ठाकरे…बस नाम ही ‘बाकी’ है

एक समय मातोश्री में बैठे बालासाहेब ठाकरे की आवाज पूरे देश में गूंजती थी, क्योंकि उनकी बातें और विचार समाज में उत्साह का संचार करते थे। वे अपने विचारों से समझौता न करने के लिए प्रसिद्ध थे, परंतु उद्धव ने राजनीतिक लाभ के लिए पूरी विचारधारा को ताक पर रख दिया। परिणामतः आज उन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले कुछ महीनों में जो उठापटक हुई है, उसका केंद्र बिंदु रही है शिवसेना। यह पहली बार नहीं है जब शिवसेना टूटी है। इसके पहले तब शिवसेना टूटी थी जब बालासाहेबठाकरे ने शिवसेना की कमान अपने बेटे उद्धव ठाकरे के हाथों में सौंपी थी और राज ठाकरे शिवसेना से अलग हो गए थे। तब सभी को लगा था कि राज ठाकरे से शिवसेना छीनकर उद्धव ठाकरे को सौंप दी गई है और अब इतने वर्षों के बाद उद्धव ठाकरे से ही शिवसेना छिन गई है। लेकिन क्या सचमुच उद्धव ठाकरे से शिवसेना ‘छिन’ गई है? या यह कहना अधिक उचित होगा कि उद्धव ठाकरे ने शिवसेना गंवा दी है। उद्धव ठाकरे न तो शिवसेना को राजनैतिक पार्टी के रूप में मजबूती दे पाए और न ही उसका वैचारिक अधिष्ठान संजोकर रख सके। बालासाहेबने जिस विश्वास के साथ उन्हें शिवसेना का प्रमुख घोषित किया था, उस विश्वास पर वे खरे नहीं उतर पाए।

पिता-पुत्र में विरोधाभास

कहावत है- ‘पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय।’ अर्थात पुत्र यदि सपूत है तो पिता को उसके भविष्य की चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं और पुत्र यदि कपूत है तो पिता उसके भविष्य के लिए लाख प्रयास कर ले वह सब कुछ गंवा ही देगा। उद्धव ठाकरे इसी का जीता-जागता प्रमाण हैं। बालासाहेबठाकरे ने जितने प्रयासों से एक-एक शिवसैनिक को जोडा था, पार्टी को हिंदुत्व का अधिष्ठान दिया था, हिंदुत्व और राष्ट्र का विरोध करने वालों के काल के रूप में शिवसेना को तैयार किया था, उस शिवसेना को उद्धव ठाकरे ने भीगी बिल्ली और सत्ता के मोह में जी-हजूरी करने वाली पार्टी बना दिया था। 1993 के हिंदू-मुस्लिम दंगों के समय बालासाहेबठाकरे ने गरजते हुए कहा था ‘हिंदुओं! हाथों में चूड़ियां पहन लो’ और उसके बाद के हिंदुओं की आक्रामकता को कोई मुंबईवासी भूल नहीं सकता।

अपनी एक आवाज से हिंदुओं में चेतना भरनेवाले बालासाहेब ठाकरे का यह सुपुत्र मुख्य मंत्री बनते ही हाजी अली की दरगाह पर सिर झुकाने पहुंच जाए, मुसलमानों लिए ‘सॉफ्ट कार्नर’ दिखाने लगे तो लोगों के मनों में प्रश्न निर्माण होना स्वाभाविक ही है। और तो और यह प्रश्न केवल आम लोगों के मनों में नहीं शिवसैनिकों के मनों में भी उठ रहे थे क्योंकि ये शिवसेना की विचारधारा से बिलकुल उलट थे। अपने इन्हीं कृत्यों और विचारों के कारण वे अपनी ही समवैचारिक पार्टी भाजपा से दूर होते चले गए और रा.स्व.संघ को नीचा दिखाने में भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोडी थी, जबकि बालासाहेबने वैचारिक आधार पर दोनों का ही सम्मान किया था। यहां तक कि गोधरा कांड के बाद नरेंद्र मोदी का खुलकर समर्थन करने वाले भी बालासाहेब ही थे। कुल मिलाकर बात यह है कि मातोश्री से बिना बाहर निकले काम करने की आदत के अलावा उनमें बालासाहेबके कोई गुण नहीं दिखाई दिए।

