पूर्व विधायक, सांसद, बाहुबली नेता और माफिया अतीक और उसके भाई अशरफ को जब साबरमती से उत्तर प्रदेश लाया जा रहा था तब मीडिया और आम जनता को हर पल यह लग रहा था कि विकास दुबे की तरह इसका भी एनकाउंटर कर दिया जाएगा। इसलिए मीडिया ने उसकी ‘किसी भी मूवमेंट’ को नहीं छोड़ा था, परंतु ऐसा हुआ नहीं। अंतत: अपनी जान बचाते रहने के लिए जिस मीडिया को वह धन्यवाद दे रहा था, उसी मीडिया के सामने दोनों भाइयों की हत्या कर दी गई।
अतीक की हत्या उस दुर्दांत कहानी का अंत थी, जो उसने अपनी हाईस्कूल(1979) की परीक्षा फेल होने के बाद से लिखना शुरू की थी। इसी साल उसने पहली हत्या की थी और यह सिलसिला चलता ही रहा। सरेआम हत्या करना, हत्या के बाद खाल नोंचकर सड़क पर फेंक देना, धन उगाही के लिए लोगों और राजनेताओं को टॉर्चर करना अतीक की क्रूरता के प्रमाण थे। उसका दबदबा इतना होता था कि उसकी आंखों में आंखें डालकर बात करने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता था।
ऐसे क्रूर अतीक और उसके भाई अशरफ की इस तरह हत्या ने कई प्रश्न उपस्थित कर दिए हैं और जब तक किसी बात के कुछ पुख्ता साक्ष्य या प्रमाण नहीं मिल जाते तब तक सभी प्रश्न अनुत्तरित ही रहेंगे। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों को छोड़ दिया जाए तो भी सबसे पहली आशंका जो मन में आती है, वह यही है कि यह उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ का ही किया धरा है। सबको ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश को येनकेन प्रकारेण अपराधों से मुक्त करने की, आपराधिक और अनधिकृत चीजों को नष्ट करने की जो कसम उन्होंने खाई है, उसी को पूरा करने के लिए यह सब किया जा रहा है। परंतु विचारणीय बात यह है कि कोई भी मुख्य मंत्री ऐसा कोई काम क्यों करेगा जो कानून के दायरे में न हो और जिसके कारण प्रदेश में दंगे भड़कने और प्रशासन व्यवस्था डगमगाने का डर हो। भागते हुए अपराधी का एनकाउंटर और अपने ही राज्य की पुलिस की सुरक्षा में किसी अपराधी की हत्या होने में जमीन-आसमान का अंतर है। यह घटना प्रशासन पर हजार प्रश्नचिह्न खड़े कर देती है। हिंदू-मुस्लिम दंगों का धरातल बनाने की गलती शायद ही योगी करेंगे।
अतीक के अपराधों का साम्राज्य तो ध्वस्त हो ही चुका था, वह खुद मीडिया से अपने लिए कह भी चुका था कि, ‘मिट्टी में तो मिला ही दिया है, अब तो घसीटे जा रहे हैं।’ उसके आर्थिक मामलों, सम्पत्तियों पर भी सरकार की कार्रवाई हो ही रही थी फिर उसे इस तरह मारने में किसका हित हो सकता था! यहां दूसरी आशंका उन लोगों की ओर इशारा करती है जिनके रहस्य धीरे-धीरे करके अतीक खोलता जा रहा था। सभी जानते हैं कि अतीक का समाजवादी पार्टी से गहरा नाता था। समाजवादी पार्टी के आकाओं के राजाश्रय के कारण ही अतीक की हिम्मत दुगुनी-चौगुनी बढ़ी थी। अत: इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि अतीक के काले धंधों में समाजवादी पार्टी के बड़े लोगों का साथ हो। जैसे-जैसे पूछताछ में वह अपने सारे कारनामों से पर्दा उठा रहा था और अपने संगी-साथियों, सम्बंधितों के बारे में बता रहा था, उससे यह तो निश्चित था कि कई बड़े नाम सामने आने वाले थे। जाहिर है, अतीक की मौत ने इस पर कुछ समय के लिए तो विराम लगा ही दिया है।
अतीक की हत्या के पीछे जो भी षड्यंत्र हो यह तो तय है कि हत्या सुनियोजित थी। तीनों हत्यारों का एक दूसरे से कोई पुराना सम्बंध नहीं था। जिस तरह वे मीडिया का पहचान पत्र लेकर आए थे, जिस तरह की तुर्किये में बनी बंदूकें उनके पास थी, जिस तरह पुलिस की चाकचौबंद सुरक्षा के बीच से आकर उन्होंने अतीक और अशरफ पर ताबड़तोड़ फायरिंग की थी, जिस तरह उन हत्यारों पर पुलिस ने कोई पलटवार नहीं किया वरन् उन तीनों ने ही तुरंत आत्मसमर्पण कर दिया, यह सब ऐसा लग रहा था जैसे इस नाटक की रिहर्सल की जा चुकी है।
अतीक का मरना तो तय था परंतु वह इस प्रकार मारा जाएगा यह किसी ने सोचा नहीं होगा। उसके मरने के तरीके पर भले ही लोग प्रश्नचिह्न लगा रहे हों परंतु उसकी मृत्यु से अधिकतर लोग खुश ही हैं। एक कुख्यात अपराधी को इस नौबत तक ले आना कि वह खुद अपनी जुबान से अपना साम्राज्य खतम होने की गवाही देने लगे, इसका श्रेय योगी आदित्यनाथ के कठोर निर्णयों और उनपर अमल करने और करवाने की उनकी शैली को जाता है।
हां, असदुद्दीन ओवैसी जैसे कुछ लोग मुख्य मंत्री योगी के त्यागपत्र देने की मांग जरूर कर रहे हैं, परंतु यह विशुद्ध राजनीतिक शत्रुता से अधिक और कुछ नहीं लगता। जबकि इतना बड़ा कांड होने के बाद जिस तरह मुख्य मंत्री ने सारी बागडोर अपने हाथ में ले ली, सुरक्षा व्यवस्था को अधिक मजबूत कर दिया और राज्य में कोई अप्रिय घटना नहीं होने दी उससे तो यही लगता है कि वे ऐसी किसी घटना के लिए तैयार थे वरना छोटी-छोटी बात पर कट्टा निकाल लेने वाले उत्तर प्रदेश में इतनी बड़ी क्रिया की कोई प्रतिक्रिया नहीं, यह कैसे हो सकता है?