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चम्बल के संत ‘भाई जी’ सुब्बाराव

चम्बल के संत ‘भाई जी’ सुब्बाराव

by हिंदी विवेक
in अवांतर, विशेष, व्यक्तित्व, सामाजिक
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कोई समय था, जब चम्बल की पहाड़ियों और घाटियों में डाकुओं का आतंक चरम पर था। ये डाकू स्वयं को बागी कहते थे। हर दिन वहाँ बन्दूकें गरजती रहती थीं। ऐसे में गांधी, विनोबा और जयप्रकाश नारायण से प्रभावित सालिम नंजदुइयाह सुब्बाराव ने स्वयं को इस क्षेत्र में समर्पित कर दिया।

सुब्बाराव का जन्म सात फरवरी, 1929 को बंगलौर में हुआ था। इनके पिता श्री नंजदुइयाह एक वकील थे; पर वे झूठे मुकदमे नहीं लड़ते थे। घर में देशप्रेम एवं अध्यात्म की सुगन्ध व्याप्त थी। इसका प्रभाव बालक सुब्बाराव पर भी पड़ा। 13 वर्ष की अवस्था में जुलूस निकालते हुए ये पकड़े गये; पर छोटे होने के कारण इन्हें छोड़ दिया गया।

इन्हीं दिनों इन्होंने अपने मित्र सुब्रह्मण्यम के घर जाकर सूत कातना और उसी से बने कपड़े पहनना प्रारम्भ कर दिया। कानून की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही उन्हें कांग्रेस सेवा दल के संस्थापक डा0 हर्डीकर का पत्र मिला, जिसमें उनसे दिल्ली में सेवादल का कार्य करने का आग्रह किया गया था।

दिल्ली में सेवा दल का कार्य करते हुए वे कांग्रेस के बड़े नेताओं के सम्पर्क में आये; पर उन्होंने सत्ता की राजनीति से दूर रहकर युवाओं के बीच कार्य करने को प्राथमिकता दी। उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेकर ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ को अपने जीवन में स्थान दिया।

वे सदा खादी की खाकी निकर तथा कमीज पहनते हैं। उनके पास निजी सम्पत्ति के नाम पर खादी के दो थैले रहते हैं। एक में कुछ दैनिक उपयोग की वस्तुएँ रहती हैं तथा दूसरे में एक छोटा टाइपराइटर और कागज।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के कुछ समय बाद ही कांग्रेस अपने पथ से भटक गयी और फिर कांग्रेस सेवा दल भी सत्ता की दलदल में फँस गया। इससे सुब्बाराव का मन खिन्न हो गए। उन्हीं दिनों विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण चम्बल के बागियों के बीच घूमकर उन्हें आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित कर रहे थे। सुब्बाराव इस कार्य में उनके साथ लग गये। 14 अपै्रल, 1972 को इनके प्रयास रंग लाये, जब 150 से भी अधिक खूंखार दस्युओं ने गांधी जी के चित्र के सामने अपने शस्त्र रख दिये। इसमें सुब्बाराव की मुख्य भूमिका थी, जो ‘भाई जी’ के नाम से विख्यात हो चुके थे।

सुब्बाराव को युवकों तथा बच्चों के बीच काम करने में आनन्द आता है। वे देश भर में उनके लिए शिविर लगाते हैं। उनका मानना है कि नयी पीढ़ी के सामने यदि आदर्शवादी लोगों की चर्चा हो, तो वे उन जैसे बनने का प्रयास करेंगे; पर दुर्भाग्य से प्रचार माध्यम आज केवल नंगेपन, भ्रष्टाचार और जाति, प्रान्त आदि के भेदों को प्रमुखता देते हैं। इससे उन्हें बहुत कष्ट होता है।

आगे चलकर बागियों के आत्मसमर्पण का अभियान भी राजनीति की भेंट चढ़ गया; पर सुब्बाराव ने इससे निराश न होते हुए 27 सितम्बर, 1970 को चम्बल घाटी के मुरैना जिले में जौरा ग्राम में ‘महात्मा गांधी सेवा आश्रम’ की स्थापना की। आज भी वे उसी को अपना केन्द्र बनाकर सेवाकार्यों में जुटे हैं।

सुब्बाराव ने केवल देश में ही नहीं, तो विदेश में भी युवकों के शिविर लगाये हैं। उन्हें देश-विदेश के सैकड़ों पुरस्कारों तथा सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है। इससे प्राप्त राशि वे सेवा कार्य में ही खर्च करते हैं। चरैवेति-चरैवेति के उपासक सुब्बाराव अधिक समय कहीं रुकते भी नहीं है। एक शिविर समाप्त होने पर वे अगले शिविर की तैयारी में लग जाते हैं।

संकलन – विजय कुमार

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Tags: bhai jijaiprakash narayanmahatma gandhisubbaravvinoba bhave

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