राजनैतिक दांव-पेंच

महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने जाते-जाते उद्धव ठाकरे को ‘संत’ कहा था, इसे उनका बड़प्पन ही कहना चाहिये क्योंकिउद्धव ठाकरे न तो शब्दश: संत हैं और न अर्थश:। वे गृहस्थ हैं तिस पर राजनीति में हैं, तो स्वाभाविक है कि पत्नी और बेटे का भी उनकी सोच पर प्रभाव है, लेकिन एक बात तो है कि राजनैतिक दांव-पेंच समझने के मामले में वे बहुत कच्चे निकले। पहले न तो वे शरद पवार के राजनैतिक दांव को समझ पाए और न बाद में शिंदे-फडणवीस के। इसलिए शिवसेना नाम और चुनाव चिन्ह गंवाने के बाद खेल में हारे किसी बच्चे की तरह रोते रह गए कि मेरे साथ छल किया गया है। वास्तविकता तो यह है कि उद्धव, सामान्य शिवसैनिक, अपने कार्यकर्ताओं या महाराष्ट्र की जनता किसी की भी नाड़ी नहीं जान सके वरना शिवसेना के इतने सारे विधायक गुवाहाटी पहुंच गए और उनको भनक भी नहीं लगी यह कैसे संभव होता?

व्यक्ति जिस क्षेत्र में नेतृत्व कर रहा है उस क्षेत्र के दांव-पेंच और भविष्य में घटित हो सकनेवाली घटनाओं का अंदाजा होना बहुत आवश्यक होता है और इसके लिए आवश्यक है कि वह जमीनी कार्यकर्ता के रूप में अपना कार्य शुरु करे क्योंकि उस दौरान आए हुए अनुभव ही व्यक्ति को भविष्य के लिए तैयार करते हैं, परंतु उद्धव ठाकरे को बिना किसी विशेष अनुभव के सीधे नेतृत्व की कमान संभालने की जिम्मेदारी दे दी गई। इसलिए उनमें नेतृत्व के गुण नहीं उभर पाए और उसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा।

शिवसेना: पारिवारिक पार्टी

यह सही है कि शिवसेना को बालासाहेबने मुंबई से शुरु किया था परंतु धीरे-धीरे पार्टी ने पूरे महाराष्ट्र में अपनी पकड़ बना ली और केवल इतना ही नहीं पार्टी के रूप में उसकी राष्ट्रीय पहचान भी बन चुकी थी। पहले मराठी अस्मिता को आधार बनाकर शिवसेना ने अपनी पैठ बनाई थी जिसका विस्तार बालासाहेबके नेतृत्व में हिंदुत्वनिष्ठ पार्टी के रूप में हुआ। उद्धव ठाकरे को चाहिए था कि वे इसका लाभ लेकर पार्टी को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करते परंतु इसके लिए लोगों को जोडकर रखने का जो स्वभाव अपेक्षित होता है, वह उद्धव ठाकरे का नहीं रहा। अपनी हेकड़ी में उन्होंने ऐसे-ऐसे कद्दावर कार्यकर्ताओं को अपने से दूर कर दिया जिनके दम पर वे राष्ट्रीय नेता बन सकते थे।

शिवसेना के इस पूरे खेल में सबसे ज्यादा दुख मनोहर जोशी और उनके समय वारिष्ट कार्यकर्ताओं को हुआ होगा, जिन्होंने एक-एक शिवसैनिक को जुडते और अलग होते देखा है। परंतु अगर वे कार्यकर्ता भी अगर अपना दृष्टिकोण ‘ड्रोन व्यू’ रखें तो समझ में आएगा कि शिवसेना और शिवसैनिक अभी भी एक साथ हैं उन्होंने बस ठाकरे परिवार को छोड़ दिया है। अब ठाकरे परिवार के पास न शिवसेना बची है और न ही तीर-कमान, अब तो ठाकरे……..बस नाम ही बाकी है।

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