समृद्ध सांस्कृतिक विरासत

इंदौर की सांस्कृतिक विरासत अत्यंत समृद्ध है। यहां की आबोहवा में आपको सामाजिक समरसता और जीवन मूल्यों को बचाए रखने की जिजीविषा दिखाई पड़ेगी। इस शहर ने देश को कई सारी विभूतियां और खानपान के व्यवहार दिए हैं।

भारत की सांस्कृतिक धारणाएं ही उसके सनातन काल से वर्तमान तक के स्थायित्व के नींव की अमर स्तम्भ हैं। हस्तिनापुर, नालंदा, पाटलिपुत्र, अयोध्या, उज्जैन, जैसे अनेक स्थान हैं, जो निरंतर हमें इस तथ्य से अवगत कराकर, हमारा सांस्कृतिक बोध जीवंत रखकर, हमें मार्गदर्शन देते हैं। पुरातन तंजावर हो या विक्रमादित्य की राजधानी उज्जैन, जहां संदीपनी ऋषि के आश्रम में भगवान् श्रीकृष्ण और सुदामा ने शिक्षा ग्रहण की। भारतीय संस्कृति के उद्यमी अन्वेषक, जो सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों में थे, जैसे धन्वंतरि, कालिदास तथा वराहमिहिर जिन्होंने खगोलशास्त्र, संगीत, आयुर्वेद, नाट्यशास्त्र का अध्ययन कर उज्जैन को तत्कालीन शिक्षा केंद्र बनाया। उज्जैन के पास ही सरस्वती तथा खान नदी के संगम पर बना है, भगवान इंद्रेश्वर का 18वीं सदी में बना मंदिर, जिसका गुप्तकालीन नाम इंद्रपुरी था। यही नाम आगे चलकर इंदूर और कालांतर में इंदौर बना, पुण्यश्लोक अहिल्याबाई होलकर ने इसका जीर्णोद्वार कराया।

सम्पन्नता तथा शांति के इस टापू पर रहने वाली अपनी प्रजा को न केवल आराध्य देव मानकर सम्पूर्ण भारत में अनेक मंदिर तथा पवित्र नदियों पर घाट बनवाये बल्कि अनेक ध्वस्त मंदिरों का जीर्णोद्वार भी करवाया। साथ ही, अपने पुत्र मालेराव होलकर को आर्थिक अनियमितत्ता के लिए मृत्युदंड हेतु हाथी के पैरों से कुचलवाकर अपने न्यायिक चरित्र की न्यायप्रियता का विश्व में एकमात्र उदहारण प्रस्तुत किया। इस न्यायप्रियता के अनुषांगिक प्रभाव में ही आज भी समरसता का भाव इंदौर के जन-जन में है, जो उनकी उत्सवप्रियता, संस्कृति प्रेम, व्यवहारिक तथा सांस्कृतिक विधाओं को अपने में समेटे, मानसिक तथा आर्थिक वैभव को आत्मसात किये है। यह भारत के मध्य क्षेत्र में स्थापत्य कला, मूर्ति कला, संगीत, साहित्य, के क्षेत्र में सदैव अग्रणी रहा है।

इंदौर में मनाया जाने वाला मालवा उत्सव वास्तव में पुरातन मध्यभारत राज्य का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रयोजन में ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र का पुनर्विलोकन भी शामिल है, जिसमें संगीत, नृत्य, लोककलाओं का प्रदर्शन व विभिन्न कलाकृतियों का विक्रय भी शामिल हो गया है। मराठा वास्तुकला और यूरोपियन शैली में बना लालबाग महल अपने आप में ही एक दर्शनीय स्थान है और मिश्रित वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है।

‘पग-पग रोटी, पग-पग नीर’ की कहावत को चरितार्थ करता इंदौर संस्कृति तथा लोक व्यवहार की मालवा विरासत को अक्षुण्ण रखकर उन्हें दैनंदिन के व्यवहार में कैसे प्रभावशील बना सकते है, इसका ज्वलंत उदाहरण है। मध्यप्रांत के शिक्षा केंद्र की नीव होलकर राज्य से ही स्थापित हुई । मराठी कवि मोरोपंत, संस्कृत के प्रकांड विद्वान खुलासीराम ने यहीं से अपने क्षेत्र में ख्याति प्राप्त की। होलकर शासन में व्यापार के निरंतर विकास के लिए हरीराव होलकर ने ग्यारह पञ्च नामक संस्था बनाई, जो व्यावसायिक विवादों का निपटारा करती थी। सिख पंथ के धर्मगुरु नानक देवजी इंदौर में राजबाड़े के पास जिस इमली के पेड़ के नीचे रुके थे, वहां विशाल गुरुद्वारा इमलीसाहब बनाया गया है।

इंदौर की सांस्कृतिक यात्रा में यहां के राजबाड़े का का स्थान विशेष है, प्रतिवर्ष हिंदू नववर्ष (गुढ़ी पाडवा) के दिन प्रातः यहां सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, रंगपंचमी पर निकलने वाली ‘गेर’ जिसमें हजारों की संख्या में लोगों द्वारा कई टन रंग तथा तोप से भरपूर गुलाल उड़ाया जाता है। रास्ते पर इंदौरवासी इस रंगयात्रा पर जल की बौछार करते हैं। अब यह युनेस्को के वैश्विक समारोहों की सूची में प्रस्तावित है। राजबाड़े के साथ इंदौरियो की स्मृति से कभी न मिटने वाले पूर्व प्रधान मंत्री स्व. अटल बिहारी के राजबाड़े पर हुए भाषण और उनकी कविताए भी हैं। दो सौ वर्ष पूर्व फ्रेंच, मुगल तथा मराठा शैली में केवल लकड़ी तथा पत्थर से बने इसी ऐतिहासिक महल से पुरातन संगीत की स्वर लहरियां, कविताओं का इतिहास भी जुड़ा है। राजबाड़े पर बारह महीने बच्चों, महिलाओं, पुरुषों, युवाओं का हुजूम बना ही रहता है।

