रामराज्य और यूटोपिया में अंतर

रामराज्य को आज के जमाने में यूटोपिया कहते हैं। यूटोपिया प्राचीन ग्रीक से सर थामस मूर ने 1516 में उठाया था जिसे शब्दश: अनुवाद किया जाए तो उसका अर्थ होता है- नो प्लेस, इसलिए रामराज्य को यदि यूटोपिया की तरह देखेंगे तो जानेंगे कि यह असंभव है, इसकी इस देश में ही नहीं, दुनिया में भी कोई जगह नहीं है, नो प्लेस।लेकिन भारत में रामराज्य को हम एक भविष्य की तरह, एक सपने की तरह नहीं देखते, एक स्मृति की तरह देखते हैं। एक इतिहास की तरह।एक फ्लेश एंड ब्लड मेमोरी की तरह।हाड़ मांस के व्यतीत की तरह।

लेकिन आज जिसे हम प्रगति कहते हैं, वह रामराज्य का ही क्रमिक रियलाइज़ेशन है। आज जब हम किसी से प्रेम में पड़ जाते हैं तो वह भी रोमांटिक रिश्ते का ही यूटोपिया है, रामराज्य है।रामराज्य को दिवास्वप्न मानकर, ख़ारिज कर देने की जगह उस व्यक्ति की तरह मरना बेहतर है जो रामराज्य को साकार करने की कोशिश में करते हुए उस गति को प्राप्त हुआ। रामराज्य की अवधारणा के पीछे सामाजिक न्याय ही नहीं है, प्राकृतिक सम्पन्नता भी है, ज्ञान का अधिकतम वितरण भी है। रामराज्य किसी भी और चीज़ से पहले एक आदर्श शासन है और चूंकि रामचंद्र शुक्ल ने कहा कि कर्ता से बढ़कर कर्म का स्मारक कोई दूसरा नहीं होता, इसलिए शासन की बात करने से पहले शासक की बात करना जरूरी है, क्योंकि ‘राज’ की बात’ रिजीम की बात है, इसलिए शासन की प्रणालियों की बात करनी ही होगी- मार्क्स और एंजेल्स के अनुयायी रामराज्य को अवैज्ञानिक सामाजिक प्रमेय मानकर खारिज कर देते हैं, कुछ ऐसे कि उनका ‘राज्य रहित समाजवाद’ बड़ी वैज्ञानिक चीज हो, रामराज्य में कम से कम इतना यथार्थवाद तो है कि वह ‘राज्य’ को आवश्यक मानता है। ये ‘विदरिंग अवे आफ द स्टेट’ की थियरी देने वालों ने राज्य के गुम हो जाने, टूटकर बिखर जाने की थियरी देने वालों, वैज्ञानिक’ होने का दावा करने वालों ने ही चीन और सोवियत संघ के रूप में दुनिया के दो सबसे ज्यादा राज्य दिखने वाले राज्य स्थापित किये।

इसलिए हम रामराज्य की ईमानदार बात ही करेंगे और राम के जीवनादर्शों के संदर्भ में करेंगे क्योंकि राम ने अपने आदर्श जिये हैं और उनका रामराज्य उन्हीं जीवनादर्शों का प्रतिफलन है। मैं सबसे पहले ज्ञान की बात करता हूँ।सुशासन की पहली शर्त। और रामराज्य में सबके ज्ञानी होने की भी बात है ही।

