स्वाधीनता संग्राम की योद्धा सुहासिनी गांगुली

भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में ऐसे क्राँतिकारियों की संख्या अनंत है जिन्होने अपने व्यक्तिगत भविष्य को दाव पर लगाकर स्वत्व और स्वाभिमान के लिये संघर्ष किया । ऐसी ही क्रांतिकारी थीं सुहासिनी गांगुली जो अपना उज्जवल भविष्य की दिशा को छोड़कर क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ीं। स्वतंत्रता के बाद वे राजनीति में नहीं आईं अपितु सन्यासिन बनकर समाज की सेवा में जुटीं।

सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी सुहासिनी गांगुली का जन्म 3 फरवरी 1909 को बंगाल के खुलना में हुआ था । अब यह क्षेत्र बंगलादेश में है । परिवार भारतीय संस्कृति और परंपरा के लिये समर्पित था । इसके साथ ही समय की धारा के अनुरूप आधुनिक शिक्षा का भी पक्षधर था । इसीलिए सुहासिनी ने अपनी विद्यालयीन शिक्षा आरंभ की । वे प्रत्येक कक्षा में प्रथम रहतीं थीं । उन्होंने 1927 में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की वह भी प्रथम श्रेणी में। वह चाहतीं तो बड़ी प्रशासनिक अधिकारी हो सकतीं थीं । लेकिन उन्होंने स्वाधीनता के संघर्ष का अपनाया । लेकिन बड़ी विडम्बना यह रही कि स्वतंत्रता के बाद उनके सामने जीवन यापन का भी संकट उत्पन्न हो गया । वे सन्यासिन होकर गुमनामी में चलीं गईं ।

उनके पिता का नाम अविनाश गांगुली और माता का नाम सरला देवी था । सुभाषिनी की पढ़ाई ढाका में हुई । ढाका के ईडन हाई स्कूल से 1924 में हाई स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की और ईडन कालेज से 1927 में स्नातक बनीं । वे बहुत कुशाग्र बुद्धि और प्रत्येक कक्षा में अग्रणी तो रहती थीं किन्तु छात्र जीवन में भारतीयों के साथ अंग्रेज शिक्षकों का वर्ताव उन्हे सदैव विचलित करता था । उस समय का वातावरण ऐसा था कि यदि सड़क चलते किसी अंग्रेज ने किसी भारतीय नागरिकों के साथ अभद्रता की तो उसकी शिकायत नहीं हो सकती थी । अंग्रेजों द्वारा किये गये अपमान को सिर झुका कर स्वीकार करना ही होता था । सबसे बड़ी बात तो यह थी कि स्कूल और कालेज दोनों में प्रतिदिन इंग्लैंड की महारानी के प्रति समर्पण की प्रार्थना होती थी । सुहासिनी को यह प्रार्थना कभी अच्छी न लगती थी । वे यह प्रार्थना गातीं तो थीं पर उससे जुड़ न पाईं ।

स्कूल कालेज के अनुशासन और प्रार्थना शपथ की अनिवार्यता के चलते वे पंक्ति में खड़ी तो होती थीं पर उनके मन में सदैव प्रतिक्रिया होती और वे उद्विग्न हो उठतीं थीं । वे इससे बचने और देश वासियों को बचाने के विचारों में खो जातीं । तभी महाविद्यालयीन जीवन में उनका संपर्क दो ऐसी क्रांतिकारी महिलाओं से हो गया जो अंग्रेजों के विरुद्ध युवाओं को संगठित करने में लगीं थीं । ये दोनों क्रांतिकारी महिलाएं थीं कल्याणी दास और कमलादास । जो स्वयं तो सीधे क्रांति की गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेती थी पर क्रांतिकारीयों के बीच संपर्क सूत्र का काम करती थीं । विशेषकर संदेशों और शस्त्रों को लाने ले जाने के कार्य में । सुहासिनी को उनकी बातें अच्छी लगीं और वह अपना निजी भविष्य छोड़कर स्वाधीनता संग्राम की दिशा में मुड़ गई। उनका संपर्क क्रांतिकारीयों से हुआ । क्रांतिकारी कल्याणी दास ने सुहासिनी को क्रांतिकारी नायक हेमन्त तरफदार से मिलवाया । हेमन्त तरफदार क्रांतिकारीयों के समन्वय और शस्त्र संचालन सिखाने का काम करते थे । सुहासिनी ने इनसे पिस्तौल और बंदूक चलाना और समय आने पर स्वयं की सुरक्षा करने के तरीके भी सीखे ।

