सुनहरी किरण

रात के सन्नाटे में जीप धांय-धांय उड़ी जा रही थी…किरण ड्राइवर के पास वाली सीट पर बैठी थी। कांस्टेबल ओम प्रकाश गाड़ी चला रहा थे। पीछे की सीट पर उसकी अन्य दो सहकर्मी निद्रालीन थीं। किरण की वैसे भी अनिद्रा से पुरानी यारी थी, सो वह आगे की सीट पर बैठी थी। 

किरण हरयाणा के एक सीमावर्ती पुलिस थाने में असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर के पद पर तैनात थी। अपने थाने में व आस-पास के अन्य थानों में भी उसकी काफी इज्जत थी क्योंकि वह अपने काम के प्रति समर्पित थी। अपने सीनियर व जूनियर-दोनों से बनाकर चलती थी और सबका सम्मान करती थी। किसी की मजाल नहीं थी कि कोई उससे फालतू की हंसी-ठिठोली कर ले, उसके व्यक्तित्व में एक अलग सा ही रौब था। हां और उस जैसी अंग्रेजी आस-पास के पुलिस थानों में कोई नहीं जानता था, इसी कारण से अक्सर हाई प्रोफाइल केसेस में किरण को आगे रखा जाता था। इस समय किरण व उसकी टीम एक सम्मान समोराह के लिए जा रहे थे जहां किरण को ‘बेस्ट फीमेल सब इंस्पेक्टर’ के टाइटल से सम्मानित किया जाना था। उसके सभी सहकर्मी बहुत खुश थे क्योंकि उन्हें पता था कि किरण इस सम्मान के योग्य है तभी उसे चुना गया है। सुबह के पांच बजने को थे – तड़का हो रहा था- सूर्य देवता अभी शायद अंगड़ाई ले जागने की प्रक्रिया में थे – किरण रास्ते में गुजरते सरसों के खेतों को देखती-देखती खो-सी गयी….-

बीस वर्ष की उम्र में किरण की शादी बंसीलाल से कर दी गयी। यह पूरी तरह से अरेंज्ड गठबंधन था, किरण ने तो ठीक से अपने वर को देखा भी नहीं था। शादी के पहले वर्ष में ही किरण को लगने लगा कि वह कहां फंस गयी है। गृहस्थी के कामों में कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहना एक बात थी पर बंसी का उसके साथ किया गया अमानवीय व्यवहार उसे ज्यादा खलता था। शारीरिक-मानसिक-भावनात्मक रूप से कहीं भी किरण उस से जुड़ नहीं पायी। बंसी हर शाम घर पी कर आता, उसके घरवाले उसी का पक्ष लेते कि ‘जवान छोरा है। यही तो उमर है मौज मस्ती की, कोई थारे बाप से तो मांग के न पीवे है।’

बंद कमरे में रात दर रात किरण का बलात्कार होता था, बंसी हर तरह से उस पर हावी रहता। किरण उसके लिए घरवाली नहीं मात्र एक बांदी थी जिसका कर्तव्य ही था कि हर तरह से उसे खुश रख सके।

जब ब्याह हुआ था तो लहकते सरसों के खेत-सी थी किरण और अब साल भर में रेड रॉट रोग से ग्रसित बीमार नीरस सूखे गन्ने की तरह रह गयी थी.. शरीर पे हर जगह इतने जख्म। ससुराल में कौन उसकी व्यथा सुनता-समझता …वह दिन भर खेतों में-घर में सारे काम करती रहती और रात में बंसी की हवस का शिकार होती- निष्प्राण काया सी बन कर रह गयी थी। सबसे ज्यादा किरण को खलता कि उसे मायके नहीं भेजा जाता था.. वह तरस जाती थी अपने मां-बाप.. भाई-बहनों से मिलने को।

