संघ बीज के पोषक श्रीगुरुजी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर जी का जीवन मानव सेवा एवं मनुष्य उत्थान का उत्तम उपाख्यान है। उन्होंने राष्ट्रीय स्वाभिमान के हर प्रतीक को लेकर अपनी राय रखी और विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से उन्हें जन-जन तक पहुंचाने के लिए स्वयंसेवकों की इतनी बड़ी संख्या को सामने लाने की दिशा में व्यापक पहल की।

माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य गुरूजी जून 1940 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक बने। वर्ष 1973 में अपनी अंतिम सांस तक इसी दायित्व का निर्वहन कार्य करते रहे।

गोलवलकर ने कुछ वर्षों तक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। वहां पर छात्र उन्हें प्रेम और श्रद्धा से ‘गुरुजी’ कहते थे और फिर यह नाम उनके साथ जुड़ गया।

वर्ष 1940 से 1973 के दौरान उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बड़ी तेजी से विकसित हुआ और इस दौरान देश में कई उतार-चढ़ाव भरी घटनाएं घटीं, जैसे कि देश का विभाजन, वर्ष 1948 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध, भारत की वर्ष 1962 के युद्ध में चीन से करारी हार तथा वर्ष 1965 और 1971 में लड़ी गई भारत-पाकिस्तान लड़ाइयां।

गुरुजी को देश भर की 65 बार की गईं यात्राओं के लिए जाना जाता है। इसकी कीमत उन्होंने अपने स्वास्थ्य क्षरण से चुकाई। उनके 33 वर्षों के अथक प्रयासों से लगभग हर क्षेत्र में संघ के स्वयंसेवकों ने राष्ट्र निर्माण के लिए ओजस्वी संगठन खड़े किए। इनमें से कुछ के नाम हैं वनवासी कल्याण आश्रम, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिंदू परिषद, भारतीय मजदूर संघ, विद्या भारती आदि।

गुरुजी अपने कर्तृत्व के साथ ही अपनी आध्यात्मिकता के लिए भी स्वयंसेवकों के लिए अत्यंत श्रद्धेय थे। गुरुजी के आध्यात्मिक गुरु ने एक बार उनसे कहा था कि एक युवा संन्यासी के रूप में घने लम्बे केश जो उन्होंने रखे हैं, वे उन पर खूब फबते हैं। गुरुजी ने तदुपरांत कभी अपने बाल नहीं कटवाए। उन्होंने 1930 के दशक में एक संन्यासी के रूप में रामकृष्ण मिशन में औपचारिक दीक्षा ली थी।

गुरुजी का जन्म नागपुर के रायकर निवास में 19 फरवरी, 1906 के दिन प्रातः साढ़े चार बजे हुआ था। भारतीय कलेंडर के अनुसार, यह फागुन कृष्ण एकादशी (विजय एकादशी) का पवित्र दिन (विक्रम संवत् 1962 का) था।

गुरुजी के आठ बहन-भाई और थे, मगर वे एकमात्र थे, जो जीवित बचे। बाकी सब भाई-बहन छोटी आयु में ही ईश्वर को प्यारे हो गए। उनका नाम माधव रखा गया, परंतु परिवार में सब उन्हें ‘मधु’ के नाम से पुकारते थे।

जून 1940 में गुरुजी के असाधारण नेतृृत्व में संघ ने अपने विस्तार की यात्रा शुरू की। यद्यपि महाराष्ट्र के बाहर कई प्रांतों में संघ फैल चुका था, पर अभी भी देश के कई हिस्से इससे अछूते थे। अभी तक नई जगह पर शाखा आरम्भ करने का काम अधिकतर स्वयंसेवक ही करते थे, प्रचारकों की संख्या उतनी अधिक नहीं थी। गुरुजी ने पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं (प्रचारकों) की नई पद्धति को स्थापित किया। इसका परिणाम हुआ- देश भर में संघ के संगठनात्मक तंत्र में असाधारण प्रगति।