यह युग वह है जब knowledge is power की बात सत्य हो रही है। तुलसी के शब्दों में कहें तो-
केवल ग्यान हेतु श्रम करही – का युग है। लेकिन फिर ज्ञान के पूँजीकरण का युग भी आया।इसने ज्ञान को दुर्लभ बना दिया।मानस के शब्दों में-नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना। हमारा सांस्कृतिक आदर्श तो वह रहा कि
अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारति।
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति सञ्चयात्॥
कि विद्या का यह कोष खर्च करने से बढ़ता है, होर्डिंग करने से इसका क्षय होता है। इसलिए विद्या को सर्वसुलभ बनाना चाहिए। पर जब इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स का दौर आया, पेटेंट का युग आया तो ज्ञान को पूँजी में परिवर्तित किया जाने लगा। तो उधर तो बात तुलसीदास जी इसकी कर रहे थे कि -इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ॥ और यहाँ तो पक्षपात होने लगा। वह ज्ञान का आद्य समाजवाद चला गया और विश्व व्यापार संगठन ज्ञान को एक कैपिटल की तरह, प्रापर्टी की तरह प्रोत्साहित करने लगा। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने खूब पैसा कमाया। पैसा ही प्रेरक था उनका। ज्ञान का। और उसके लिए बहुत से छल थे। बुद्धि लोभ की दासी थी।

तुलसी के शब्दों में-रिद्धि-सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई॥
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा॥
भावार्थ:-हे भाई! वह बहुत सी ऋद्धि-सिद्धियों को भेजती है, जो आकर बुद्धि को लोभ दिखाती हैं और वे ऋद्धि-सिद्धियाँ कल (कला), बल और छल करके समीप जाती और आँचल की वायु से उस ज्ञान रूपी दीपक को बुझा देती हैंइससे समाज में नई तरह की ग्रंथियाँ पैदा हो गईं। नये तरह के मोह भी निर्मित हुए और अपनी ही तरह के अंधकार भी विकसित हुए।* जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी॥

क्या ऐसा माहौल देशज समाजों में एक नये तरह का अंधकार नहीं पैदा कर रहा था? विज्ञान का दीप वहाँ बुझा दिया जा रहा था। लोभ और स्वार्थ की आँधी चल रही थी। लूट, plunder और अपहरण के जिस सिद्धांत पर पुराना उपनिवेशवाद आया था और जो बिना चोरी के विकसित नहीं हो सकता था यानी औद्योगिक क्रांति बिना उपनिवेशवाद के सफल नहीं हो सकती थी और मैन्चेस्टर के लिए भारत अनिवार्य था तो लूट के उसी सिद्धांत को अब भी नए उपनिवेशवाद ने अपनाया। तृतीय विश्व के देशों में मर्क, लिंटास, सीबा गायगी जैसी कंपनियों द्वारा प्लांट स्क्रीनिंग प्रोग्राम के नाम से कार्यक्रम चले, जीन रॉबरी हुई, कभी हल्दी, नीम, बासमती चावल का पेटेंट अपने लिए हड़पने की कोशिश की जा रही है।

डलहौज़ी की हड़प नीति- doctrine of lapse यदि उन्नीसवीं सदी के भूमि आधारित साम्राज्यवाद के लिए थी तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आर्थिक साम्राज्यवाद में भी वही हड़पनीति काम कर रही है। काले जीरे पर सिल्विया ली हांग फिलिप हाँग का पेटेंट है। सन 1997 तक सरसों पर 14 से अधिक पेटेंट कनाडाई, फ़्रेंच, चीनी और अमेरिकी कंपनियों के नाम जारी हुए। रिसर्च फ़ाउंडेशन फ़ॉर साइंस, टेक्नोलॉजी एंड इकॉलॉजी तब 27 ऐसे पेटेंट बता रही थी जो आयुर्वेद और भारतीय जनता के दैनिक अनुभव की चीजें थीं लेकिन जिसके पेटेंट कभी कोई विस्कोंसिन एल्युमनी कंपनी है तो कभी सेंड फॉर्मा कंपनी।रॉयल्टी इन्हें मिलेगी।ये एक तूफ़ान है स्वार्थ का। यह विज्ञान को प्रोत्साहित नहीं करता। यह उससे आलोक नहीं पाता।

