आधुनिकता को स्वीकारा, पर अपनी पहचान नहीं खोई

जापान को सिर्फ एक देश नहीं, एक विशिष्ट सभ्यता मानना गलत नहीं होगा. अपने इतिहास के प्रारंभिक कालखंड में जापानी संस्कृति लगभग पूरी तरह से चीनी संस्कृति की एक शाखा मात्र थी. चीन एक तरह से जापान का कल्चरल बिग ब्रदर था. पर दूसरी सहस्त्राब्दी के आते आते जापान ने अपनी विशिष्ट संस्कृति विकसित कर ली जो दुनिया की अन्य किसी भी संस्कृति से बिल्कुल ही अलग थी…लगभग विचित्र. यह एक बहुत ही पारंपरिक, सैन्य संस्कृति बन गयी. शिंतो बौद्ध धर्म और विलक्षण समुराई सैनिक इसकी खास पहचान थे.

16वीं सदी का जापान टुकड़ों में बँटा था. इसमें अनेक डेमियन सरदार (वारलॉर्ड) आपस में लड़ते रहते थे. उसी समय यूरोपियन व्यापारी और ईसाई मिशनरियाँ भी जापान पहुंचीं. उस दौर में जापान में पश्चिम से दो चीजें पहुंची…क्रिश्चियनिटी और बंदूकें.

उनमें एक जापानी वारलॉर्ड हुआ ओडा नोबुनागा. उसे जापान का पहला यूनीफायर कहा गया. उसने इसाई मिशनरियों को बढ़ावा दिया और बदले में उसे पुर्तगाली व्यापारियों से बंदूकें मिलीं जिसने उसे जापान में सबसे शक्तिशाली बना दिया.

उसके बाद जापान के एकीकरण का काम दो और सरदारों ने पूरा किया. नोबुनागा के बाद टोयोटोमी हिदेयोशी और फिर तोकुगावा इयेयासु ने जापान के एकीकरण के कार्य को पूरा किया. इसके उपरांत तोकुगावा शोगुन के नेतृत्व में तोकुगावा वंश का शासन आया जो जापान में अगले 250 से अधिक वर्षों तक चला.

ध्यान से देखियेगा…जापान में पश्चिम से दो चीजें पहुँचीं – क्रिश्चियनिटी और बंदूक. और उन्होंने इन दोनों चीजों को कैसे लिया. बंदूक ले ली, पर क्रिश्चियनिटी को रिजेक्ट कर दिया. चर्चों ने जापान में विद्रोह फैलाने की कोशिश की. जापानियों ने इस विदेशी संस्कृति के खतरे को पहचाना और तोकुगावा वंश के समय में जापान में क्रिश्चियनिटी को अवैध घोषित कर दिया गया. पादरियों को जापान से निकाल दिया गया और ईसाइयों को पकड़ पकड़ कर मार डाला गया. साथ ही जापान ने अपनी सीमाएँ विदेशियों के लिए बन्द कर दीं और किसी भी विदेशी के अंदर आने और किसी जापानी के बाहर जाने पर पाबन्दी लगा दी. यह पाबन्दी कुल ढाई सौ साल रही और इस दौरान जापान बाहरी दुनिया से बिल्कुल कटा अपना पारंपरिक जीवन जीता रहा.

यह आइसोलेशन टूटा 1853 में जब अमेरिकी कमांडर मैथ्यू पेरी ने जापान के एडो बे में अपने जहाजी बेड़े को खड़ा कर दिया और जापान में व्यापार करने के अधिकार की माँग की. तोपों से लैस इस बेड़े के सामने जापान ने समझौता करने में ही भलाई समझी और अपमानजनक शर्तों पर कानागावा की संधि स्वीकार की.

पर जापानी समाज ने इस अवसर पर समय के साथ सामंजस्य बिठाने की विलक्षण क्षमता का भी परिचय दिया. अगले कुछ वर्ष जापानी इतिहास के उथल पुथल के वर्ष थे. इसे बाकुमात्सु, यानी “बाकुफू (सैनिक-शासन) का अन्त” के नाम से जाना जाता है. इस घटनाक्रम की परिणति आधुनिक जापानी इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना “मेजी रेस्टोरेशन” (1868) में हुई जिसमें एम्पेरर मेजी का शासन पुनः स्थापित किया गया.

यह सिर्फ सत्ता का परिवर्तन नहीं था. यह पूरे जापानी समाज व्यवस्था की ओवरहॉलिंग थी. जापानियों ने पहचाना कि दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है, और वे अपनी सांस्कृतिक अस्तित्वरक्षा के प्रयास में पिछले ढाई सौ सालों में बहुत ही पीछे छूट गए हैं. विज्ञान, टेक्नोलॉजी और सैन्य संगठन में तेजी से प्रगति कर रही पश्चिमी दुनिया से वे तबतक बराबरी नहीं कर सकते जबतक वे उनकी ही तरक्की और उप्लब्धियों से नहीं सीखते.

