आज जहां एक तरफ देश में हिन्दू राष्ट्र चर्चा का विषय बना हुआ है। तो दूसरी तरफ देश के कई हिस्सों में रामनवमी के जुलूस के दौरान भारी हिंसक उत्पात की खबरें आती हैं। एक तरफ हमारे देश में देश में धार्मिक असहिष्णुता या फिर हिन्दुफोबिया का माहौल बनाने की कोशिशें की जाती हैं तो दूसरी तरफ अमेरिका की जॉर्जिया असेंबली में ‘हिंदूफोबिया’ (हिंदू धर्म के प्रति पूर्वाग्रह) की निंदा करने वाला एक प्रस्ताव पारित किया जाता है।
इस प्रस्ताव में कहा जाता है कि “हिंदू धर्म दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे पुराना धर्म है और दुनिया के 100 से ज्यादा देशों में 1.2 अरब लोग इस धर्म को मानते हैं। यह धर्म स्वीकार्यता, आपसी सम्मान और शांति के मूल्यों के साथ विविध परंपराओं और आस्था प्रणालियों को सम्मिलित करता है। हिन्दू धर्म के योग, आयुर्वेद, ध्यान, भोजन, संगीत और कला जैसे प्राचीन ज्ञान को अमेरिकी समाज के लाखों लोगों ने व्यापक रूप से अपना कर अपने जीवन को सुधारा है।” एक रिपोर्ट के अनुसार 3.6 करोड़ अमरीकी योग करते हैं और 1.8 करोड़ ध्यान लगाते हैं।
इन परिस्थितियों में प्रश्न यह उठता है कि क्या हिन्दू धर्म जिसे हम सनातन धर्म भी कहते हैं और “सनातन संस्कृति” भी कहते हैं इसमें ऐसा क्या है कि “हिन्दुफोबिया” जैसी भावना या फिर ये शब्द ही आस्तिव में आया? क्या है ये सनातन संस्कृति जिसका साक्षी भारत रहा है? क्या ये वाकई में अनादि और अनन्त है? वर्तमान में इस प्रकार के प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक हो गए हैं। लेकिन समस्या ये है कि इन प्रश्नों के उत्तर किसी पुस्तक में तो कतई नहीं मिलेंगे। क्योंकि ये प्रश्न जितने जटिल प्रतीत होते हैं इनके उत्तर उससे कहीं अधिक सरल हैं। हमारे मन में यह विचार आ सकता है कि यदि हम वेद पुराण आदि पढ़ लें तो हमें इन सभी सवालों के जवाब मिल जाएंगे। शायद ऐसा सोचने वाले लोगों के लिए ही कबीर ये पंक्तियां लिख कर गए थे कि पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित बना न कोय ढाई आखर प्रेम का पढ़े तो पंडित होय। देखा जाए तो इन सरल सी पंक्तियों में कितनी गहरी बात छिपी है।
वाकई में अगर हम इन प्रश्नों के उत्तर खोजना चाहते हैं तो हमें किसी वेद पुराण या किसी किताब को नहीं बल्कि भारतीय समाज को,उसकी समाजिक व्यवस्था को बारीकी से समझना होगा। वो संस्कृति जो संस्कारों से बनती है। वो संस्कार जो पीढ़ी दर पीढ़ी मां से बेटी में और पिता से बेटे में स्वतः ही बेहद साधारण तरीके से चले जाते हैं। इस प्रकार एक परिवार से समाज में और समाज से राष्ट्र में ये संस्कार कुछ इन सहजता से जाते हैं कि वो उस राष्ट्र की आत्मा बन जाते हैं। लेकिन खास बात यह है कि संस्कार देने वाला जान नहीं पाता और लेने वाला समझ भी नहीं पाता कि कब एक साधारण सा व्यवहार संस्कार बनते जाते हैं और कब ये संस्कार संस्कृति का रूप ले लेते हैं।
ये भारत में ही हो सकता है कि कहीं किसी गली या मोहल्ले में अगर कोई गाय ब्याहती है (बछड़े को जन्म देती है) तो आस पास के घरों से महिलाएं मिल जुल उसके लिए दलिया बनाकर उसे खिलाती हैं, उसके बछड़े के लिए घर से किसी पुराने कपड़े का बिछावन बनाती हैं।