राजबाड़े में स्थित मल्हारमार्तंड मदिर में निरंतर धार्मिक कार्यक्रम, प्रवचन, कीर्तन होते रहे हैं, जिसकी अनुगूंज आज भी इंदौर में वर्षभर दिखाई देती है। इसी राजबाड़े में इंदौर घराने के कोहिनूर, ध्रुपद संगीत के मूर्धन्य गायक हस्सू खां, हद्दू खां, नत्थन पीरबक्श की स्वर लहरियां अभी भी गूंजती प्रतीत होती हैं, जिन्होंने अपनी मेरुदंड गायकी का लोहा सम्पूर्ण विश्व में मनवाया तथा ‘ख़याल गायकी’ में भी नए स्वर जोड़े।

विश्व प्रसिद्ध भारतीय स्वरकोकिला भारतरत्न लता मंगेशकर का जन्मस्थान भी यही इंदौर है, यहां सिख मोहल्ले से आते-जाते आज भी लोग इस बात से ही गौरवांवित हो जाते हैं। मालवी संस्कृति के प्रभाव में पूर्वकाल से ही अनेक क्षेत्रों से त्रस्त लोग इस कलानगर में आकर बस गए। अहिलाबाई के समय से ही इंदौर में जाति भेद को न्याय में कोई स्थान नहीं रहा। असीम शांति, और सद्व्यवहार, यहां के नगरवासियों का स्थाई भाव है और हो भी क्यों नहीं। इसमें भी प्रातःस्मरणीय अहिल्या बाई होलकर का प्रभाव है। एक शासक रानी के दैनंदिन कार्यक्रम को हम देखते हैं। अहिल्या देवी लिखती हैं।

मैं सूर्योदय से पहले उठ जाती हूं। मां नर्मदा के दर्शन कर पूजाघर में स्थित गणेशजी, शिवजी, बालकृष्ण, मल्हारी मार्तंड की पूजा करती हूं। घने वृक्षों के साए में गांव के याचक आकर बैठते हैं, उन्हें सुनती हूं। मैं यह भी पूछती हूं, कि पानी पीने को कुए हैं कि नहीं, दान से बचा हुआ अन्न मैं पक्षियों को खिलाती हूं, मेरा भोजन सात्विक रहता है, दोपहर में दरबार जाती हूं, और थोड़ा आराम कर, रात ग्यारह बजे तक राज्य का कामकाज देखती हूं, मेरा अपना स्वयं का ग्रंथालय था। साहित्यकारों, कवियों का निरंतर आदर मेरे परिवार में पूवर्र् से ही रहा है।

नगर में कवियों और लेखकों की सूची इतनी वृहद है कि उनकी पृथक विवेचना के बिना इसपर न्याय असम्भव है। फिर भी श्याम कुमार श्याम, राजकुमार कुम्भज, सत्यनारायण सत्यन, सूर्यकांत नागर, प्रभाष जोशी, वेद प्रकाश वैदिक, अभय छजलानी जैसे नामों से इंदौर का बच्चा-बच्चा परिचित है।

यह वही इंदौर है, जहां पत्रकारिता को भी राष्ट्रीय सेवा का माध्यम बना दिया गया, राहुलजी बारपुते तथा राजेंद्र माथुर इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। उन्होंने अपने अखबार ‘नईदुनिया’ को मालवा प्रदेश का सांस्कृतिक मंच बनाया।

इंदौर की खाद्य संस्कृति और अथिति सम्मान की चर्चा के बगैर यह आख्यान अधूरा ही रह जाएगा, सदियों से इंदौर ने सभी जातियों, पंथों के लोगों का स्वागत किया है। अतः सभी संस्कृतियां इंदौर की मालवी हवा के साथ घुलमिल गई हैं। इसमें अनेकता में एकता की भावना भी परिलक्षित होती है। यहां लोग स्वयं और मेहमानों को रोज करीब अठराह ट्रक पोहा खिला देते हैं। सुबह के नाश्ते में पोहा और जलेबी जैसे डॉक्टर का दी हुई पर्ची हो। सराफा हो या छप्पन दुकानें हों, रात को ग्यारह बजे तक लोगों से भरी रहती हैं। यहां भारत भर की मिठाईयां, नमकीन, भुट्टे का कीस, गराडू, मूंग का हलवा, आलू कचोरी, दाल बाफले, दही बड़े की दुकानों में हमेशा भीड़ रहती है। यहां देश के बड़े नेता भी बिना किसी तामझाम के आकर इन व्यंजनों का आनंद उठाते हैं। मध्यप्रदेश की आर्थिक राजधानी बना इंदौर अपने अतिथि सम्मान की युगों से चली आई सांस्कृतिक परम्परा के कारण अंतरराष्ट्रीय आयोजनों के लिए भी प्रमुख स्थान बन गया है। अभी कुछ माह पहले ही अंतरराष्ट्रीय व्यापार सम्मलेन में आये अनेक आमंत्रित विदेशी मेहमानों को लोगों ने निवेदन कर अपने घर में अथिति के रूप में रुकवाया। क्या यह और किसी भी शहर या देश में सम्भव है? इति इंदौरस्य संस्कृति गाथा।

– श्यामकांत देशपांडे 

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