दूसरा वर्ष बीतते-बीतते किरण उम्मीद से हुई, तब उसे लगा कि शायद अब बंसी का उसके प्रति मोह जागेगा – अब शायद उसकी आदतों में सुधार आएगा..। पर कोई बदलाव नहीं आया था बंसी में -क्योंकि किरण काफी कमजोर थी सो डाक्टरनी ने उसे भारी काम-काज करने को मना किया- बंसी तब रातों को घर ही नहीं आता था- किरण को समझ आ गया था कि वह कहां जाता होगा …। जैसे-तैसे नौ महीने बीते व किरण ने उस जैसी ही मैदे की लोई सी सुंदर सी बिटिया को जन्म दिया …पर घर में तो शोक छा गया..। सब छोरे की उम्मीद लगाए बैठे थे और पैदा तो मनहूस छोरी हुई थी। बंसी तो उसे देखने भी नहीं आया था जचकी के कमरे में…पर किरण की ख़ुशी की सीमा नहीं थी -वह अपनी छवि देख कर बहुत ज्यादा खुश थी..कोई तो मिला उसे अपना कहने को।

बिटिया को जन्मे अभी तीन दिन ही हुए थे …उस रात बंसी ने खूब पी रखी थी। बंसी के मां बाप रोज किरण को व बंसी को ताने देते कि जनी भी तो क्या छोरी …छोरा पैदा करने का दम न था तेरे में बंसी। उस रात बंसी पर राम जाने कौन सा भूत सवार था…देसी शराब से भभकता बंसी लपक कर जचकी वाले कमरे में घुसा और उस नन्हीं-सी जान को उठा कर बाहर आंगन में जोर से ला पटका और उस पर अपनी बोतल दे मारी …लिखने की जरुरत भी नहीं है कि उस तीन दिन की बच्ची का क्या हश्र हुआ होगा…चीख तक नहीं निकली।

किरण कंपकंपाती सी-भागती सी बाहर आयी और जैसे ही उसने अपनी बच्ची पर बोतल से वार होता देखा वह वहीं बेहोश हो गयी। दूसरे दिन जब उसे होश आया तो एक गठरी की तरह खुद को उस जचकी वाले कमरे में पड़ा पाया। कमजोर देह जो करीब तीन सालों में एकदम कंकाल हो चली थी – अंतर-मानस तार-तार हो चला था-लगा था कि बस उसके भी प्राण निकलने को ही हैं…दिल में दुखों का ज्वालामुखी फट पड़ा था…वह अपनी कोख को भींच कर बैठ गयी …चीख कर रोने का भी दम नहीं था उसमें…गर्म लावे की तरह आंसू बहते रहे और उसकी सिसकियां भी सिर्फ उस कच्ची माटी की दीवारों ने सुनी ..वह बार-बार अपने सूने से बिछौने को देखती और पछाड़ें खा कर बेहोश-सी हो जाती।

पता नहीं कितने दिन उसने इस तरह गुजारे …तभी एक दिन खबर आयी कि उसके पिता की अकस्मात् मृत्यु हो गयी है …उसकी मौसी का परिवार उसे लिवाने आया था, ससुराल वालों ने भी बला टली कहकर भिजवा दिया कि कुछ दिन वहां पड़ी रहेगी-तो ठीक होगा…घर में तो मनहूसियत ही लायी थी हरामजादी।

किरण अपनी कोख के दर्द से ही अभी उबरी नहीं थी ..उस पर पिता की मृत्यु की खबर किसी आघात से कम नहीं थी।

करीब तीन साल बाद अपने मायके आ कर किरण को पिता की मृत्यु के दुःख से ज्यादा यहां आना सुखद लगा- उसे अपनी यह मनःस्थिति पर अचरज हुआ ..पर यही सत्य था। किरण के मायके वाले किरण का ऐसा कमजोर हाल देख कर परेशान हो चले थे और जब किरण ने उन लोगों को खुद की आपबीती सुनाई तो उनकी रुलाई फूट पड़ी। पर किरण को सबसे खराब लगी उसकी मां की बात -‘हम औरतों का जीवण तो मरद क हाथ ही होवे है और हमारा तो जनम ही उनकी चाकरी खातिर होवे है न छोरी …घरवाला ही घर का राजा होवे है…। अब थारी किस्मत जैसी है वैसी है ..निभा ले छोरी।’

किरण फटी आंखों से उन्हें देखती रही कि एक मां सब कुछ जानते हुए कैसे अपनी बेटी को ऐसी बात कह सकती है।

दो महीने से ऊपर हो चले थे ससुराल से किसी का कोई समाचार नहीं आया और इस बात से किरण बहुत खुश थी। अपनी नवजात बेटी की हत्या का दृश्य सोचते ही किरण सिहर जाती-रह रह कर वह भयावह रात उसके आंखों के सामने आ जाती।