कहीं किसी नुक्कड़ पर यदि किसी कुक्कुरी ( मादा श्वान) ने पिल्ले दिए हैं तो आस पास के घरों से बच्चे उसके और उसके पिल्लों के लिए दूध और खाने का विभिन्न सामान लेकर आते हैं और माता पिता भी बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं। ये भारत में ही होता है कि लोग सुबह की सैर के लिए निकलते हैं तो चींटियों और मछलियों के लिए घर से आटा लेकर निकलते हैं। ये भारत में ही होता है कि लोग अपने घरों की छत पर पानी से भरा मिट्टी का सकोरा और दाना पक्षियों के लिए रखते हैं। ये भारत में ही होता है कि हर घर की रसोई में पहली रोटी गाय के लिए और आखरी रोटी कुत्ते के लिए बनती है।
ये छोटी छोटी बातें भारत के हर व्यक्ति का साधारण व्यवहार है जिससे कि इस सृष्टि के प्रति उसके दायित्वों का निर्वाहन अनजाने ही सहजता से हो जाता है। इस व्यवहार को करने वाले व्यक्ति ने भले ही वेदों का औपचारिक रूप से अध्ययन न किया हो लेकिन फिर भी ये सभी कार्य वो अपनी दिनचर्या में सामान्य रूप से करता है। लेकिन अब अगर आपको बताया जाए कि वेदों में पांच प्रकार के यज्ञ बताए गए हैं जिनमें से एक है “वैश्वदेवयज्ञ:” सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ,जो कुछ भी भोजन पकाया गया हो उसका कुछ अंश गाय, कुत्ते और पक्षी को देना ही वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है तो आप क्या कहेंगे।
ये है हिन्दू धर्म या सनातन संस्कृति जिसकी जड़ें संस्कारों के रूप में परम्पराओं के रूप में भारत की आत्मा में अनादि काल से बसी हुई हैं।
ये भारत में ही होता है जहाँ एक अनपढ़ व्यक्ति भी परम्परा रूप से नदियों को माता मानता आया है और पेड़ों की पूजा करता आया है। हिन्दुफोबिया से ग्रसित लोग जिसे अंधविश्वास और पिछड़ापन कहते रहे आज आधुनिक वैज्ञानिक उसे विज्ञान मानने के लिए विवश हैं। उनकी भी गलती नहीं है क्योंकि वो बेचारे तो आज यह खोज पाए हैं कि पेड़ भी जीवित होते हैं। वे आज जान पाए हैं कि पेड़ 40 किलो हर्ट्ज से 80 किलो हर्ट्ज की फ्रीक्वेंसी की आवाजें भी निकालते हैं। लेकिन चूंकि मनुष्य केवल 20 हर्ट्ज से 20 किलो हर्ट्ज तक की फ्रीक्वेंसी की आवाजें ही सुन सकता है इसलिए हमें वो आवाजें सुनाई नहीं देतीं।
भले ही आधुनिक वैज्ञानिक आज जान पाए हों कि हर पौधा खुश भी होता है दुखी भी होता है, उसे डर भी लगता है, उसे पीड़ा भी होती है। लेकिन भारत के लोग तो सनातन काल से पेड़ों को चेतन मानते आए हैं। इसीलिए संध्या के बाद उन्हें जल तक नहीं देते कि वो विश्राम कर रहे हैं। और अगर औषधीय उपयोग के लिए भी यदि उनके किसी अंग को लेते हैं जैसे पत्ते, फूल,छाल अथवा बीज या फिर जड़ तो पहले उस वृक्ष से अनुमति मांगते हैं, क्षमा मांगते है। यहां लोग पत्थर को भी पूजते हैं और कंकड़ में भी शंकर को ढूंढते हैं।भारत के लोग ऐसे जी जीवन जीते हैं, सदियों से जीते आए हैं और आगे भी जीते रहेंगे। क्योंकि भारत की आत्मा इन्हीं संस्कारों में बसती है। ये ही है भारत, यही है हिन्दू धर्म यही है सनातन संस्कृति। अब इस सनातन धर्म से किसी को हिन्दुफोबिया हो रहा है तो आगे आप खुद समझदार हैं।
– डॉ. नीलम महेंद्र