इस बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने स्वयंसेवकों को स्वतंत्रता-आंदोलन में शामिल होने के प्रति उत्साहित करना शुरू किया। संघ के विस्तार के लिए गुरुजी के आह्वान का प्रभाव अद्भुुत था। वर्ष 1942 में केवल लाहौर से 42 प्रचारक आगे आए। इनमें से 10 स्नातकोत्तर, दो डॉक्टर, 14 शास्त्री और अन्य स्नातक या मैट्रिक से ऊपर थे। इसी प्रकार अमृतसर शहर से 52 प्रचारक आए, जिनमें से 4 डॉक्टर थे। जून 1942 और उसके बाद में प्रचारकों की एक बड़ी संख्या को विभिन्न प्रांतों में भेजा जाने लगा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अब राष्ट्रव्यापी संगठन बन गया था ।

भारत को मिलनेवाली स्वतंत्रता से पहले ही संघ को विभाजन की विभीषिका का अहसास हो गया था। उस परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए हिंदुओं को तैयार करना था। इस परिस्थिति को उन पर कांग्रेस के नेतृत्व ने थोपा था। गुरुजी, बाबासाहब आप्टे और बालासाहब देवरस ने देश का विस्तृत दौरा किया। सैकड़ों युवाओं ने संघ में शामिल होना शुरू कर दिया था, विशेष रूप से पंजाब के शहरों तथा गांवों में, जैसे रावलपिंडी, लाहौर, पेशावर, अमृतसर, जालंधर और अम्बाला आदि।

अंग्रेजी के समाचार-पत्र ‘इंग्लिश ट्रिब्यून’ ने लिखा- पंजाब हिंदुस्तान की तलवार वाली बाजू है तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पंजाब की तलवार है। मुसलिम लीग के मुखपत्र ‘डॉन’ ने प्रतिक्रिया में यह लिखा-अगर कांग्रेस नेतृत्व मुसलमानों से सहयोग चाहता है तो उसे संघ पर तुरंत प्रतिबंध लगाना चाहिए।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की विभाजन के समय भूमिका को याद करते हुए प्रोफेसर ए.एन. बाली अपनी पुस्तक ‘नाउ इट कैन बी टोल्ड’ में कहते हैं-उस मुश्किल समय में लोगों की रक्षा करने के लिए कौन मैदान में आया, सिवाय उन युवा पुरुषों के, जिन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहा जाता है? उन्होंने प्रत्येक मोहल्ले और राज्य के प्रत्येक शहर में महिलाओं तथा बच्चों को सुरिक्षत बाहर निकालने की व्यवस्था की। उन्होंने उनके लिए खाने, चिकित्सा और कपड़ों की व्यवस्था की और उन्हें हर सम्भव सहायता प्रदान की। उन्होंने प्रत्येक शहर में अग्नि दमन दल बनाए। उन्होंने बचकर निकलने वाले हिंदुओं और सिखों के लिए लारियों तथा बसों की व्यवस्था की तथा रेलवे ट्रेनों में अपने रक्षक दल भेजे। उन्होंने बिना थके हिंदू और सिख बस्तियों में रात-दिन पहरा दिया। उन्होंने लोगों को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण दिया। वे उन डरे हुए लोगों के पास पहुंचने वाले प्रथम व्यक्ति थे, उनको मदद पहुंचाने वाले प्रथम तथा पूर्वी पंजाब के सुरिक्षत इलाके में जाने वाले अंतिम व्यक्ति थे। मैं पंजाब के विभिन्न जिलों में कांग्रेसी नेताओं के नाम बता सकता हूं, जिन्होंने अपनी स्वयं की और अपने परिवारों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मदद ली। उन्होंने सहायता के लिए आई किसी भी पुकार को अनदेखा न किया। ऐसे भी कई मामले सामने आए, जब संघ के स्वयंसेवकों ने मुसलिम महिलाओं तथा बच्चों को हिंदू मोहल्लों से सुरक्षित निकालकर मुसलिम लीग के सहायता शिविरों में पहुंचाया।

जब सम्पूर्ण पंजाब में आग लगी हुई थी और कांग्रेसी नेता दिल्ली में असहाय बैठे तमाशा देख रहे थे, ऐसे समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने अपने अनुशासन, शारीरिक शक्ति के बल पर अपनी स्वयं की जान पर खेलते हुए पंजाब के लोगों को बचाया था। अब अगर पंजाब से बाहर का कोई व्यक्ति हिंदुओं और सिखों को कहे कि आप उन सिखों तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उन बहादुर जवानों को भूल जाओ, जिन्होंने उनकी रक्षा में अपने प्राण दांव पर लगा दिए थे, तो उसका आह्वान व्यर्थ ही जाएगा। उन शरणार्थियों में से प्रत्येक व्यक्ति, जो पश्चिम पाकिस्तान से आया है, संघ का ऋणी है। जब उन्हें सबने राम भरोसे छोड़ दिया था, केवल संघ ही उनके साथ खड़ा था।