1930 में चटगाँव शस्त्रागार कांड हुआ । यह शस्त्रागार अंग्रेजों की सेना का था । क्रांतिकारियों को अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष के लिये शस्त्रों की आवश्यकता थी । क्रांतिकारियों ने इस शस्त्रागार लूटने की योजना बनाई । ताकि क्रांतिकारीयों के पास पर्याप्त हथियार हो सकें । चटगाँव के इस शस्त्रागार लूटने की योजना में क्रांतिकारीयों के बीच समन्वय की भूमिका सुहासिनी ने ही निभाई थी । इस कांड के बाद वे योजना अनुसार वे चंद्रपुर चलीं गयीं वहाँ क्रांतिकारी शशिधर आचार्य के साथ पत्नि का वेश बनाकर रहने लगीं और दोनों ने स्कूल शुरू कर लिया । स्कूल का संचालन और दोनों का पति पत्नि रूप रहना केवल वाह्य रूप था ।

वस्तुतः उनका घर और स्कूल दोनों क्रांतिकारीयों के मिलने और बैठकें करने का केन्द्र था। क्रांतिकारी वहां आते, ठहरते और संदेशों का आदान प्रदान करके चले जाते थे । पुलिस को इसकी भनक पुलिस को लग गयी थी । एक सितम्बर 1930 को इस विद्यालय में क्रांतिकारीयों की एक बैठक चल रही थी । पुलिस ने विद्यालय घेर लिया । आमने सामने की गोली चली । क्रांतिकारी जीवन घोषाल बलिदान हो गये । शेष अन्य घायल हुये और गिरफ्तार कर लिये गये । जो गिरफ्तार हुये उनमें गणेश घोष, लोकनाथ बल, हेमन्त तरफदार और शशिधर आचार्य शामिल थे । सुहासिनी भी गिरफ्तार कर लीं गयीं । उन्हे आठ साल की सजा सुनाई गयी । उन्हे हिजली जेल में रखा गया । वे 1938 में जेल से रिहा हुईं । तब तक अंग्रेज भारत में क्रांतिकारी आदोलन का दमन कर चुके थे । लेकिन सुहासिनी चुप न रहीं वे अपने स्तर पर महिलाओं को संगठित करके स्थानीय समस्याओं और मानवाधिकार के लिए आंदोलन करती रहीं ।

उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया उन्हे पुनः गिरफ्तार कर लिया गया और तीन साल की जेल हुई । वे 1945 में जेल से रिहा हुईं । जब जेल से बाहर आईं तो उन्हे ज्ञात हुआ कि क्रांतिकारी हेमन्त तरफदार एक सन्यासी के वैष में धनबाद में रह रहे हैं । सुहासिनी उनसे मिलने धनबाद गयीं और स्वयं भी सन्यासिनी होकर वहीं रहने लगीं । समाज सेवा करने लगीं । उस क्षेत्र में सुहासिनी दीदी के नाम से जानी जातीं । आजादी के बाद उनका आना जाना कलकत्ता आरंभ हुआ उन्होंने यहां भी एक आश्रम आरंभ किया और बच्चो को शिक्षा देने लगी । उन्होंने मूक बघिर बच्चो की सेवा को प्राथमिकता दी । और सन्यासिनी के रूप में ही उन्होंने 23 मार्च 1965 को देह त्यागी । उनके देह त्यागने के बाद ही उनके बारे में स्थानीय लोग जान सके ।

– रमेश शर्मा

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