मायके में फिर से उसका शरीर भरने लगा था क्योंकि यहां तन-मन से वह खुश जो थी …और अंदर ही अंदर वह खुद के बिखरे टुकड़ों को भी जोड़ने लगी थी और उसने निश्चय कर लिया था कि वह वापिस लौट कर उस नरक में कभी नहीं जायेगी। उसके मौसा-मासी उसका दर्द समझते थे… भगवान् के भेजे फरिश्तों से कम नहीं थे और उन्होंने भी इसका साथ दिया – मौसाजी के बड़े बेटे वकील थे, उन्होंने किरण को तलाक लेने की सलाह दी। किरण ने समाज की परवाह न करते हुए तलाक की अर्जी डाली। मां व भाई-बहन बहुत खफा हुए पर किरण पर अब मानो खून सवार था। वह फैसला कर चुकी थी। अर्जी देख कर ससुराल वालों की धमकियां शुरू हो गयीं पर मौसेरे भाई ने कानून की दलीलें दे उन्हें अपनी औकात दिखा दी। यदा कदा फिर भी वहां से गीदड़ भभकियां आती रहीं मगर किरण को कोई फर्क ही नहीं पड़ा।

उसने मायका-मायके का गांव भी छोड़ दिया क्योंकि घरवालों ने जता दिया था कि वह उनके लिए बोझ और बदनामी के सिवाय कुछ नहीं है। मौसी- मौसाजी की मदद से वह शहर आयी, उन्ही के यहां रहने लगी और उसने सेल्फ-डिफेंस की क्लासेज ज्वाइन की। इंग्लिश स्पीकिंग क्लासेज के साथ साथ वर्जिश भी शुरू की। किरण बी.ए. थी पर ब्याह होने के बाद सारे रास्ते बंद थे पर अब उसे लगा कि उसकी बिटिया ने खुद की बलि देकर उसे नया जीवन दिया है और यह मौका वह किसी भी कीमत पर नहीं खोयेगी।

तलाक हो गया था पर बंसीलाल का दिमाग अभी भी ठिकाने नहीं आया था- एक दिन भरे बाजार उसने किरण को धर दबोचा और जोरदार चांटा लगते हुए गाली दी व घर चलने पर बाध्य करने लगा। तब किरण ने उसकी जो धुनाई की-पूरा बाजार हिल गया। उसके बाद बंसी की परछाई भी किरण के आस पास नहीं फटकी।

उसने कांस्टेबल की पोस्ट पाने के लिए मेहनत शुरू की। उसका चयन बड़ी आसानी से हो गया था क्योंकि कद, उम्र, टाइपिंग पेस, लिखित परीक्षा, ऑन फील्ड टेस्ट- सब में वह अव्वल निकली। उसने समाज की और किसी अन्य की परवाह नहीं की, अपनी धुन की पक्की लगी रही। कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती – और सही भी है -अगर इंसान दृढ़ निश्चय कर ले तो पर्वतों को भी हिला सकता है।

समाज के ताने पड़ते रहे, खुद के परिवारवालों ने सम्बंध तोड़ लिए पर अब उसे बिखेर सके- किसी में ताकत नहीं थी।

साल बीतते गए व किरण अपने पैरों पर खड़ी हो गयी थी- कांस्टेबल से हेड कांस्टेबल बनी फिर असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर- और यह खबर पक्की थी कि बहुत जल्द वह अपने थाने की सब इंस्पेक्टर बना दी जायेगी । अपने काम के प्रति ईमानदारी से समर्पित किरण ने अपने चारों ओर एक लक्ष्मण-रेखा खींच रखी थी और किसी की हिम्मत नहीं थी उसे छूने की।

किरण के विचारों की रेल एक झटके से रुकी जब उनकी जीप शहर पहुंच गयी। उसने राहत की सांस ली …किस बुरे स्वप्न से गुजरी थी किरण पर आखिरकार अंधेरी सुरंग से बाहर निकल ही आयी थी और स्वर्णिम सूर्य की रौशनी बांहें फैलाये उसके सम्मान में कण कण में व्याप्त थी।

– अनु बाफना 

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