वर्ष 1952 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने स्वयंसेवकों को स्वदेशी शिक्षा का एक मॉडल तैयार कर शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए प्रेरित कर रहा था। इस मुद्दे पर गुरुजी तथा प्रोफेसर राजेंद्र सिंह, नानाजी देशमुख, पंडित दीनदयाल उपाध्याय और भाऊराव देवरस के मध्य एक लम्बा विचार-विमर्श हुआ। परिणामस्वरूप गोरखपुर में पहला ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ नानाजी देशमुख के नेतृत्व में अस्तित्व में आया। इसके सभी अध्यापक स्नातक थे और अपने प्रचारक जीवन से सेवानिवृत्त हुए थे। गुरुजी ने भवन की आधारशिला रखी। आज इस पहल के कारण देश भर में इस तरह के बड़ी संख्या में स्कूल हैं, जो करोड़ों छात्रों को शिक्षा प्रदान कर रहे हैं।

वर्ष 1952 में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘गौ-रक्षा’ आंदोलन शुरू किया। अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की निर्णय लेनेवाली उच्चतम इकाई) ने नागपुर में सितम्बर 1952 में देश भर में गौ-हत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक प्रस्ताव का अनुमोदन किया।

एक विशाल अभियान देश भर में शुरू किया गया। गुरुजी ने एक बयान जारी किया, “इस हस्ताक्षर संग्रहण का मुख्य उद्देश्य करोड़ों हस्ताक्षरों के साथ एक भारी विनती देश के राष्ट्रपति को सौंपना है। यह कार्य एक जबरदस्त राष्ट्रप्रेम का है। यह मेरी विनती है कि इस देश का प्रत्येक नागरिक धर्म, मठ, जाति, पार्टी आदि के भेदभाव से ऊपर उठे और इस पवित्र कार्य में भाग ले।” उन्होंने राजनीतिक नेताओं, सम्पादकों और धार्मिक प्रमुखों को व्यक्तिगत रूप से अलग-अलग पत्र लिखे। हस्ताक्षर अभियान की औपचारिक शुरुआत मुंबई में सरकार्यवाह भैयाजी दानी तथा गुरुजी द्वारा की गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने 94,459 गांवों तथा शहरों में जाकर लोगों से हस्ताक्षर प्राप्त किए। हस्ताक्षरों की कुल संख्या थी-एक करोड़ उन्यासी लाख नवासी हजार तीन सौ बत्तीस (1,79,89,332)!

अगले दिन, 8 दिसम्बर को गुरुजी ने हस्ताक्षर देने के लिए राष्ट्रपति से भेंट की और उनसे प्रार्थना की कि देश भर में गौ-हत्या पर प्रतिबंध लगा दें।

इस गौ-रक्षा अभियान का एक मुख्य प्रभाव यह रहा कि इससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संगठनात्मक स्तर पर फिर से एक नई चमक के साथ सम्मुख आया और इसने अपनी संगठनात्मक पहुंच को बड़े पैमाने पर और अधिक बढ़ा लिया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अब राहत और पुनर्निर्माण के कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग लेने लग गया था, जहां भी देश में कोई आपदा या संकट की स्थिति पैदा होती थी। इसका परिणाम हुआ कि एक ‘सेवा विभाग’ (समाज सेवा की एक विशेष इकाई) की उत्पत्ति हुई। इसी सेवा विभाग की प्रेरणा से आज संघ के स्वयंसेवक देश भर में दो लाख से अधिक कल्याण योजनाएं चला रहे हैं। आज हम संघ का जो वैचारिक अधिष्ठान तथा समाज में प्रभाव देखते हैं, उसकी नींव डा. हेडगेवार ने डाली लेकिन इस बीज को सींच कर एक वृक्ष बनाने का काम गुरूजी ने किया। गुरूजी के लिखे गए असंख्य पत्र अपने आप में किसी भी वैचारिक ग्रंथ से ज्यादा गहन हैं। आज की परिस्थितियों में उनके विचार पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हैं।

– अरुण आनंद

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