‘पद्मश्री’ पुरस्कार से सम्मानित किया जाना ऐसी ही एक ताजा घटना हैं। जब यह समाचार हम सब को प्राप्त हुआ तब मुझे पूजनीय श्री गुरुजी के जीवन के दीक्षा प्रसंग की घटना का स्मरण हुआ। इसका भी एक कारण है। इस प्रसंग का वर्णन करते हुए श्री गुरुजी बताते हैं कि, “मैं आशा करता हूं कि मैं यह कभी नहीं भूलूंगा। मेरा रोमरोम पुलकित हुआ था। मैं स्वयं को परिवर्तित अनुभव कर रहा था। मैं वह नहीं रहा जो की कुछ पल पहले था।” मेरा यह मानना है कि विवेक से जुड़े हुए सभी लोगों ने इसी भावना का अनुभव किया होगा। जो सम्मान पतंगे जी को प्राप्त हुआ वह हम सभी को ऐसा लगा कि हम सभी को ही प्राप्त हुआ है। हम सभी लोग कुछ पल पहले कुछ और थे मगर पद्मश्री सन्मान की घोषणा के पश्चात हम सब कुछ और बन गए! एक रोमांचक परिवर्तन का अनुभव हम सब ने किया। हमारे जैसे कार्यकर्ता और हमारी विवेक जैसी संस्था के जीवन में यह क्षण सचमुच अभूतपूर्व था।
ऐसा सम्मान प्राप्त होने पर सम्मानित व्यक्ती का कई लोग अभिनंदन करते हैं, यह सर्वसाधारण परिपाटी है। कुछ लोगों के जीवन में ऐसे सम्मान कुछ परिवर्तन भी ला सकते है। मगर एक तपस्या के रूप में जब कोई व्यक्ती केवल कर्तव्य भावना से ही कार्य करता रहता है, तब कोई पुरस्कार या कोई सर्वोच्च पुरस्कार उसके लिए कार्यप्रेरणा का माध्यम पहले भी नहीं रहता और बाद में भी नहीं! एक कल्पवृक्ष के समान वह व्यक्ती सदैव कार्यरत रहता है। लोगों को मनचाही चीज देनेवाला, उनके सारे मनोरथ पूरे करनेवाले कल्पवृक्ष का स्वयं कोई मनोरथ नहीं होता। उससे पूछा जाए तो उसका यही उत्तर होता है – ‘मातृभू की अर्चना का एक छोटा उपकरण हूं!
इस कल्पवृक्ष की छाया हम पर सदा बनी रहे, ऐसी मेरे जैसे सारे कार्यकर्ताओं की कामना हैं।
– दीपक हनुमंत जेवणे
श्री रमेश पतंगे जी नामक कल्पवृक्ष की छाया विगत वर्षों से मुझ पर भी रही है। भारतीय संविधान विषय पर उनका अद्वितीय भाषण मुझे दो बार सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।मेरा मानना है कि भारतीय संविधान पर उन से बेहतर भाषण देने वाला पूरे देश में शायद ही कोई अन्य वक्ता हो।मैं इस राष्ट्र ऋषि तुल्य व्यक्तित्व के सुखद,सक्रिय,स्वस्थ एवं शतायु जीवन की ईश्वर से प्रार्थना करता हूं। पद्मश्री से विभूषित होने पर हार्दिक बधाई के साथ माननीय रमेश पतंगे जी का अभिनन्दन। डाॅ.प्रकाश बरतूनिया