रामचरितमानस के शब्दों में                                                                                                                                                                                                                जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई॥
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा।।
भावार्थ:-ज्यों ही वह तेज हवा हृदय रूपी घर में जाती है, त्यों ही वह विज्ञान रूपी दीपक बुझ जाता है। गाँठ भी नहीं छूटी और वह प्रकाश भी मिट गया। विषय रूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो गई (सारा किया-कराया चौपट हो गया)॥

पेटेंट अधिकारों की विशेषता है उनका एकांत स्वत्व में होना, exclusive होना। भारत का पारंपरिक विज्ञान सामूहिक अनुभव और उपयोग की चीज़ था। वहाँ ज्ञान दान का औदार्य था, यहाँ ज्ञान का कारोबार है। वहाँ विद्या को यदि धन माना भी गया तो आदर्श यह था कि दाने कृते वर्द्धति चैव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।

अपना देश इस ग़लतफ़हमी में रहा कि विद्या तो वह है कि न चौर चौर्यं न राजदंड्यम् और इधर इसके सामूहिक ज्ञान विज्ञान की चोरी होती रही।जो भारतीय समाज की निर्मात्री प्रतिभा थी, वह विदेशी कंपनियों के पूँजी भंडार का निर्माण करती रही।

और ज्ञान के असमान वितरण को भी सुनिश्चित करती रही। तुलसी ने इस स्थिति के बारे में बताया था – ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका/ साधन कठिन न मन कहुँ टेका। तो ज्ञान साधना न रहकर जब साधन हो जाये और वह भी कठिन तब कोई क्या कर सकेगा?

मुझे अपनी ही याद आती है उन दिनों जब मैं यू पी एस सी की तैयारी कर रहा था। मैं एक छोटे से अनुविभागीय मुख्यालय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर था। वहाँ जब मैंने अपने हॉकर से जब इंडिया टुडे पत्रिका माँगी तो उसने कहा कि ये क्या होता है।जब अनुविभागीय मुख्यालय की यह हालत थी तो गाँवों में पढ़ रहे बच्चों की हालत तो और बुरी रही होगी। ज्ञान वाक़ई दुर्लभ था। तुलसी के शब्द मुझे याद आते थे- प्रबल अबिद्या कर परिवारा। आज देश में दो तरह की शिक्षाएँ हैं:
एक इंडिया के लिए, दूसरी भारत के लिए।एक ओर पब्लिक स्कूलों की वह दुनिया जहॉं बच्चे को स्कूल में घुसने से पहले सक्षम होना पड़ता है और दूसरी ओर मलिन बस्तियों के वे बच्चे जो ज्ञान की कोई अग्रिम मिल्कियत नहीं रखते।

ई-गवर्नेंस का महत्व इसमें है कि वह ज्ञान के बारे में जो यह विभेदाचारी स्थिति थी, इसे ख़त्म करती है। समता – यह विज्ञान बुद्धि का लक्ष्य होना चाहिए। शिक्षा एक सोशल ईक्वलाइज़र की तरह काम करे। तुलसी के शब्दों में-

तब बिग्यानरूपिनी बुद्धि बिसद घृत पाइ।
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ।

विज्ञान रूपिणी बुद्धि उस (ज्ञान रूपी) निर्मल घी को पाकर उससे चित्त रूपी दीए को भरकर, समता की दीवट बनाकर, उस पर उसे दृढ़तापूर्वक (जमाकर) रखें॥

जब इस तरह की ज्ञान-विज्ञान समता होगी तभी हमारे समाज में प्रभुत्व की जो पद्धतियाँ ( systems of domination) विकसित हुईं हैं, उनकी ओर देखना हमें शिक्षा के चिरन्तन आदर्शों की ओर खींच ले जाता है।भारत में विद्या की परिभाषा ही मुक्तिकामी है – सा विद्या या विमुक्तये – लेकिन मुक्ति की कोई भी बात करने से पहले हमें प्रभुत्व की पद्धतियों (सिस्टम्स ऑफ डॉमीनेशन) की, उसके चुनिन्दा लोगों के शासन स्वरूपों (औलगरिक फार्म्स) की बात भी करनी होगी, तभी उस परिभाषा का आधुनिक अर्थान्वयन संभव हो सकेगा। किस तरह से ताकतवर औद्योगिक सभ्यता का ग्लोबल पैमाने पर एक एकरूपकारी प्रभाव पड़ रहा है ? किस तरह से यह एकरूपता विरूपता (डिफेसमेंट) के संकट पैदा कर रही है ?