सामुराई जापान का परंपरागत सैनिक वर्ग था. और कालांतर में सामुराई जन्माधारित वर्ग हो गया था, यानि सिर्फ सामुराई परिवार में पैदा हुआ व्यक्ति ही समुराई बन सकता था और समुराई परिवार का व्यक्ति अन्य कोई व्यवसाय करने को स्वतंत्र नहीं था. अनेक विरोधों और विद्रोहों के बावजूद खुद इसी वर्ग के ही लोगों के नेतृत्व में समुराई व्यवस्था समाप्त कर दी गई. अनेक समुराई सैनिक के बजाय प्रशासक और ब्यूरोक्रेट्स के रोल में आ गए.

और उन्होंने दुनिया के अन्य देशों से सीखने का मिशन शुरू किया. जिन जापानियों को विदेश जाने की मनाही थी, वे हज़ारों की संख्या में दूसरे देशों की ओर चले… जिस देश में जो कुछ भी अच्छा था, वहाँ से सीखने. अमेरिका से टेक्नोलॉजी सीखी, जर्मनी से आर्मी और ब्रिटेन से नेवी का संगठन सीखा, ब्रिटेन की पार्लियामेंटरी और न्यायिक व्यवस्था लागू की गई. दुनिया में जिससे जो मिला, सीख कर इन युवा जापानियों की यह पीढ़ी लौटी और जापानी समाज में एक पीढ़ी के अंदर आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया. यहाँ तक कि सामुराई हेयर स्टाइल को प्रतिबंधित कर दिया गया, और बेसबॉल जापान का सबसे लोकप्रिय खेल बन गया.

ऐसा नहीं है कि दूसरों से सीखने में जापानियों ने कोई हिचक दिखाई, और यह भी नहीं है कि इससे उनमें अपने इतिहास और अपनी पहचान के प्रति कोई हीन भावना आई. जापानी पहले भी अपने आप को सर्वश्रेष्ठ समझते थे…अब भी समझते रहे. उन्होंने माना कि अगर वे श्रेष्ठ हैं तो यूँ ही नहीं हैं…सीखने की अपनी क्षमता की वजह से श्रेष्ठ हैं. तो नई नई चीजें सीखने और स्वीकार करने में वे सबसे आगे रहे.

और जापान ने ढाई सौ सालों का जो समय खोया था, अगले पचीस वर्षों में इसकी ऐसी भरपाई कर ली कि देखते देखते वे एशिया की महाशक्ति बन गए. 1894 में उन्होंने चीन को ही नहीं हराया, 1905 में यूरोप की सामरिक महाशक्ति रूस को हरा कर दुनिया के अग्रणी देशों में खड़े हो गए.

फिर एक बार दुहराउँगा…एक सभ्यता का सबसे महत्वपूर्ण मानक यह है कि बदलते हुए समय से सामंजस्य बिठाने में वे कितने सफल होते हैं. और इसका जापान से अच्छा और कोई उदाहरण हो ही नहीं सकता. दुनिया से जब जो अच्छा मिला, उन्होंने अपना लिया…फिर भी अपनी पहचान नहीं खोई. यूरोपियनों से बंदूकें ले लीं, पर उनकी क्रिश्चियनिटी को नकार दिया. जब खतरा पहचाना अपनी सीमाएँ बन्द कर दीं, और जब जरूरत समझी, आगे बढ़ कर परिवर्तनों को स्वीकारा. संस्कृति अपनी बचा कर रखी, पर टेक्नोलॉजी उनकी ले ली और ऐसी ली कि आज टेक्नोलॉजी को जापान की पहचान माना जाता है. आधुनिकता को स्वीकारा पर वामपंथ को कूड़े में डाल दिया.

और इसके मुकाबले भारत को देखें. लोग ऐसे ऐसे तर्क देते हैं कि आप भारतीयता का आग्रह रखते हो तो कार से क्यों चलते हो और पैंट-शर्ट क्यों पहनते हो, और अंग्रेज़ी मेडिकल साइंस क्यों पढ़ा है? और कुछ जिनका हिंदुत्व का आग्रह गहरा है वह इतना गहरा है कि अच्छे से अच्छे विदेशी विचार को सिर्फ इसलिए अस्वीकार कर देंगे कि वह विदेशी है. हमने विदेशों का रहन सहन तो ले लिया है, पर इनकी प्रागमैटिक सोच को नकार दिया है. दुख के साथ कहता हूँ, हम एक विचित्र लोग हैं…लेने वालों ने दुनिया भर का कचड़ा ले लिया है और नकारने वालों ने हीरे को भी फेंक दिया है.

– राजीव मिश्रा

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