विदेशी शरीर में भारतीय आत्मा श्रीमां

21 फरवरी, 1878 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में जन्मी श्रीमां का पूर्व नाम मीरा अल्फांसा था। उनके पिता श्री मोरिस एक बैंकर तथा माता श्रीमती मातिल्डा अल्फांसा थीं। उनके मिस्र के राजघराने से रक्त संबंध थे। अभिभावकों ने उनका नाम परम कृष्णभक्त मीराबाई के नाम पर क्यों रखा, यह कहना कठिन है; पर इससे उनके भावी जीवन का मार्ग अवश्य प्रशस्त हो गया। चार वर्ष की अवस्था से ही वे कुर्सी पर बैठकर ध्यान करने लगी थी। उन्हें लगता कि एक ज्योति शिरोमंडल में प्रवेश कर असीम शांति प्रदान करती है। सामान्य बच्चों की तरह खेलकूद में मीरा की कोई रुचि नहीं थी। 

12-13  वर्ष की अवस्था तक वे कई घंटे ध्यान में डूबने लगीं। इधर पढ़ाई में वे सामान्य पाठ्यक्रम के साथ ही गीत, संगीत, नृत्य, साहित्य, चित्रकला आदि में भी खूब रुचि लेती थीं। उन्हें लगता था कि उनका सूक्ष्म शरीर रात में भौतिक शरीर से बाहर निकल जाता है। उन्हें लगता कि उनका विशाल सुनहरा परिधान पूरे पेरिस नगर के ऊपर छाया हुआ है, जिसके नीचे आकर और उसे छूकर दुनिया के हजारों लोग अपने दुखों से मुक्ति पा रहे हैं।

मीरा को नींद में ही कई ऋषियों से अनेक अलौकिक शिक्षाएं मिलीं। एक प्रभावी व्यक्तित्व उन्हें प्रायः दिखाई देता था, जिसे वे कृष्ण कहती थीं। उन्हें लगता था कि वे इस धरा पर हैं और उनके साथ रहकर ही उन्हें कार्य करना है। आगे चलकर उन्होंने अल्जीरिया के ‘तेमसेम’ नामक स्थान पर गुह्य विद्या के गुरु ‘तेओ’ दम्पति से इसकी विधिवत शिक्षा ली। इससे उनमें कहीं भी प्रकट होने तथा सूक्ष्म जगत की घटनाओं के बारे में जानने की क्षमता आ गयी।

1904 में एक योगी ने उन्हें गीता का फ्रेंच अनुवाद दिया। इसे पढ़कर मीरा के मन में भारत और हिन्दू धर्म को जानने की जिज्ञासा बढ़ गयी। उन्हें किसी ने एक गुह्य चक्र यह कहकर दिया था कि जो इसका रहस्य बताएगा, वही उनका पथ प्रदर्शक होगा। उन दिनों पांडिचेरी फ्रांस के अधीन था तथा एक सांसद वहां से चुना जाता था। मीरा के पति पॉल रिशार इसके लिए पांडिचेरी आये।

आते समय मीरा ने वह गुह्य चक्र उन्हें देकर किसी योगी से उसका रहस्य पूछने को कहा था। श्री अरविंद ने यह रहस्य उन्हें बता दिया। जब पति ने वापस जाकर मीरा को यह कहा, तो मीरा तुरन्त पांडिचेरी के लिए चल दीं। 29 मार्च, 1914 को उन दोनों की भेंट हुई। श्री अरविंद उनका स्वागत करने के लिए आश्रम के द्वार पर खड़े थे। मीरा ने देखा कि वे ध्यान के समय जिस महामानव के दर्शन करती थीं, वह श्रीकृष्ण वस्तुतः श्री अरविन्द ही हैं।

मीरा एक वर्ष वहां रहकर फिर फ्रांस, जापान आदि गयीं। इसके बाद वे 24 अपै्रल, 1920 को सदा के लिए पांडिचेरी आ गयीं। नवम्बर 1926 में श्री अरविंद ने आश्रम का पूरा कार्यभार उन्हें सौंप दिया। उनके नेतृत्व में हजारों लोग आश्रम से जुडे़ तथा ओरोविल में ‘श्री अरविंद अंतरराष्ट्रीय शिक्षा केन्द्र’ जैसी कई नयी गतिविधियां प्रारम्भ हुईं, जो आज भी चल रही हैं।

श्रीमां का शरीर भले ही विदेशी था; पर उनकी आत्मा भारतीय थी। वे भारत को अपना असली देश तथा श्री अरविंद की महान शिक्षाओं को मूर्त रूप देना ही अपने जीवन का लक्ष्य मानती थीं। वे कहती थीं कि जगत का गुरु बनना ही भारत की नियति है। 17 नवम्बर, 1973 को अपनी देह त्यागकर वे सदा के लिए अपने पथ प्रदर्शक श्रीकृष्ण के चरणों में लीन हो गयीं।

संकलन – विजय कुमार 

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