किस तरह से प्राविधिकी के कुछ क्षेत्रों में हुए क्रांतदर्शी परिवर्तनों ने अंतरराष्ट्रीय श्रम विभाजन के ढाँचों और देशों के बीच व भीतर सामाजार्थिक रिश्तों में रूपान्तरण लाया है और बड़े दुर्द्धर्ष संगठनों का दैत्याकार एक नए साम्राज्यवादी युग को जन्म दे रहा है ? किस तरह से जहाँ एक ओर दुनिया इतिहास में पहली बार एक ग्लोबल गाँव बनने के इतने नज़दीक पहुँच गई वहीं दूसरी ओर संसाधनों का प्रवाह और पुनर्प्रवाह अधिकतम कुंठित हो रहा है ? जो एकरूपता की प्रवृत्ति है उसके कुछ स्पष्ट नज़ारे हैं : उपभोक्तावाद, जीवन के सभी पहलुओं का वाणिज्यीकरण, सफलता के स्टीरियोटाइप, आधुनिक ज्ञान की हठधर्मिता, दंभ और आतंक। तब लगता है तुलसी ने सही सावधान किया था और उस विज्ञान की अपेक्षा की थी जो ऐसे अहंकार को
पतंगे की तरह जला दे :

एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय।
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब॥
भावार्थ:-इस प्रकार तेज की राशि विज्ञानमय दीपक को जलावें, जिसके समीप जाते ही मद आदि सब पतंगे जल जाएँ।

ई-गवर्नेंस का लक्ष्य वह है जो तुलसी रामराज्य में उपलब्ध हुआ बताते हैं- सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥

ई गवर्नेंस अभी ज्ञान के पूँजीकरण को क्रमशः ख़त्म कर रही है। आज अरबों पुस्तकों की लाइब्रेरी के समान एक गूगल है। आज मेरी बेटी को जॉन हॉपकिन्स के प्रोफ़ेसर से एनॉटॉमी पढ़नी है तो वह यूट्यूब से उनका लेक्चर सुन लेती है।आज फ़्री सॉफ़्टवेयर हैं।पहले हम फ्री मार्केट इकॉनमी की बात करते हैं आज फ्री इकॉनमी उभर रही है। रामराज्य का चित्र खींचते हुए तुलसी कहते हैं- सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी/सब कृतग्य नहिं कपट सयानी। सब पंडित हैं वहाँ। सब ज्ञानी हैं वहाँ। कोई वर्ण, कोई जाति विशेष का विशेषाधिकार नहीं है ज्ञान पर। यानी ज्ञान पर access का प्रश्न नहीं है, कोई डिजिटल डिवाइड नहीं है, डिजिटल इन्क्लूज़न की समस्या नहीं है और ज्ञान के क्षेत्र में एक तरह का यूनिवर्सल पार्टिसिपेशन है।

ई गवर्नेंस का लक्ष्य रामराज्य का ही exteriorisation है। वहाँ रामराज्य में ज्ञान एक आंतरिक समृद्धि है। यहाँ ई-गवर्नेंस में वह ज्ञान externeralize हो जाता है, कहें कि उसका materialization हो जाता है। लेकिन यह उसी रामराज्य की तरह सभी को उपलब्ध है। unrestricted है।

और रामराज्य व ई-गवर्नेंस का पूरा खेल ही यही है-
जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव जो धन्य।

– मनोज श्रीवास्तव

Leave a Reply